MAN KI BAAT : वर्तमान में लगातार बदल रहे सामाजिक परिवेश और बच्चों, अभिभावकों एवं शिक्षक मनोदशाओं को ध्यान में रखते हुए परम्परागत शिक्षण को त्वरित प्रभाव से पूरी तरह बदला जाना आसान नहीं है, पर यदि यथास्थिति को धरातल पर..........
🔴 पाठ्यक्रम को पूरा करने की होड़ में पिछड़ता समझ का स्तर
वर्तमान समय में ‘पढ़ना’ एक ऐसी महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जो आमतौर पर निजी जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन चुकी है। हम अपने दैनिक जीवन के न जाने कितने ही कार्यों को आसानी से केवल और केवल इसलिए कर लेते हैं क्योंकि हम पाठ्य को पढ़कर आशय स्पष्ट कर सकते हैं और उसी के अनुरूप कार्यों को नियोजित भी कर लेते हैं।
चूँकि पढ़ना किसी न किसी उद्धेश्य से जुड़ा होता है इसलिए यह कहना पूरी तरह से गलत नही होगा की हम पढ़कर, आशय को समझना चाहते हैं। समझना पढ़ने की पूरी प्रक्रिया का अन्तिम लक्ष्य है जिसे यदि नजरअंदाज कर दिया जाए तो फिर इस कवायद का कोई विशेष महत्व नही बचता।
यहाँ यह सवाल उठाना लाजमी है कि क्या प्रारम्भिक कक्षाओं से ही इस ओर इतना ही ध्यान दिया जाता है या फिर यह समझा जाता है की धीरे-धीरे एक लम्बे समय के बाद बच्चों में पढ़कर समझने की योग्यता स्वतः ही विकसित हो जाती है?
वास्तविक स्थिति इससे थोड़ी अलग नजर आती है। जैसे-जैसे बच्चा प्रारम्भिक कक्षाओं में ही पढ़ने-लिखने की मूलभूत दक्षताओं में संघर्ष करता है वैसे-वैसे आगामी कक्षाओं में भी बच्चे की विषयों को उनके अपेक्षित स्तर पर समझने में बाधा उत्पन्न होती जाती है। जिससे उसका मनोबल तो टूटता ही है साथ ही कक्षा में भी वह बच्चा कई प्रकार की उपेक्षाओं का शिकार होता जाता है।
प्रश्नोत्तरों को याद करना या विषयवस्तु को समझना
बचपन के अनुभवों और कार्यक्षेत्र में बच्चों एवं शिक्षकों के साथ कार्य करने के दौरान पाया, कि बच्चों के साथ जब किसी पाठ पर कार्य किया जाता था, तो शिक्षक का ध्यान और ऊर्जा अधिकांशतः केवल उसके प्रश्नोत्तर पर ही होती है। ज्यादा से ज्यादा यह होता है कि दो-चार बच्चे जो उस कक्षा में सबसे ज्यादा होशियार होते हैं वे उस पाठ को पढ़ते हैं। बाकी बच्चे अपनी-अपनी किताब में किए जा रहे वाचन को सुनते भी हैं और अपनी किताब में पढ़ने भी लगते हैं। यदि पाठ के बीच में कुछ ऐसे कठिन शब्द आ जाएँ जिनका ज्ञान बच्चों को नहीं है, तो शिक्षक द्वारा उनका अर्थ भर बताकर आगे बढ़ा दिया जाता है। बस उसके बाद शिक्षक बिना किसी चर्चा या तारतम्यता के, बोर्ड पर प्रश्नों और उत्तरों को लिख देते हैं और सभी बच्चे अपनी-अपनी कॉपी में उसे नकल कर लेते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है, कि शिक्षक किसी एक बच्चे की किताब में उत्तरों के लिए निशान लगा देते हैं और बाकी बच्चे एक-दूसरे की किताब से उसके उत्तरों को नकल कर अपनी कॉपी में लिख लेते हैं। कक्षा में पहले सभी प्रश्न-उत्तर रफ में लिखे जाते और उसके बाद में ध्यान से घर पर फेयर कॉपी में लाल और नीली की स्याही से।
