MAN KI BAAT : स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बने रामकथा, भारत की प्राचीन संस्कृति में ‘एकं सत विप्र: बहुधा वदंति:’ एक अत्यंत गहन दर्शन.......
बहुधर्मी देश भारत में मत-मतांतर को लेकर समस्याएं आती रहती हैं। यहां इसके अनगिनत उदाहरण मिल जाएंगे। बावजूद इसके हमारे दैनंदिन सरोकारों में पंथिक भाईचारा भी बखूबी देखने को मिल जाएगा। भारत की प्राचीन संस्कृति में ‘एकं सत विप्र: बहुधा वदंति:’ एक अत्यंत गहन दर्शन का प्रकटीकरण है। यह हर प्रकार की पंथिक विविधता को पूर्णरूपेण स्वीकार करता है। यह उन्हें भी त्याज्य नहीं मनाता है जो ईश्वर की उपस्थिति को स्वीकार नहीं करते हैं। प्राचीन भारत की संस्कृति की मजबूत जड़ें अपनी वैश्विकता के लिए जानी जाती रही हैं। इसी कारण धीरे-धीरे भारत की बहुलवादी संस्कृति विकसित हुई जिस पर प्रत्येक भारतीय को गर्व है। अपवादों को छोड़कर यहां हर व्यक्ति दूसरे के धर्म-पंथ को भगवान तक पहुंचने का वैकल्पिक मार्ग मानता है। देश में ऐसे अनगिनत श्रद्धा केंद्र हैं जहां हर पंथ या मजहब के मानने वाले लोग अपनी आस्था प्रकट करने पहुंचते हैं। ऐसी सशक्त सामाजिक परंपराएं सभी वर्गो और समुदायों को आपस में बांधे रखती रही हैं। मुङो यह अनुमान लगाने में कोई हिचक नहीं है कि संविधान निर्माताओं ने भारत की जीवनशैली में अनवरत प्रवाहित पंथनिरपेक्षता की धारा का सम्मान करते हुए संविधान में ‘सेक्युलर’ शब्द को शामिल करना आवश्यक नहीं माना। यह संविधान में 1976 में 42वें संशोधन द्वारा किन परिस्थितियों में और किनके द्वारा तथा क्यों लाया गया, इसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है। सर्व-धर्म समादर, सर्व-धर्म समभाव भारत की संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है।
स्वतंत्रता के बाद पंथिक समस्याएं तब उत्पन्न हुईं जब ‘सेक्युलर’ शब्द का राजनीतिक उपयोग प्रारंभ हुआ, और भारत में ‘सिद्धांतविहीन राजनीति’ ने अपने पैर पसारे। यदि कुछ नेताओं ने अपने निहित राजनीतिक स्वार्थो के चलते सेक्युलर शब्द को जबरन हथियाया न होता तो अयोध्या विवाद इतना लंबा नहीं खिंचता। ‘प्रश्न-प्रतिप्रश्न-परिप्रश्न’ की ज्ञानार्जन परंपरा वाला यह देश संवाद द्वारा इसका निर्णय बहुत पहले कर चुका होता।
सेक्युलरिज्म के नाम पर शिक्षा के साथ भी खिलवाड़ किया गया और नई पीढ़ी को प्राचीन भारत की सभ्यता, दर्शन और साहित्य से पूरी तरह अपरिचित रखा गया। सभी मानते हैं कि भारत को समझने में सबसे अधिक सहायक रामायण और महाभारत ही होते हैं। वामपंथियों ने अपने विदेशी आकाओं का अंधानुकरण करते हुए रामायण और महाभारत को स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम से ही बाहर कर दिया। गीता के नीति-श्लोक निकाल दिए जो कुछ चरित्र निर्माण में सहायक हो सकता था, सर्व-धर्म समादर बढ़ा सकता था, लेकिन वह क्षुद्र राजनीति का शिकार बन गया। नतीजतन आज हर कोई मूल्यों के क्षरण की चिंता कर रहा है। राजनीति में नीति ढूंढ पाना लगभग असंभव हो गया है। रामकथा में चरित्र निर्माण के सभी तत्व उपस्थित हैं। राम के चरित्र पर प्रश्न पूछने का बच्चों को पूरा अधिकार है। आज मुख्य चर्चा इस बिंदु के आसपास ही होनी चाहिए कि भारत की संस्कृति के स्नोत से देश की भावी पीढ़ियों को दूर रखना न केवल इस देश के लिए हानिकारक होगा, बल्कि विश्व शांति और समेकित प्रगति के लिए भी घातक ही होगा।
भारत ही नहीं, पूर्व की संस्कृति और सभ्यता की प्रगति और विकास में वाल्मीकि रामायण और रामकथा का योगदान असीम रहा है। भारत की हर एक भाषा में तथा अनेक विदेशी भाषाओं में रामकथा लिखी-पढ़ी गई, कथा वाचक परंपरा फली-फूली। उसमें कितने परिवर्तन हुए, मगर मूल धारा गंगा की तरह ही स्वीकार्य रही। उसका वैचारिक प्रवाह जीवन की व्यावहारिकता में अपना स्थान बना ही लेता था। तुलसीदास की रामचरित मानस ने उस समय के संपूर्ण परिदृश्य को प्रभावित किया। इसी परंपरा में रामकथा हर उस क्षेत्र, हर उस देश में लोगों की भाषाओं में वर्णित की गई। वह उच्चतम स्तर के साहित्य से चलकर लोक प्रवाह में अपने अनेकानेक स्वरूपों में अवतरित होती गई, मन-मानस में बसती गई, प्रेरणा देती गई और मानवीय सोच तथा क्षितिज को विस्तार देती गई। इस विस्तार को व्यवस्थित करने का उत्तरदायित्व आज भी शिक्षा व्यवस्था का ही है। ज्ञान का ग्रहण, नव ज्ञान के सृजन, उसके उपयोग की संभावनाओं का निर्देशन और उसे अगली पीढ़ी तक समर्पित करने का कार्य शिक्षा व्यवस्था से ही होगा।
कुल मिलाकर राम का संपूर्ण व्यक्तित्व चरित्र निर्माण का प्रेरणा स्नोत बनकर उभरता है। इसे समझने वाला न केवल अपना व्यक्तित्व निखारेगा, बल्कि वह पंथिक सद्भाव को अपना कर्तव्य भी मानने लगेगा। राममय मन सच्चे अर्थ में सर्व-धर्म-समादर को पहचानेगा। वर्तमान दौर में इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है।
(लेखक शिक्षा और सामाजिक समन्वय के क्षेत्र में कार्यरत हैं)
जगमोहन सिंह राजपूत
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