MAN KI BAAT : अवकाश, अध्यापक और अध्ययन पर जब चर्चा होती है तो यह बात भी उभर कर आता है कि हमारे देश में शिक्षा एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें अध्यापक सबसे निरीह प्राणी है, उसी पर प्रशासन, शासन, समाज, यहां तक कि शैक्षिक संस्थाएं हर प्रकार की जोर आजमाइश.....
अवकाश का मतलब अपने काम से छुट्टी नहीं, बल्कि अवकाश में किसी नए काम की खोज करना है, जो अध्यापक को अधिक प्रभावशाली बना सके। वह उसके आगामी सत्र या अवकाश के बाद सोचे गए काम की तैयारी भी है।
दुनिया भर में जहां भी श्रेष्ठतम शिक्षा दी जाती है, वहां शैक्षिक अवकाश एक प्रकार की अनिवार्यता है। वहां शिक्षकों और छात्रों के अवकाश के कारण न तो गुणवत्ता प्रभावित हुई और न कार्य-संस्कृति नष्ट हुई। मगर हमारे देश में शिक्षा एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें अध्यापक सबसे निरीह प्राणी है। उसी पर प्रशासन, शासन, समाज, यहां तक कि शैक्षिक संस्थाएं हर प्रकार की जोर आजमाइश करती हैं। अध्यापकों के लिए सम्मान और सहानुभूति का जो संस्कार किसी जमाने में था, उससे उसकी समाज में बौद्धिक प्रतिष्ठा थी।
आरोप लगाए जाते हैं कि इस प्रतिष्ठा को खुद अध्यापक ने ही नष्ट किया है। उसका अध्ययन-विमुख होना, उसका अध्यापन के प्रति ईमानदार न होना और गैर-शैक्षिक कार्यों में कभी सरकारी स्तर पर तो कभी निजी कारोबार के कारण व्यस्त रहना, अध्यापकीय प्रतिष्ठा के पतन का प्रमुख आरोप है। क्या यह सच है? पूरा सच है?
अध्यापक चाहे प्राथमिक स्कूल का हो या विश्वविद्यालय का, उसे अवकाश-विहीन करने की शिक्षा-नीतियों और निर्देशों ने उसका मानसिक धरातल क्षुब्ध कर दिया है। आज से चालीस-पचास साल पहले कोई नहीं कहता था कि अवकाशों के कारण कोर्स पूरा नहीं हुआ, पढ़ाई नहीं होती, कार्य-संस्कृति का विघटन हुआ या अध्यापक कामचोर और अध्ययन-अध्यापन से विमुख हुआ। बिना कोचिंग कक्षाओं, महंगे निजी फीस-फैशन वाले स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालयों के भी सरकारी संस्थाओं में अच्छी पढ़ाई होती थी।
जो अंगरेजी और गणित आज समस्या वाले विषय हैं वे उस जमाने में कभी ऐसा नहीं थे। उस जमाने के हाईस्कूल पास आज भी अंगरेजी और गणित के अच्छे शिक्षक हैं, अच्छे कर्मचारी और अच्छे अधिकारी माने जाते हैं। फिर ऐसा क्या हुआ, क्यों हुआ कि दो सौ दस दिन का शैक्षिक सत्र बनाने, सेमेस्टर सिस्टम लाने, अध्यापकों को अवकाश-रहित करने, बार-बार प्रशिक्षण, रिफ्रेशर का उन्मुखीकरण कोर्स देने के बावजूद आज न तो वैसा स्तर है, न वैसा समर्पण और न वैसी कार्य-संस्कृति है?
अध्यापक को अवकाश-विहीन करने के पीछे इरादा यह है कि उसे सदा व्यस्त रखो और ऐसे काम देते रहो, जिससे उसका मनोबल और आत्मविश्वास ही समाप्त हो जाए। वह केवल एक आज्ञाकारी सेवक बन जाए।
कभी विधानसभा, लोकसभा से लेकर पंचायत, नगर निगम आदि के प्रश्नों के जवाब एकत्रित करने वाला चलित मजदूर बन जाए, तो कभी जिला, संभाग और राज्य के शिक्षा विभाग या कलेक्टरेट का कर्मचारी बन कर वहां बाबूगिरी करता रहे। अध्यापक की स्वतंत्रता छीन कर आप शिक्षा से स्वतंत्रता का संस्कार कैसे दे सकते हैं! अध्यापक को आत्म-विश्वासहीन करके आप भावी पीढ़ी में विश्वास कैसे पैदा कर सकते हैं? ऐसे कई प्रश्न हैं।
आखिर अवकाश है क्या? अवकाश अध्यापक की आरामगाह नहीं है। यह उसके चिंतर, मनन, विचार और अध्ययन का एकांत है। उसकी शिक्षा के प्रति कुछ नया खोजने या सोचने की जगह है, साथ ही उन जिम्मेदारियों की जगह है, जो उसे परिवार और समाज में रह कर अवकाशकाल में ही निभानी होती है। उसका अवकाश छीन कर हम उसे कार्य-दिवसों के प्रति बेईमान बना देते हैं। वह अपनी घरेलू या सामाजिक जिम्मेदारियों के लिए जब कार्य-दिवसों का इस्तेमाल करता है तो पढ़ाई प्रभावित होती है, वह बार-बार छुट््टी लेकर या नाजायज तरीकों से गायब होकर अपना अवकाश खुद पैदा करने लगता है। ऐसे अवैध अवकाशों के कारण वह कामचोर, बेईमान और कर्तव्य भ्रष्ट कहलाने लगता है। ऐसा क्यों? क्या नीतिकार और शासक-प्रशासक विचार करेंगे?