अब इस पूरी प्रक्रिया में उन बच्चों पर यदि ध्यान दें जिन्हें पढ़ने-लिखने में कठिनाईयाँ हो रही हो। उनके लिए केवल एक ही विकल्प बचता है, वह है नकल करना और प्रश्नोत्तरों को रट लेना। क्योंकि परीक्षा में तो प्रश्नों के उत्तर ही लिखने को आएँगे।
यदि बच्चों के साथ पठन के दौरान और बाद में चर्चाएँ भी हों जो केवल प्रश्नोत्तरों के सरोकार से ही निहित न हों बल्कि इसलिए भी की जाएँ ताकि बच्चे अपने ज्ञान को आसपास के ज्ञान से जोड़ पाएँ और नवीन जानकारियों को प्राप्त भी कर पाएँ। साथ ही पाठ में निहित शब्दों का अर्थ बच्चों के पूर्व ज्ञान को टटोलते हुए बताया जाए तो आसानी से ये शब्द बच्चों को याद रहेंगे और उन्हें वह समय-समय पर अपने जीवन में विभिन्न सन्दर्भों में प्रयोग भी कर पाएँगे।
पढ़कर समझने की मूल प्रक्रिया
◼पढ़ना एक बहुआयामी कौशल है जो साल दर साल शिक्षा एवं अभ्यास के जरिए धीरे-धीरे अर्जित किया जाता है। इस प्रक्रिया में एक पाठक पढ़ने के दौरान लिखे हुए या छपे हुए पाठ्य से अर्थ गढ़ने की कोशिश करता है।
◼ इस पर यदि विचार करें तो पाएँगे कि जब हम बात करते हैं, पढ़कर समझने की तो यह कार्य दो महत्वपूर्ण हिस्सों पर आधारित होता है।
डिकोडिंग (ध्वनि प्रतीकों को आपस में मिलाकर उच्चारित करना/ शब्दों की सटीकता से पहचान)
मौखिक भाषा की समझ का विकास
शिक्षक के लिए यह महत्वपूर्ण है, कि वह बच्चों को यह सिखाए कि किसी भी पाठ्य से अर्थ गढ़ा कैसे जाता है। बच्चों के साथ पाठ्य को सन्दर्भ में रखकर समझ आधारित गतिविधियों का समावेश अपने शिक्षण में किया जाना होगा। क्योंकि डिकोडिंग मात्र से बच्चे अर्थ को गढ़ पाएँगे यह कहना पूरी तरह से उचित नहीं है। पढ़कर समझने की प्रक्रिया ध्वनि प्रतीकों के उच्चारण से कुछ और अधिक भी है। इस पूरी प्रक्रिया में डिकोडिंग एक शुरुआत मात्र है। पढ़ना एक रचनात्मक प्रक्रिया है जिसमें पाठक पढ़ी जा रही सामग्री में से सक्रिय ढंग से अर्थों का निर्माण करता है। पढ़ने के दौरान पाठ में दी गई जानकारी और पाठक का पूर्व ज्ञान व अनुभव मिलकर अर्थ का निर्माण करते हैं। सम्बन्धित विषय के बारे में, उस पाठ में आए व्यक्तियों, स्थानों और वस्तुओं के बारे में और उस पाठ की संरचना के बारे में पाठक के पास जो ज्ञान है, उससे पाठ का अर्थ निकालने में बहुत मदद मिलती है। एक छोटा बच्चा जिसने कभी शतरंज के बारे में न तो सुना है और न ही देखा है, उसके लिए शतरंज खेल से सम्बन्धित पाठ को समझना मुश्किल होगा। इसी तरह, अगर किसी बच्चे के पास एक संवाद आधारित पाठ की संरचना की समझदारी नहीं है; तो उसे ऐसे पाठ को समझने में मुश्किल महसूस होगी। अर्थ-निर्माण की प्रक्रिया पाठ की एक सरल ‘समझ’ तक ही सीमित नहीं होती। वास्तव में पाठक के पास ऐसी क्षमता होनी चाहिए, कि वह पाठ के साथ सक्रिय रूप से खुद को जोड़ सके और निष्कर्ष निकालने, पाठ के बारे में मूल्यांकन करने और उसके बारे में एक राय बनाने के लिए वह पाठ की सीमाओं के परे जाने में भी सक्षम हो।
