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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

MAN KI BAAT : खतरनाक है शिक्षा नीति में अस्पष्टता, शिक्षा नीति को लेकर आज भी गहमागहमी है, पर अज्ञात कारणों से नवीनतम शिक्षा नीति अभी भी पांच साल बीतने पर भी चिंतन के.......

MAN KI BAAT : खतरनाक है शिक्षा नीति में अस्पष्टता, शिक्षा नीति को लेकर आज भी गहमागहमी है, पर अज्ञात कारणों से नवीनतम शिक्षा नीति अभी भी पांच साल बीतने पर भी चिंतन के.......

महात्मा गांधी के अनुसार शिक्षा मनुष्य में अंतर्निहित स्वाभाविक गुणों और क्षमताओं की अभिव्यक्ति का माध्यम है। वह नैसर्गिक क्षमताओं के प्रस्फुटन के लिए अवसर प्रदान करती है। यह विद्यार्थी को उसके अपने सामाजिक और भौतिक परिवेश में स्थापित करती है। वह एकांगी न होकर शिक्षार्थी के मन, बुद्धि और शरीर सबको उनकी जरूरत के मुताबिक आवश्यक खुराक देती है।


गांधी जी ने शरीर श्रम की महत्ता को पहचान कर उस पर विशेष बल दिया था। उनकी ‘नई तालीम’ सिर्फ औपनिवेशिक पद्धति का विकल्प नहीं थी, अपितु ‘स्वराज’, ‘स्वदेशी’ और ‘स्वावलंबन’ जैसे विचारों को मूर्त आकार देने वाली भी थी। खालिस भारतीय दृष्टि वाली यह पद्धति सत्य और अ¨हसा के आधारभूत विचारों पर निर्भर थी। इसमें शांति और सहअस्तित्व के बीच विकास की कल्पना की गई थी। समग्र शिक्षा की यह संकल्पना आदर्श से ज्यादा व्यावहारिक थी। इसमें कौशल विकास और सामथ्र्य के विकास जैसी अनेक कठिनाइयों के समाधान भी हैं।


गांधी जी की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए भारत में शिक्षा के क्षेत्र में कई प्रयोग भी शुरू हुए जिनमें से कुछ अभी भी चल रहे हैं। वर्धा के सेवा ग्राम में संचालित आनंद निकेतन नामक विद्यालय हृदय, हाथ और मस्तिष्क के बीच सघन तालमेल बैठाते हुए आगे बढ़ता है। विशेष रूप से इसमें शिल्प के लिए आग्रह स्वावलंबन के लिए तैयार करता है। मातृ भाषा का उपयोग करते हुए समानता और सहअस्तित्व का पाठ विद्यालय के परिवेश में नि:शब्द रूप से बिना किसी शोर के घुला-मिला है। पीपल और बरगद के तले मिट्टी और खपरैल से बने विद्यालय के भौतिक परिवेश में मन, वचन और कर्म का साथ देखा जा सकता है। अध्ययन विषयों में लोककला, संगीत की भी खास जगह है। खेत हो, खेल का मैदान हो या फिर पाक शाला शिक्षक और शिक्षार्थी मिल कर काम करते हैं। 


आज के चकाचौंध वाले विद्यालयों को देखते हुए धूप, हवा, मिट्टी से जुड़े इस विद्यालय को कोई भी सहज ही पिछड़ा कह सकता है। विद्यालय में पहुंचने पर शिक्षक और शिक्षार्थी घर की ही तरह विद्यालय की सफाई करते हैं। प्रयोग में आने वाली चीजों की रिसाइक्लिंग भी की जाती है और कुछ नया सामने आता है। विद्यालय के प्रत्येक छात्र कृषि, सिलाई और रसोई के कामों में एक सा हाथ बंटाते हैं। विद्यालय के जीवंत परिवेश में जीवन जीते हुए शिक्षा का स्पंदन होता है।


यह भी काबिले गौर है कि गांधीवादी शिक्षा को मुख्यधारा ने नकार सा दिया। गांधी जी ने चंपारण में 1917 में विद्यालय शुरू किए थे। पर उनमें से अधिकांश अब खस्ताहाल हैं और उनका गांधी जी के विचारों और अभ्यासों से कोई विशेष सरोकार नहीं है। यह समझ में भी आता है, क्योंकि भारत में सरकार द्वारा अपनाई गई शिक्षानीति की सामान्य रूपरेखा का दार्शनिक आधार कुछ और है और व्यवहार में स्थिति कुछ और ही दिखाई पड़ रही है। 