वास्तव में अवकाश एक प्रकार से सत्र भर की थकान से थोड़ी राहत का समय और स्पेस दोनों है। क्या अवकाशकाल में उसे तरह-तरह के सर्वे पकड़ा कर, सेमेस्टरों की परीक्षाएं करवा कर, सेमिनार या रिफ्रेशर करवा कर हम सचमुच उसका विषय-उन्नयन या बौद्धिक उत्थान कर पाते हैं? क्या हर समय परीक्षा लेते रहने, कॉपियां जांचते रहने या छोटे-छोटे सेमिनार-वर्कशॉप में जाने का एक विकल्प यह नहीं हो सकता कि हम उसे अवकाश काल में घर या बाहर रह कर संस्था से अलग हट कर कुछ सोचने का मौका दें? उसे नए शैक्षिक प्रयोगों, नवाचारों, अनुभवों और उपलब्धियों की पुस्तकें देकर उन पर अपनी समीक्षा देने का काम क्यों नहीं किया जा सकता?
अवकाशकाल में कुछ नया सोचने या करने के लिए उसकी इच्छा जानने का कोई प्रपत्र क्यों नहीं भरवाया जाता? छात्राओं-छात्रों से हर सत्र या सेमेस्टर के बाद यह क्यों नहीं पूछा जाता कि वे आगामी सत्र या सेमेस्टर कैसा चाहते हैं? सेमेस्टर प्रणाली क्या वार्षिक परीक्षा प्रणाली का बेहतर विकल्प है? क्या मासिक या पाक्षिक टेस्ट लेकर परीक्षा का सतत आतंक रचना उचित है? क्या अवकाश में विश्वविद्यालय, कॉलेज और स्कूलों को एक साथ बैठा कर विषय के उन्नयन या नए ज्ञान के उन्मुखीकरण की एक वार्षिक योजना तैयार नहीं की जा सकती?
क्या समाज और सरकार के साथ मिल कर अध्यापक अपनी शैक्षिक शक्ति का उपयोग करके अपनी संस्था को संसाधन संपन्न बनाने, श्रेष्ठ बनाने का कार्य-पत्र नहीं बना सकते? विषय विशेषज्ञ अध्यापकों के समक्ष आने वाली जटिलताओं को कैसे सरल किया जाए, क्या इस विषय में उनका प्रबोधन नहीं कर सकते?
अवकाश का मतलब अपने काम से छुट््टी नहीं, बल्कि अवकाश में किसी नए काम की खोज करना है, जो अध्यापक को अधिक प्रभावशाली बना सके। वह उसके आगामी सत्र या अवकाश के बाद सोचे गए काम की तैयारी भी है। जब शिक्षक के अवकाश पर प्रशासन का आक्रमण होता है, तो ऐसा लगता है जैसे एक प्रशासक अपने दफ्तर के काम की तुलना शिक्षक के काम से कर रहा है। अपने अवकाशों से शिक्षक के अवकाश की तुलना कर शिक्षक के अवकाश से ईर्ष्या कर रहा है या अपनी कम छुट्टियों का ज्यादा छुट्टियों से प्रतिशोध ले रहा है।
अवकाश से शिक्षक कोई सत्र भर की थकान उतार कर आराम करना नहीं चाहता, बल्कि वह अपने अन्य कामों को निपटा कर, कार्य दिवसों को अधिक कार्यशील बनाना चाहता है। शिक्षक के प्रति प्रशासकों का मनोविज्ञान आतंक का मनोविज्ञान है। यहां तक कि हेड मास्टर, प्राचार्य, अध्यापक, उपनिरीक्षक, निरीक्षक से लेकर सर्वोच्च अधिकारी तक किसी भी शिक्षक का कभी भी सार्वजनिक रूप से या दफ्तर में अपमान कर देना अपने कर्तव्य और अनुशासन का हिस्सा मानता है। यह मनोविज्ञान बदलना होगा।
एक शिक्षक या प्राध्यापक अवकाशकाल में दैनिक रूटीन की परंपरागत जड़ता से मुक्त भी होता है। अध्यापकों के लिए अनेक प्रकार की जड़ताएं मुंह बाए खड़ी हैं। प्रवेश, पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक, परीक्षाएं ये सब ऐसे काम हैं, जो आनंद नहीं रचते। आज तक स्कूल से विश्वविद्यालय तक ऐसा पाठ्यक्रम बना ही नहीं कि शिक्षा आनंद बन सके, जिज्ञासा बन सके, आत्मप्रेरित अनुसंधान, प्रयोग या नवाचार बन सके।
निजी स्कूलों में उच्च स्तर के नाम पर केवल ऊंची कमाई का फीस उद्योग है, इवान इलिच ने जब यह कहा था कि डॉक्टर किसकी सेवा करते हैं- क्या जनता या मरीज की? तो उसका उत्तर था नहीं, वे तो दवा उद्योग की सेवा करते हैं। इसी प्रकार स्कूल किसकी सेवा करते हैं? क्या बच्चों की, अध्यापकों की, आम जनता की? नहीं? वे भी स्कूल मालिकों की सेवा करते हैं और निजी तंत्र का एक शोषणतंत्र पैदा करते हैं।
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