एक पाठक की दृष्टि से यदि पढ़कर समझने की प्रक्रिया को सिरे से समझें तो मुख्यतः निम्न कार्यों को इस पूरी प्रक्रिया में पाठक के द्वारा करने की कोशिश की जाती है -
◼ पाठ्य के साथ सम्बन्ध बनाते हुए अपनी पूर्व अवधारणाओं या ज्ञान को नवीन जानकारियों या नवीन ज्ञान के साथ जोड़ने की कवायद करना।
◼ पाठ्य के प्रति कुछ पूर्व अनुमानों को संजोना तथा पढ़ते समय उनको ध्यान में रखना।
◼ पढ़ने के बाद कुछ निष्कर्ष तक पहुँचना और जिस उद्धेश्य के लिए पढ़ा जा रहा है उससे जोड़ने की कवायद करना।
◼ पाठ्य में यह निर्णय लेना की इसमें कौन-सी जानकारी मेरे लिए आवश्यक है और कौन-सी नहीं।
◼ नवीन जानकारियों को गढ़ना या कहें कि अपने ज्ञान को और अधिक समृद्ध करना।
डिकोडिंग की प्रक्रिया में इन बातों का ध्यान रखें
वर्ण और मात्राओें का व्यक्तिगत ज्ञान होने मात्र से बच्चे शब्दों या वाक्याशों को आसानी से पढ़ पाएँगे, यह सोचना बहुत हद तक व्यवहारिक नहीं लगता है। एक शिक्षक को इस धारणा से थोड़ा हटकर सोचने की आवश्यकता है।
क्योंकि शब्दों को पढ़ने हेतु बच्चों को वर्णों को आपस में मिलान करने का अभ्यास भी करना होगा जिसे ब्लेडिंग (Blending) कहा जाता है। जिससे वह शब्दों को शब्दों की तरह पढ़ पाएँ। यदि इस तरह का अभ्यास बच्चों को नही दिया गया तो बच्चे शब्दों को हिज्जों में पढ़ने तक ही सीमित रहेंगे। जिससे बच्चों का ध्यान एवं ऊर्जा अर्थ पर केन्द्रित न रहकर केवल डिकोड करने की कवायद तक ही रह जाएगी ।
बच्चों को डिकोडिंग सिखाने के दौरान शब्दों को धाराप्रवाह से पढ़ने हेतु अभ्यास करवाना होगा। वाक्यांशों पर आधारित छोटे-छोटे अर्थपूर्ण पाठ्यों का निर्माणकर बच्चों को उन्हें पढ़ने हेतु अवसर भी देना होगा। वहीं दूसरी ओर सम्बन्धित शब्दभण्डार को भी विशिष्ट रूप से शिक्षण में शामिल करना होगा। जिससे वे वाक्यों में शब्दों को अर्थ गढ़ते हुए उचित गति एवं शुद्धता के साथ पढ़ पाएँ। इसके साथ ही बच्चों के साथ अनुमान लगाने, पाठों पर प्रश्नात्मक चर्चाएँ इत्यादि कार्य भी करने होंगे क्योंकि पढ़ने की प्रक्रिया में सोचना भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसे किसी भी कीमत पर नकारना नही चाहिए।
शब्दों की सटीकता से पहचान
किसी भी पाठ्य को पढ़कर समझने की प्रक्रिया में केन्द्र बिन्दु के रूप में उसमें निहित शब्दों को पहचान पाना शामिल होता है। ( - Ehri, 1991, 1994)
जब भी किसी पाठ्य में शामिल शब्द हमारे समक्ष पठन हेतु आते हैं तो हमारी स्मृति में शब्दों को पहचानने की निम्नलिखित मानसिक प्रक्रियाएँ होने लगती हैं -
डिकोडिंग द्वारा (Decoding Process) : कोई भी अनजान शब्द जिसे पहले कभी नही पढ़ा या उसका पर्याप्त अभ्यास नहीं है तो पाठक डिकोडिंग कौशल का प्रयोग करने लगता है।
दृष्य शब्द की प्रक्रिया द्वारा (Sight Word Process) : शब्दों का लगातार और अच्छा अभ्यास विभिन्न प्रकार के शब्दों को एक कुशल पाठक की स्मृति में दृश्य चित्र के रूप में संग्रहित कर देता है, जिसके चलते हम बहुत से शब्दों को बिना डिकोडिंग की सहायता लिए आसानी से पढ़ देते हैं।
