MAN KI BAAT : एक ऐसे दौर को जिसे ज्ञान की शक्ति का युग कहा जा रहा है तब भारत में सरकारी स्कूल बंद कराने का अप्रत्याशित चलन.......
[जगमोहन सिंह राजपूत]। देश के कई राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों के दौरे में एक बात पता चली कि लोगों में सरकारी स्कूलों के बंद होने की शंका बढ़ रही है। वे सवाल कर रहे हैं कि क्या सरकार अपने सभी स्कूल बंद करने जा रही है? यह प्रश्न उठना अस्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि तमाम स्कूलों का एक-दूसरे में विलय किया जा रहा है। इस पर दलील यह है कि ये स्कूल व्यावहारिक नहीं रह गए हैं और यहां संसाधन झोंकना समझदारी नहीं है। एक ऐसे दौर को जिसे ज्ञान की शक्ति का युग कहा जा रहा है तब भारत में सरकारी स्कूल बंद कराने का अप्रत्याशित चलन आरंभ हो रहा है। सरकार दूरदराज के इलाकों को स्कूलों से दूर कर रही है। आखिर इस पर क्यों नहीं ध्यान दिया गया कि साल दर साल सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या क्यों घटती गई और आज हजारों की तादाद में स्कूलों को बंद करने या उनके विलय की मजबूरी क्यों सामने आई है? जो स्थिति बनी है उसे समग्र रूप से समझने के लिए एक बेहद प्रभावकारी नवाचार को याद करना जरूरी है।
राजस्थान के तिलोनिया में 1984-86 में सोशल वर्क एंड रिसर्च सेंटर नामक संस्था ने तीन प्रायोगिक स्कूल चलाए। इसमें उपलब्ध स्थानीय शिक्षित व्यक्तियों को अध्यापन के लिए नियुक्त किया गया। उन्हें शिक्षा कर्मी नाम दिया गया और लगातार सेवाकालीन प्रशिक्षण दिया गया। पाठ्यक्रम और शिक्षण विधा को स्थानीयता से जोड़ा गया। चूंकि पाठ्यक्रम में स्थानीय समस्याओं की जानकारी तथा समाधान भी शामिल थे, लिहाजा सभी लोगों और परिवारों ने इस ‘स्कूल’ में रुचि ली और यथासंभव सहयोग दिया। परिवर्तन के लिए स्थानीयता का ज्ञान और समझ आवश्यक माना गया। स्थानीय व्यक्ति ही समाज से पूरी समझ के साथ जुड़ सकता है।
कालांतर में आंगन पाठशालाएं सफलतापूर्वक चलाई गईं और स्कूल छोड़ चुके बच्चों के लिए सुविधानुकूल समय पर ‘प्रहर पाठशालाएं’ भी संचालित हुईं। यह पूरी कवायद इसलिए की गई, क्योंकि उस क्षेत्र में सरकारी स्कूल लगभग निष्क्रिय हो गए थे। विकल्प की तलाश में यह प्रयोग अत्यंत सफल रहा। चूंकि उन दिनों पूरी दुनिया में ‘कठिन, पहाड़, जनजातीय तथा दूरगामी क्षेत्रों’ में शिक्षा को पहुंचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रयास हो रहे थे तो इस नवाचार की ओर सभी का ध्यान गया। भारत में भी अनेक राज्यों ने इसका अध्ययन किया और अपने यहां इसे लागू करना प्रारंभ किया।
इधर कई राज्यों ने शिक्षा कर्मी शब्द अपना लिया है, मगर उन्होंने मानदेय में कटौती कर दी है। जिसने भी सहज ढंग से इसका अध्ययन किया उसने पाया कि जब तक बेहतर व्यवस्था न हो सके तब तक इससे ही काम चलाया जाए। यह प्रयोग उन स्थानों के लिए नहीं था जहां प्रशिक्षित अध्यापक उपलब्ध थे। स्कूल उनकी नियुक्ति के बाद सुचारू रूप से चल रहे थे या चल सकते थे, मगर नौकरशाही ने इसे एक बड़ा अवसर समझा। उन्होंने थोड़े से मानदेय पर नियुक्ति से सरकारी खर्च को बचाने के एवज में इसका श्रेय लेना शुरू कर दिया।
स्वतंत्र भारत में सरकारी अधिकारियों ने अध्यापकों को ‘अपवाद छोड़कर’ कभी अंतर्मन से सम्मान नहीं दिया। उन्होंने सदैव यही माना कि बच्चों को पढ़ाना कोई महत्वपूर्ण, कुशलता वाला या ज्ञान-आधारित कार्य नहीं है। इसे कोई भी कर सकता है। जिस देश में बेरोजगारी लगातार बढ़ती ही जा रही हो वहां सरकार को थोड़े से थोड़े मानदेय पर भी लोग तो मिल ही जाएंगे, फिर नियमित अध्यापक नियुक्त करने की क्या ही आवश्यकता है? जो नवाचार विशेष परिस्थितियों के लिए अल्पकालीन प्रावधान के रूप में संकल्पित और प्रमाणित किया गया था, उसे