MAN KI BAAT : शिक्षकों की नियुक्ति का उचित आधार, मौजूदा हालात में शिक्षकों की नियुक्ति में 200 पॉइंट रोस्टर लागू रहना समय की मांग
पिछले कुछ समय से शिक्षकों की नियुक्तियों में 13 प्वाइंट रोस्टर बनाम 200 प्वाइंट रोस्टर सिस्टम का विवाद चल रहा है। शिक्षकों की नियुक्तियों में रोस्टर सिस्टम एक ऐसा तकनीकी मसला है जो आरक्षण के मुद्दे से भी जुड़ा हुआ है और इसीलिए इसने राजनीतिक रूप भी अख्तियार कर लिया है। कानूनी विवाद में घिर जाने के बाद इसकी आंच ने सरकार को भी लपेटे में लेना शुरू कर दिया। शिक्षकों और यहां तक कि सरकारी नियुक्ति में अनारक्षित और आरक्षित पदों के विभिन्न श्रेणियों में पदों का बंटवारा या आवंटन एक विशेष पद्धति से होता है जिसे रोस्टर सिस्टम कहते हैं। केंद्र सरकार की नियुक्तियों में आरक्षित पदों की विभिन्न श्रेणियों-ओबीसी के 27 प्रतिशत, एससी के 15 प्रतिशत, एसटी के 7.5 प्रतिशत और सामान्य वर्ग के शेष 50.5 प्रतिशत पदों के आवंटन की विशेष जटिल पद्धति रोस्टर है। लंबे समय से किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय को एक इकाई मानकर ये नियुक्तियां 200 प्वाइंट रोस्टर सिस्टम के तहत हो रही थीं, जिसमें पहली, दूसरी, तीसरी, पांचवीं, छठी, नौवीं, दसवीं, 11वीं और 13वीं पोस्ट अनारक्षित वर्ग के लिए थी। चौथी, आठवीं और 12वीं ओबीसी के लिए। सातवीं पोस्ट एससी कैटेगरी और 14वीं पोस्ट एसटी के लिए। फिर इसी क्रम में आगे के पद भरे जाते थे। इस प्रक्रिया में यह सुनिश्चित किया गया था कि प्रत्येक 200 पदों में से 30 पद एससी वर्ग के लिए ,15 एसटी और 54 ओबीसी के लिए होते थे। कुल मिलाकर 99 अर्थात 49.5 प्रतिशत पद आरक्षित समुदायों के लिए और 101 पद अनारक्षित। इस प्रणाली में एक विभाग/ विषय में आरक्षित सीटों में कमी की भरपाई अन्य विभागों में आरक्षण की अधिक संख्या द्वारा की जा सकती है। 1जब 200 प्वाइंट रोस्टर को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी गई तो 2017 में उसने फैसला देते हुए यूजीसी गाइडलाइन की उपबंध संख्या 6(सी) और 8(ए)(5) को निरस्त कर दिया, जिसके तहत 200 प्वाइंट रोस्टर और कॉलेज या विश्वविद्यालय को एक इकाई के रूप में लिया जाता था। हाईकोर्ट ने उसकी जगह 13 प्वाइंट रोस्टर सिस्टम लागू करने को कहा जिसमें विभाग या विषय को एक इकाई के रूप में लिया जाएगा। हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा पहले के विभिन्न निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि नियुक्तियां विभागीय स्तर पर होती हैं। किसी एक विभाग/ विषय का असिस्टेंट प्रोफेसर किसी दूसरे, तीसरे या चौथे विभाग/ विषय में असोसिएट प्रोफेसर या प्रोफेसर की नियुक्ति के लिए आवेदक नहीं हो सकता। वह केवल अपने विषय में पद के लिए आवेदन कर सकता है। दूसरे विभाग का प्रमुख बनने के लिए वरिष्ठता उसी विषय के शिक्षकों की होती है। फिर कॉलेज या विश्वविद्यालय के स्तर पर विभिन्न विषयों के अभ्यर्थियों/शिक्षकों के मध्य आरंभ से लेकर उच्च स्तर के सभी पदों पर चयन में कोई प्रतियोगिता नहीं होती है। उनकी प्रतिस्पर्धा उनके अपने विषय/विभाग के उम्मीदवारों के साथ होती है अर्थात पूरे कॉलेज/विश्वविद्यालय के स्तर पर नहीं होती। तीसरे, हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि यदि विश्वविद्यालय को एक इकाई मानकर रोस्टर लागू किया जाए तो इसका परिणाम यह हो सकता है कि कुछ विभागों/विषयों में सभी आरक्षित पद आ जाएं और कुछ में सिर्फ अनारक्षित। 