सादृष्यता की प्रक्रिया द्वारा (Analogy Process) : शब्दों को पहचानने हेतु स्वयं की स्मृति में पहले से संग्रहित शब्दों की वर्तनी, हिज्जे या बनावट से मिलान की कोशिश कर पहचानना ।
अनुमान लगाने की प्रक्रिया द्वारा (Predcition Process) : पाठ्य के सम्पूर्ण सन्दर्भ को एवं स्वयं के पूर्व ज्ञान को आधार बनाकर अनजान शब्दों को पहचानना।
किसी पाठ्य को पढ़कर समझना किसी कुशल पाठक के लिए तब आसान होता है जब वह उसमें निहित शब्दों को स्वचालन से या कहें की दृश्य शब्द प्रक्रिया से पढ़े। क्योंकि इसमें पाठक का ध्यान ध्वनि प्रतीकों को पहचानने की मशक्कत में न रहकर सीधा अर्थ पर रहता है। जब शब्द अनजान हों तो वे डिकोडिंग, सादृश्यता और अनुमान के माध्यम से शब्दों को पहचानने एवं अर्थ को संजोने की कोशिश करते हैं। बच्चों की स्मृति में दृश्य शब्दों का जितना अधिक भण्डार होगा, पाठ्यों को समझने की सम्भावनाएँ उतनी ही अधिक होगी।
शिक्षकों को प्रारम्भिक साक्षरता कौशलों को अर्जित कर रहे पाठकों की इसमें मदद करनी चाहिए। ताकि वे तैयार हो सकें और यह तभी हो सकता है जब पठन एवं लेखन कौशलों के विकास के साथ-साथ मौखिक भाषा विकास पर भी पर्याप्त कार्य हो। उन्हें पढ़ने के अवसर प्रदान कराने के साथ-साथ विभिन्न सन्दर्भों की पठन सामग्री को भी उपलब्ध कराया जाए, क्योंकि ये दोनों साथ-साथ चलने वाली प्रक्रियाएँ हैं।
कुछ अन्य रणनीतियाँ जो शिक्षण में शामिल की जा सकती हैं
जब बच्चों के साथ डिकोडिंग कौशल पर कार्य किया जाता है तो इसके साथ-साथ बच्चों के स्वयं के पूर्व ज्ञान को आधार बनाकर कुछ महत्वपूर्ण भागों को भी शिक्षण में शामिल किया जाना चाहिए।
शब्द भण्डार भी बढ़ाया जाए : किसी भी पाठ्य में छिपा हुआ अर्थ निर्भर करता है कि उसमें किस प्रकार के और कौन-से शब्द प्रयोग किए गए हैं। इनका ज्ञान न होने के कारण घटनाएँ एक-दूसरे से जुड़ नही पाती हैं। इसलिए यह जरूरी होता है कि बच्चों को नए-नए शब्दों से परिचित कराया जाए। साथ ही उन अर्थों को बच्चों के पूर्व अनुभवों से जोड़कर भी प्रयोग करवाया जाए ताकि वे आसानी से उन्हें जरूरत पड़ने पर प्रयोग कर सकें।
कहानियों या फिर पाठ्यों पर अनुमान व प्रारम्भिक चर्चाओं का समावेश : पाठ को रौचक और सहभागितापूर्ण बनाने हेतु प्रारम्भिक चर्चाएँ जिसमें चित्रों पर बातचीत, अनुमान लगवाना, बीच-बीच में आगामी घटनाओं के सम्बन्ध को बच्चों से पूछना ताकि वे विषय सन्दर्भ समझ पाएँ आदि जरूरी है।
प्रश्नोत्तरी चर्चा : बच्चों के साथ यदि पाठ को लेकर पर्याप्त चर्चाएँ हो चुकी है तो यह गतिविधि उनके लिए बहुत ही आसान हो जाएगी। इसमें बच्चे स्वयं ही प्रश्नों के उत्तर खोजें और शिक्षक उन्हें एक सुगमकर्ता की भाँति जहाँ आवश्यकता हो, सहयोग करें।
