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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

MAN KI BAAT : ‘अध्यापक के नाम पत्र’ में आपके पढ़ाने का तरीका ऐसा हो, जो बच्चों को सीखने के आत्मविश्वास से भर दे, अत: शिक्षा का ढांचा ऐसा हो जिसमें सभी विद्यार्थियों का सर्वागीण विकास......

MAN KI BAAT : ‘अध्यापक के नाम पत्र’ में आपके पढ़ाने का तरीका ऐसा हो, जो बच्चों को सीखने के आत्मविश्वास से भर दे, अत: शिक्षा का ढांचा ऐसा हो जिसमें सभी विद्यार्थियों का सर्वागीण विकास......

'अध्यापक के नाम पत्र’ पुस्तक की समीक्षा की है जौनपुर के प्राथमिक विद्यालय की शिक्षिका अर्चना द्विवेदी ने की है।

बारबियाना के छात्रों द्वारा ‘अध्यापक के नाम पत्र’ पुस्तक के लेखक इटली में पहाड़ियों के बीच बसे एक छोटे से गांव बारबियाना के एक स्कूल के आठ छात्र हैं जिनकी अवस्था 13 से 15 वर्ष की हैं और वे अध्यापन के कार्य मे लगे हैं। इस पुस्तक में अध्यापिका को लिखे पत्र के माध्यम से छात्रों ने उनके विद्यालय में होने वाली समस्याओं,उलझनों,अनुभवोंएवं भेदभावों को व्यक्त किया है।

ग़रीब विद्यार्थियों को अपने संकोची स्वभाव, आत्मविश्वास में कमी तथा विद्यालय तक पहुँचने में होने वाले संघर्ष का सामना करना होता है।इन सब के बावज़ूद उन्हें जब शिक्षक द्वारा साधन संपन्न विद्यार्थियों की तुलना में तुच्छ समझा गया तो उन्होंने मनः स्थिति को क्रोध के रूप में शिक्षक को पत्र के माध्यम से व्यक्त किया है।

शिक्षा का उद्देश्य हासिल करना है, तो सभी बच्चों पर ध्यान दें :-

इस पत्र के माध्यम से छात्रों ने भाषायी आधार पर ग़रीब और अमीर घरों के विद्यार्थियों में विद्यालय में किये गए भेद-भाव के बारे में बताया है।यह भेद-भाव किसी अन्य स्थान पर होता तो भी संभवतः स्वीकार्य होता परंतु विद्यालय में शिक्षक यदि ऐसा करे तो नितान्त निंदनीय कृत्य है।

बहुत ही श्रेष्ठ पंक्तियों में यह समझाया गया है कि यदि अस्पताल व्यक्तियों की देख-भाल करे और रोगियों की अवहेलना तो उसकी प्रासंगिकता नही रह जाएगी इसी  प्रकार यदि विद्यालय में सभी छात्रों के सर्वागीण विकास के स्थान पर कुछ साधन संपन्न विद्याथियों पर शिक्षक ध्यान केंद्रित रखे तो विद्यालय एवं शिक्षा का उद्देश्य कभी पूर्ण नही हो सकता।

पत्र लिखने वाले 8 बच्चे विद्यालय की नियमित कक्षाओ से निकाले गए वो छात्र हैं जिन्हें बारबियाना के चर्च के पादरी अपनी कक्षा में पढ़ाया और इन छात्रों में विद्यमान योग्यताओं को पहचाना और उनका विकास किया जबकि माध्यमिक विद्यालय की शिक्षिका उन्हें लगातार अयोग्य घोषित कर अनुत्तीर्ण कर रही थी।इन छात्रों का मत है कि विद्याथियों को डॉक्टर इंजीनियर बनाने से भी पहले एक सभ्य और कुशल नागरिक बनाना चाहिए तभी किसी देश और समाज की उन्नति हो सकती है।

ऐसे पढ़ाएं कि कमजोर विद्यार्थी भी, सीखने का आत्मविश्वास पा सके

कक्षा में अनुत्तीर्ण किये गए विद्याथियों की मनः स्थिति को दर्शाते हुए बताया गया है कि फेल होने वाला विद्यार्थी मजदूरी के काम मे लगा दिया जाता है।

इस किताब की पंक्तियां हैं, “जानवर स्कूल नही जाते उन्हें कोई शिक्षित नही करता इसीलिए हज़ारों सालों से गौरैया अपना घोंसला एक ही तरह से बनाये जा रही है।” इस उदाहरण से अधिगम की प्रासंगिकता का पता चलता है । प्रत्येक विद्यार्थी अपने मानसिक स्तर और विशिष्टताओं के साथ सीखता है और अपने अनुभवों को समाज के साथ जोड़ता है जिससे समाज आगे बढ़ता है।

यह भी समझाने का प्रयास किया गया है कि विषय को सरल करके ऐसे समझाया जाए कि कक्षा का सबसे कमज़ोर विद्यार्थी भी सीखने में सहजता का अनुभव करे। दर्शनशास्त्र व्यक्ति और समाज दोनो को प्रभावित करता है।शिक्षक का स्पष्ट मत किसी भी दर्शन के परिपेक्ष्य में न होना भ्रम की स्थिति पैदा करता है जो स्वयं भ्रम में हो वह अपने छात्रों को स्पष्ट ज्ञान कैसे कर पायेगा। शिक्षणशास्त्र की समस्याओं को पुस्तक में पढ़कर कभी भी नही समझ जा सकता। इन समस्याओं को तो कक्षाकक्ष में समझा और सुलझाया जा सकता है।

शिक्षण की प्रक्रिया के बारे में क्या कहती है पुस्तक?

अध्यापक के नाम पत्र पुस्तक में एक अन्य बिंदु – शिक्षण प्रक्रिया सुधारात्मक होनी चाहिए। हमारा उद्देश्य विद्यार्थियों की कमियां निकालकर उन्हें अनुतीर्ण करना न होकर उनकी आवयशक्तानुसार सहायता एवं सुधार कर अधिगम कराना होना चाहिए। सांख्यिकी आँकड़ों की सहायता से बताया गया है कि प्राथमिक कक्षाओं में नामांकित विद्यार्थियों में से बहुत कम विद्यार्थी माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा तक पहुँचते हैं।ये ड्रॉपआउट विद्यार्थी भी देश की प्रगति में उतने ही महत्वपूर्ण है जितने उत्तीर्ण । अतः शिक्षा का ढांचा ऐसा हो जिसमें सभी विद्यार्थियों का सर्वागीण विकास हो सके।

पूरा पत्र क्रोध एवं भावावेश में लिखा गया है, परंतु यह अपने उद्देश्य में पूर्ण सफल है। अपनी बात पाठकों तक बहुत ही प्रभावशाली ढंग से पहुचायी गयी है। पत्र में सारा ध्यान विद्यालयी शिक्षा की बेहतरी पर है।विवादों पर तीखे प्रहार किए गए हैं। सांख्यिकी आंकड़ो का पूर्ण विश्लेषण किया गया है । कुल मिलाकर शिक्षा जगत के लिए यह पुस्तक मील का पत्थर है।

   (जौनपुर के प्राथमिक विद्यालय में सहायक अध्यापक अर्चना द्विवेदी जी ने लिखी है। उन्होंने ‘अध्यापक के नाम पत्र’ पुस्तक पढ़ने के बाद के अपने अनुभवों  को साझा किया है। आप भी अपने विद्यालय के बारे में ऐसी पोस्ट लिख सकते हैं। अपने अनुभव "मन की बात" की बात में लिखकर साझा करें ।)

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