1अनेक बार ऐसा देखा गया है कि कुछ विभागों में आरक्षित सीट पर उम्मीदवार ही नहीं मिलते। विभाग/विषय को इकाई मानते हुए 13 प्वाइंट रोस्टर लागू करने के कोर्ट के इस फैसले के बाद सड़क से लेकर सोशल मीडिया और संसद तक विवाद उठा। आरक्षण समर्थकों द्वारा धरना, प्रदर्शन और अन्य तरीकों से इसका विरोध किया जा रहा है। उनके अनुसार इस फैसले से आरक्षित पद बहुत कम हो जाएंगे। अपने मत के समर्थन में वे तर्क देते हैं कि अगर किसी विभाग में 14 से कम पद होंगे तो एसटी आरक्षण से वंचित रह जाएंगे। अगर सात से कम होंगे तो एससी को और चार से कम होंगे तो ओबीसी को कोई आरक्षण नहीं मिलेगा। यहां बताना जरूरी है कि कॉलेज /विश्वविद्यालय में अनेक विभाग होते हैं जहां चार-पांच पद ही होते हैं। इस तरह 13 प्वाइंट रोस्टर को लेकर आरक्षण समर्थकों की आशंका जायज दिखती है। 1चूंकि आगामी आम चुनाव के मद्देनजर हर राजनीतिक दल आरक्षित वगोर्ं के साथ दिखना और चुनावी फायदा उठाना चाहता है इसलिए इस पूरे मुद्दे का राजनीतिकरण भी किया जा रहा है। राजनीतिक दलों के अलावा वैचारिक प्रतिबद्धता के दबाव में अनेक शिक्षक समूहों ने भी इसके लिए मोदी सरकार को दोषी ठहराना शुरू कर दिया है। हालांकि वे इससे परिचित हैं कि फैसला अदालत का है, सरकार का नहीं। यहां यह देखना जरूरी है कि इस प्रकरण में सरकार की क्या भूमिका रही? मानव संसाधन मंत्रलय ने अप्रैल 2018 में ही इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) दायर की थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने 22 जनवरी, 2019 को खारिज कर दिया। हालांकि केंद्र सरकार के लिए अपील करते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत नियुक्तियों में अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण करने का विशेष प्रावधान सरकार कर सकती है, अगर इन समुदायों के लोगों को सेवाओं में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं मिला हो। सरकार ने यह भी तर्क दिया कि यदि विश्वविद्यालय/कॉलेज के बजाय प्रत्येक विभाग/विषय को एक इकाई के रूप में लेते हुए आरक्षण नीति लागू की जाती है तो कई विभागों में पदों की संख्या का कम होने की वजह से आरक्षण लागू ही नहीं हो पाएगा। 1एसएलपी खारिज हो जाने के बाद सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने एक पुनर्विचार याचिका भी दायर की, लेकिन उसे खारिज कर दिया गया। अब सरकार के पास दो ही विकल्प हैं- एक, वह सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सामने एक क्यूरेटिव याचिका दायर करे। दूसरा, सरकार अध्यादेश लाए। सैद्धांतिक तौर पर मेरा मानना है कि शिक्षा खास तौर से उच्चतर शिक्षा में आरक्षण नहीं होना चाहिए जैसा कि अमेरिका, यूरोप और अन्य विकसित देशों में होता है। इसमें सर्वश्रेष्ठ लोगों का ही चयन होना चाहिए, क्योंकि यह सामान्य रोजगार न होकर एक तरह से सभी रोजगारों की जननी है, लेकिन यह भी सच है कि आरक्षित वगोर्ं के श्रेष्ठ उम्मीदवारों के साथ कई बार भेदभाव भी होता है। इसीलिए आरक्षण एक विकल्प है और 200 प्वाइंट रोस्टर इसका एक कारगर तरीका।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)
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