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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

MAN KI BAAT : जो सिर्फ फेल नहीं होते, पटरी से भी उतर जाते हैं  क्योंकि नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा अधिनियम 2009 (आरटीई) के तहत ‘नो डिटेंशन पॉलिसी’ यानी फेल न करने की नीति के वजूद में आने तक असफलता और उसी कक्षा में रोके रखना छात्रों के जीवन का एक अभिन्न......

MAN KI BAAT : जो सिर्फ फेल नहीं होते, पटरी से भी उतर जाते हैं  क्योंकि नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा अधिनियम 2009 (आरटीई) के तहत ‘नो डिटेंशन पॉलिसी’ यानी फेल न करने की नीति के वजूद में आने तक असफलता और उसी कक्षा में रोके रखना छात्रों के जीवन का एक अभिन्न......

वह 12 साल का था और क्लास में सबसे पीछे एक कोने में बैठता था। गणित के शिक्षक उसे रोज चांटे जड़ते थे। गणित की क्लास से पहले हमें खौफ जकड़ लेता, जैसे उसने अपने अपमान और दर्द को अपनी नियति मान लिया है। उसके जरिए विफलता के गंध से अपने शुरुआती स्कूल में ही मैं परिचित हो गया। वह परीक्षा में फेल हो गया था, और उसे उसी कक्षा में रोक दिया गया। छुट्टियों के बाद वह फिर स्कूल नहीं लौटा। किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं कि उसका क्या हुआ? यह लगभग 40 साल पहले की बात है।

नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा अधिनियम 2009 (आरटीई) के तहत ‘नो डिटेंशन पॉलिसी’ यानी फेल न करने की नीति के वजूद में आने तक असफलता और उसी कक्षा में रोके रखना छात्रों के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा था। अपने 12 साल के स्कूली जीवन में मैंने पांच स्कूलों में पढ़ाई की और उस दौरान मैंने कई ऐसे छात्रों को देखा, जो फेल हो गए और उन्हें उसी कक्षा में रोक दिया गया। ऐसे सहपाठियों में काफी कुछ एक जैसा था। वे सभी कमजोर सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के थे। मुझे एक भी ऐसा चेहरा याद नहीं है, जो सामाजिक रूप से सुविधा संपन्न या उच्च मध्यवर्गीय घर का हो और फेल होने के कारण उसी कक्षा में रोक दिया गया हो। कक्षा में रोके जाने के कदम से उनमें से किसी को कुछ अधिक सीखने में मदद नहीं मिली, बल्कि इसका उल्टा ही असर हुआ। कई तो फिर फेल हुए और उन्हें फिर उसी क्लास में रोक दिया गया। कई ने पढ़ाई ही छोड़ दी, और फिर ज्यादातर हमारी जिंदगी से बाहर हो गए।

उनमें और हममें काफी कुछ एक सा था। वे हमारी ही तरह अच्छे थे और वे उतने ही नटखट भी। वे न जाहिल थे और न जहीन। उनमें से दो लड़के तो जबर्दस्त विनोदी थे, सबके साथ चुहल करते रहते। मगर ये सामान्य जिंदगियां जैसे ही क्लास में घुसतीं, परीक्षा की नाकामी उन पर तारी हो जाती। क्या ये स्मृतियां हमारे बालमन की अपरिपक्वता से प्रेरित हैं? शिक्षा संबंधी रिसर्च पूरी दुनिया में काफी हो रही है और इनमें से ज्यादातर इस मुद्दे पर हो रही हैं कि आखिर वह ‘क्या’ चीज है, जो बच्चों के सीखने में सहायक या बाधक है? ऐसे हर ‘क्या’ के अध्ययन की गहरी पड़ताल विभिन्न जर्नलों में होती है। सुखद है कि कई अन्य क्षेत्रों की तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी ‘मेटा-अध्ययन’ उपलब्ध हैं, जिनमें किसी खास विषय पर काफी सारे शोधों का विश्लेषणात्मक अध्ययन हुआ है और उनके नतीजों के आधार पर सुव्यवस्थित निष्कर्ष निकाला गया है। 

ऑकलैंड यूनिवर्सिटी में शिक्षा विभाग के प्रोफेसर जॉन हैट्टी ने तो ऐसा काम किया है, जिसे सिर्फ मेटा-मेटा अध्ययन कहा जा सकता है। यह 800 से ज्यादा मेटा विश्लेषणों का संकलन है, जो 52,600 से अधिक रिसर्च अध्ययनों को समेटता है। इस तरह के सभी शोध बच्चों और उनके सीखने की क्षमता पर असर डालने वाले तमाम पहलुओं से जुड़े हैं। अपनी किताब विजिबल लर्निंग  में हैट्टी लिखते हैं, ‘बच्चों को फेल करने का उनके मन पर त्वरित आघात पहुंचता है और कक्षा में रोक लिए गए बच्चे भविष्य में अकादमिक रूप से खराब प्रदर्शन करते हैं, इनमें से कई तो हमेशा के लिए पढ़ाई छोड़ देते हैं। इतना ज्यादा घातक असर वाला कोई दूसरा शैक्षिक व्यवहार नहीं।

इस सुस्पष्ट निष्कर्ष के कुछ विवरणों पर गौर कीजिए। समान सफलता स्तर वाले विद्यार्थियों में जिन्हें उसी कक्षा में रोका जाता है, वे अगली कक्षा में भेजे जाने वाले सहपाठियों से अधिक नहीं सीख पाते। जिन्हें अगली कक्षा में भेजा जाता है, एक समय के बाद वे कहीं ज्यादा पढ़ते और सीखते हैं। जिन बच्चों को खराब प्रदर्शन के लिए किसी कक्षा में रोका जाता है, वे अमूमन पढ़ाई बीच में छोड़ देते हैं। रोके गए बच्चे चार गुना संख्या में पिछड़ी पृष्ठभूमि से होते हैं। कक्षा में रोकने की चेतावनी बच्चों को पढ़ने व सीखने के लिए प्रेरित नहीं करती। और कक्षा में रोके जाने का सामाजिक व मानसिक रूप से घातक असर होता है। इसलिए आरटीई कानून में संशोधन करके बच्चों को फेल न करने की नीति को वापस लेना कतई उचित नहीं है।
  - अनुराग बेहर
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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