भारत के लगभग हर राज्य में लागू कर दिया गया। कुछ राज्यों ने तो नियमित अध्यापकों के सेवानिवृत्त होने पर भी केवल थोड़े से मानदेय पर शिक्षक नियुक्त करने शुरू कर दिए। अध्यापकों को गैर सरकारी कामों में लगाने में राज्य सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों तक की लगातार अनदेखी की। यह आज भी जारी है। स्कूलों की कार्यसंस्कृति पर इसका प्रभाव पड़ा है। अध्यापकों की अन्यमनस्कता भी अपने कार्य के प्रति बढ़ती गई। जहां नियमित नियुक्तियों के प्रयास हुए भी, वे परीक्षा के दौरान की अनियमितताओं के शिकार होते रहे। इससे उनका भविष्य अधर में लटके रहना एक परिपाटी सी बन गई।
आज स्थिति यह है कि सरकारी स्कूलों में अध्यापकों के लगभग दस लाख पद रिक्त हैं। यह संख्या इससे भी अधिक होगी, क्योंकि राज्य सरकारें पैरा-टीचर्स, जिनकी संख्या भी कई लाख है, भरे हुए पदों में शामिल कर लेती हैं। देश में एक लाख से अधिक ऐसे स्कूल हैं जो महज एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। केंद्र सरकार यहां एक अतिरिक्त शिक्षक की नियुक्ति के लिए तीन दशकों से राज्यों को अनुदान दे रही है। 2016 में संसद को सूचित किया गया कि झारखंड, बिहार और उत्तर प्रदेश में कक्षा आठ तक के स्कूलों में अध्यापकों के क्रमश: 38.39 प्रतिशत, 34.37 प्रतिशत और 22.99 प्रतिशत पद रिक्त हैं। इसका परिणाम अब सामने आ रहा है।
पुराने और प्रतिष्ठित सरकारी स्कूल भी अब अपनी आभा और स्वीकार्यता खो चुके हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि सरकारों ने शिक्षा की बढती मांग से चिंतित होकर अपने हाथ खींच लिए और निजी निवेश को सुविधाएं और प्रोत्साहन देना शुरू किया। समाज में जिन लोगों के पास संसाधन बढ़ते गए उन्होंने भी धीरे- धीरे अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजना शुरू कर दिया। इस समय सरकारी स्कूलों में समाज के उन वर्गों के बच्चे ही जा रहे हैं जिन्हें शिक्षा की सबसे अधिक जरूरत है। उनकी प्रगति के लिए शिक्षा ही एकमात्र रास्ता है। यदि उनके लिए ही स्कूल की सुविधा छिन जाती है तो इससे निश्चित ही उनका विकास प्रभावित होगा। एक अनुमान के अनुसार देश में करीब छह करोड़ बच्चे स्कूलों में नामांकित नहीं हैं और बीस करोड़ कक्षा पांच से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं। यानी करीब 26 करोड़ अशिक्षित युवाओं को देश अंधकारमय भविष्य के लिए ‘अकेला’ छोड़ रहा है? स्कूलों के विलय से क्या इस संख्या के और बढ़ने की आशंका नहीं? और यदि है तो उसका समाधान क्या है? कोई भी इन सरकारी वायदों पर विश्वास नहीं करेगा कि स्कूल विलय के बाद बच्चों के आने-जाने की समस्या का समाधान वाहन भत्ता देकर किया जा सकता है!
उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों, कोरापुट, झाबुआ, बस्तर में कहां वाहन मिलेगा और कब और कितना भत्ता हासिल होगा? क्या किसी भी सरकार ने कहीं भी और कभी भी बच्चों को सरकारी स्कूलों में लाने के लिए नि:शुल्क वाहन-व्यवस्था प्रबंधन सफलतापूर्वक किया है? क्या यह कर पाना संभव है? यदि नहीं, तो क्या एक छोटी उम्र के बच्चे से उसके स्कूल को दूर कर देना उचित होगा? लगभग दो दशक पहले डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने एक संकल्पना देश के सामने रखी थी। इसे ‘गांवों में शहर सरीखी सुविधाएं पहुंचाने’ के लक्ष्य के तौर पर जाना गया। इसमें अच्छी सड़कों से लेकर बिजली और स्कूल आदि सुविधाएं गांवों की देहरी तक पहुंचाने की संकल्पना थी। यदि इसे देश के कुछ हिस्सों में भी लागू कर दिया गया होता तो शायद लोग आज स्कूल विलय पर भी भरोसा कर लेते।
[जगमोहन सिंह राजपूत]
(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं।)
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