पारस्परिक या सहभागितापूर्ण शिक्षण (Reciprocal Teaching) : यह भी एक अच्छा तरीका है बच्चों में विषयवस्तु के प्रति समझ विकसित करने का । इसमें बच्चे स्वयं प्रश्नों और उत्तरों को तैयार करते हैं। शिक्षक द्वारा एक सहभागिता पूर्ण चर्चा में पाठ की पूरी संरचना समझा दी जाती है। बच्चे भी स्वयं अपने शब्दों में पाठ या कहानी को पढ़कर सुनाते है। छोटे-छोटे समूहों में पढ़ते हैं। शिक्षक बच्चों को प्रेरित करते हैं और आवश्यकतानुसार उन्हें मदद भी करते हैं। बच्चों को जितने पढ़ने के अवसर मिलेगें उनका पढ़ना उतना अधिक समृद्ध होगा।
कहानी मानचित्र (Graphic Orginizer) : इस विधि के दौरान बच्चों के साथ पाठों/ कहानियों की संरचना पर कार्य किया जाता है। जिसमें शिक्षक पाठ को पढ़ने के बाद बच्चों से कहानी के शीर्षक, मूल समस्या, उसका समाधाान, महत्वपूर्ण घटनाएँ एवं पात्रों की जानकारी आदि से एक कहानी मानचित्र तैयार करने का कार्य करवाते हैं। इस मानचित्र पर फिर चर्चाएँ होती हैं।
शीर्षक निर्माण विधि : इस तरीके में शिक्षक द्वारा पाठ के छोटे-छोटे हिस्सों पर बच्चों से शीर्षक निर्माण करने को कहा जाता है कि इस भाग का शीर्षक क्या हो सकता है ? और ऐसा आपको क्यों लगता है ? बाद में पूरी कहानी के शीर्षक पर बात की जाए कि इस पूरी कहानी या पाठ का शीर्षक क्या हो सकता है ?
कहानी का नाट्य रूपान्तरण : यह भी बहुत ही प्रचलित शिक्षण विधा है जिसमें कहानी के पात्रों और घटनाओं पर आधारित एक नाटक बच्चों द्वारा खेला जाता है । इसमें बच्चों का कहानी या पाठ के साथ हुआ जीवन्त अनुभव पाठ की समझ को आसान बना देता है।
इन सभी तथ्यों के आधार पर एक महत्वपूर्ण बात जो साफ नजर आती है, कि बच्चों के साथ शिक्षण कार्य करने के दौरान अपनायी गई प्रभावी रणनीति कारगर हो सकती है। जिससे विषयवस्तु पर बच्चे उस अपेक्षित समझ स्तर को प्राप्त कर सकते हैं जिसके लिए उस विषयवस्तु का निर्माण किया गया है। जिससे वे पढ़ने जैसी महत्वपूर्ण क्षमता का प्रयोग अपने विद्यालयी जीवन के साथ-साथ व्यवहारिक जीवन में भी कर सकते हैं।
बच्चों को कक्षा में मदद करने हेतु रणनीति ऐसी हो जिसे अपनाकर किसी शिक्षक द्वारा अपनी कक्षा में पढ़ना-लिखना सिखाने के प्रारम्भिक चरणों को प्रभावी बनाया जा सके। यदि हम पढ़ने के लिए सीखने की बात करें तो यह एक प्रारम्भिक स्थिति हैं, जहाँ बच्चे शुरुआत में पठन एवं लेखन के बुनियादी कौशलों को अर्जित कर रहे होते हैं जब इन कौशलों का विकास बच्चों में एक बार हो जाता है, तो वे अर्जित कौशलों की मदद से नई-नई अवधारणाओं को स्वयं से पढ़कर सीख पाते हैं। या यूँ कहे कि आत्मनिर्भर पाठक बनकर सीखने के लिए पढ़ना जैसे स्तर को प्राप्त कर पाते हैं। उनके स्तर के सन्दर्भों को स्वयं से पढ़कर अर्थ गढ़ पाते हैं।
पढ़ने को अलग-अलग लोग अलग-अलग अर्थों में संजोने की कोशिश करते हैं, जैसे लिखित शब्दों को पहचानना एवं अर्थ बुनना या कहें कि पढ़ने की प्रक्रिया एक ऐसा अवसर है जहाँ कोई पाठक शुद्ध उच्चारण हेतु अभ्यास करता है, इत्यादि। पर जो भी हो कहीं न कहीं पढ़ना अपने आपमें किसी न किसी उद्धेश्य से जुड़ा हुआ है। यह हमारे दैनिक जीवन में आवश्यक भाग के रूप में शामिल है। हमारे आसपास स्थित संसार को भाषायी परिपेक्ष में प्रतिक्रिया देने एवं प्रतिक्रियाओं को समझने हेतु एक हद तक पढ़ने एवं लिखने की आवश्यकता होती है।