शिक्षा नीति को लेकर आज भी गहमागहमी है, पर अज्ञात कारणों से नवीनतम शिक्षा नीति अभी भी पांच साल बीतने पर भी चिंतन के गर्भ में ही है। मानव संसाधन मंत्री ने जरूर छात्रों के बस्ते का भार कम करने का एलान कर कुछ राहत दी है। शिक्षा को लेकर अस्पष्टता और उदासीनता आज ऐसी पीढ़ी तैयार कर रही है जिसे देश, समाज और संस्कृति के साथ बड़ा दुर्बल संबंध है। बाजार के प्रभाव में उपभोग और अधिकाधिक धनार्जन करना ही आज के युवा की शिक्षा का मकसद होता जा रहा है। अमीरजादों को छोड़ दें तो साधारण आदमी शिक्षा की दृष्टि से बेहाल हो रहा है।


वस्तुत: आज भारतीय शिक्षा की वास्तविकता कुछ और ही दृश्य दिखा रही है। वह निरंतर परमुखापेक्षी होती जा रही है। वह स्वायत्तता और स्वाधीनता की स्थिति को छोड़ पराधीन होती जा रही है। स्वतंत्रता के बाद भारतीय शिक्षा का इतिहास स्वायत्तता के खंडन का इतिहास है। स्वायत्तता पर हमले बढ़ते चले जा रहे है। जितने भी विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय हैं उनमें विशिष्ट विषय और शोध कार्य पर बल दिया जाता है। उनके अध्ययन-अध्यापन में निजी वैशिष्टय की छाप मिलेगी। वहां इस पर बल दिया जाता है कि विशिष्ट प्रकार की मेधा या क्षमता का विकास कैसे करें। अपने यहां हम भटक रहे हैं। हमारी पूरी शिक्षा पद्धति और हमारी संस्थाएं दुर्बल होती चली जा रही हैं।


इसी तरह शैक्षिक मूल्यांकन और उसकी साख की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। छात्र संख्या बढ़ी है और उनके मूल्यांकन को सुविधाजनक बनाने के लिए सारी परीक्षाएं वस्तुनिष्ठ होती जा रही हैं। इसमें सोचने-समझने की क्षमता, सृजनात्मकता, मौलिकता आदि गुणों के मूल्यांकन का अवसर लगभग समाप्त होता जा रहा है। जैसे राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) में सभी ऑब्जेक्टिव प्रश्न हो चुके हैं। यह परीक्षा भावी अध्यापक देते हैं। अब अध्यापक को लिखना भी आता है कि भी नहीं, उसकी अभिरुचि क्या है इत्यादि जानने का कोई सवाल नहीं है। लगभग ऐसी ही स्थिति अन्य परीक्षाओं की भी है। गुणवत्तापूर्वक शिक्षा के कितने केंद्र हैं और लचर डिग्री देने वाले संस्थान कितनी भयानक गति से बढ़ रहे हैं यह किसी से छिपा नहीं है। सुविधा, संख्या और साख इन तीनों के बीच संतुलन कैसे बनाए जाएं यह जटिल चुनौती हो रही है। आज न पर्याप्त विद्यालय खड़े हैं, न अपेक्षित मात्र में अध्यापक हैं, न विषय के लिए हम सामग्री तैयार कर पा रहे हैं। आज थोड़े से अच्छे विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय के विभाग बचे हैं, परंतु अधिकांश अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। 


अस्पष्ट नीतियां और लचर कार्यान्वयन संस्थाओं की बलि ले रहा है। सरकारी आदेश के तहत लगभग साल भर से नियुक्तियों पर रोक लगी है। अध्यापकों की कमी का दूरगामी असर पड़ रहा है। यदि शीघ्र हस्तक्षेप नहीं हुआ तो सरकारी विश्वविद्यालय बंद होने के कगार पर पहुंच जाएंगे और निजी संस्थान जो धन उगाही के यंत्र सरीखे हैं आगे बढ़ेंगे, यद्यपि उन पर गुणवत्ता का कमजोर नियंत्रण होता है। आज भारतीय समाज बदल रहा है। उसकी जरूरतें बदल रही हैं और महत्वाकांक्षाएं नए आयामों को छू रही हैं। इसे ध्यान में रखकर शिक्षा की समाज के साथ लय स्थापित करने पर विचार करने की जरूरत है। इस संतुलन को स्थापित करने के लिए बापू की समग्र शिक्षा की दृष्टि को सामने रखना होगा। ऐसे शिक्षा केंद्र निर्मित करने होंगे जहां शिक्षा को मानवीय मूल्यों से आलोकित किया सके। साथ ही इस प्रश्न पर भी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि हम किस तरह शिक्षा के विविध अवसर पैदा करें तथा कुशलताओं का विकास करें। क्योंकि एक ही तरह की शिक्षा विभिन्न प्रकार की क्षमताओं के अनुसार उपयुक्त नहीं हो सकती। गांधी जी की शिक्षा दृष्टि आज के समय में विकल्प प्रस्तुत करती है।


(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि के कुलपति हैं)


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