और जब हम बात करते हैं कि यह होगा कैसे, तो जाहिर है प्रभावी शिक्षण रणनीति के साथ-साथ शिक्षण सामग्री और वह साहित्य भी उपलब्ध हो जो भाषा के वास्तविक पहलुओं को उकेरता हुआ हो। जो वास्तविक जीवन के उदाहरणों से बना हो। बच्चों को उत्साहित तो करे ही, साथ में पढ़ने-लिखने में उसकी उपलब्धियों का अहसास भी कराए। जिससे बच्चों में निरन्तर पढ़ने एवं विभिन्न प्रकार की पठन सामग्रियों को प्रयोग करने की ललक भी पैदा करे। यूँ कहे कि बच्चों में पढ़ने की आदत का विकास भी कराए। इस हेतु विद्यालयों में उपलब्ध पुस्तकालय अपनी अहम भूमिका निभा सकते हैं उन्हें बच्चों के लिए पठन अवसर उपलब्ध कराने हेतु प्रयोग किया जा सकता है।
निष्कर्ष
विद्यालयों के सन्दर्भ में यदि कहा जाए तो वर्तमान में उस पद्धति की महती आवश्यकता है जिसमें बच्चे विभिन्न सन्दर्भो को अर्थ बुनते हुए पढ़ पाते हैं या सीख पाते हैं। वे पढ़ने के बुनियादी कौशलों को अर्जित तो करते ही हैं साथ में अनुमान व विषय सम्बन्धित पूर्व ज्ञान को आधार बनाकर नवीन तथ्यों से रूबरू भी होते हैं। भाषा को अपने चारों ओर विद्यमान संसार से जोड़ पाने व प्रयोग कर पाने में सक्षम हो पाते है। पठन एवं लेखन शिक्षण के साथ-साथ मौखिक भाषा विकास पर कार्य समानान्तर रूप से किया जाना चाहिए। जिससे बच्चे पढ़ने की प्रक्रिया की सम्पूर्णता के पहलू से जुड़ पाएँ।
विभिन्न शिक्षण पद्धतियों के अल्प ज्ञान के चलते शिक्षक उलझ जाते हैं और उन पद्धतियों का मुख्य सन्देश गौण हो जाता है। इसमें कई अन्य तत्व भी प्रभाव डालते हैं जैसे स्वयं की स्वीकार्यता, उचित प्रशिक्षण और धरातलीय सहयोग, उपलब्ध संसाधन इत्यादि। वर्तमान में लगातार बदल रहे सामाजिक परिवेश और बच्चों, अभिभावकों एवं शिक्षक मनोदशाओं को ध्यान में रखते हुए परम्परागत शिक्षण को त्वरित प्रभाव से पूरी तरह बदला जाना आसान नहीं है, पर यदि यथास्थिति को धरातल पर ठीक से विश्लेषण किया जाए तो शायद स्थायी सुधार की ओर बात आगे बन सकती है। इसमें छोटे-छोटे बदलावों को निरन्तर किया जाना ही होगा ताकि एक समय विशेष के बाद शिक्षा में इसकी आवश्यकता को सभी महसूस करें एवं बिना किसी भाषायी शिक्षण विवाद के यह कक्षा में संचालित होता दिख सके। तरीके ऐसे हो जिसमें बच्चे अर्जित कौशलों की मदद से स्वयं के पढ़े हुए या लिखे हुए की जाँच भी कर सकें और उनकी ऊर्जा ध्वनि प्रतीकों को पहचानने की सीमा से पार होकर अर्थ एवं भावार्थ तक जाने के स्तर पर पहुँच जाए। ताकि आगे की कक्षाओं में उन्हें विषयवस्तु को समझने में आधारिक कौशल की कमी ना सताए ।
प्रस्तुति : दिनेश कुमार श्रीवास्तव,
साभार : http://www.teachersofindia.org
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