MAN KI BAAT : प्रार्थना पर अनावश्यक विवाद, पिछले 54 वर्षो में केंद्रीय विद्यालयों में पढ़े कितने बच्चों ने हिंदी और संस्कृत प्रार्थना करके धर्म परिवर्तित कर लिया?
क्या भारत में हिंदी और संस्कृत का प्रयोग या हिंदू होना अब अपराध की श्रेणी में माना जाएगा? हाल में इसकी बानगी तब देखने को मिली जब एक व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में कहा है कि केंद्रीय विद्यालयों में होने वाली प्रार्थना हिंदुत्व को बढ़ावा दे रही है। यह प्रार्थना देश और देश से बाहर चल रहे सभी केंद्रीय विद्यालयों में साठ के दशक से प्रयोग में है। उस समय जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे। इतने वर्षो से हो रही प्रार्थना पर किसी को आपत्ति नहीं थी, लेकिन अब यह अचानक हिंदुत्व की पोषक नजर आने लगी। नेहरू के दौर में 15 दिसंबर, 1963 को केंद्रीय विद्यालय संगठन की स्थापना हुई। तत्कालीन शिक्षा मंत्री भी शिक्षाविद् मोहम्मद करीम छागला थे। तब देश में भाजपा की सरकारों का कहीं नामोनिशान भी नहीं थी, लेकिन अब तथाकथित सेक्युलर खेमा इसके उन्हें ही जिम्मेदार बता रहे हैं। केंद्रीय विद्यालयों में होने वाली प्रार्थना है-असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतमगमय। अर्थात (हमें) असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो। इसमें हिंदुत्व कहां है? यह समझ नहीं आता। यदि किसी भी व्यक्ति विशेष को कोई आपत्ति है भी तो यह उसका निजी मामला है और वह चाहे तो अपने बच्चे को केंद्रीय विद्यालय न भेजे।
केंद्रीय विद्यालय की स्थापना के मूल में एक अहम विचार यह भी था कि यहां बच्चों में राष्ट्रीय एकता और भारतीयता की भावना का विकास हो। क्या नई या पुरानी प्रार्थना उक्त दोनों विचारों के विरुद्ध खड़ी होती हैं? क्या याचिकाकर्ता बताएंगे कि क्या पिछले 54 वर्षो में केंद्रीय विद्यालयों में प्रतिवर्ष 12 लाख से ज्यादा पढ़ रहे कितने बच्चों ने हिंदी और संस्कृत प्रार्थना कर धर्म परिवर्तित कर लिया? क्या प्रार्थना हिंदी और संस्कृत में न करवाकर लैटिन, अरबी या इतालवी में करवाई जाए? क्या सर्वधर्म समभाव का अर्थ बहुमत को नीचा दिखाना ही है? सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार और केंद्रीय विद्यालयों को नोटिस जारी कर जवाब भी मांगा है। याचिकाकर्ता ने कहा है कि केंद्रीय विद्यालय में जिस प्रार्थना को बच्चे गाते हैं, वह संविधान के अनुच्छेद 25 और 28 के खिलाफ है और इसे इजाजत नहीं दी जा सकती है। राज्यों के फंड से चलने वाले संस्थानों में किसी धर्म विशेष को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता। अब देखना है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में क्या निर्णय करता है।
दरअसल यह सेक्युलरिज्म की अतिवादी मानसिकता का परिणाम है। हरेक चीज में मीनमेख निकालना कहां तक उचित माना जाएगा। देश भर में 1,128 केंद्रीय विद्यालय हैं, जिनमें एक जैसी यूनिफॉर्म और एक जैसा पाठ्यक्रम है। इस तरह से यह दुनिया की सबसे बड़ी स्कूल श्रृंखला बन जाती है। पिछले 54 वर्षो में करोड़ों छात्र केंद्रीय विद्यालयों से यही प्रार्थना करके निकले और देश और विदेशों में भी नाम कमा रहे हैं। वे भावनात्मक रूप से इस प्रार्थना से जुड़े हुए हैं। क्या याचिकाकर्ता ने करोड़ों नागरिकों की भावना पर ठेस नहीं पहुंचाई है? इन स्कूलों ने देश को एक से बढ़कर एक प्रतिभाएं दी हैं। इसे शुरू करने के मूल में विचार ही यह था ताकि केंद्र सरकार के कर्मचारियों के बच्चों को स्थानांतरण की स्थिति में नए शहर में जाने पर केंद्रीय विद्यालय में दाखिला आसानी से मिल जाए। अब वह दिन भी आने वाला है, जब केंद्रीय विद्यालय के ध्येय वाक्य-तत् त्वं पूषन् अपावृणु (हे ईश्वर, आप ज्ञान पर छाए आवरण को कृपापूर्वक हटा दें) पर भी प्रश्नचिन्ह लगेंगे। वेदों को भी असंवैधानिक कह दिया जाय तो आश्चर्य नहीं है, क्योंकि यह ध्येय वाक्य संस्कृत में है। इसलिए इसमें भी धर्मनिरपेक्षता आड़े आएगी।
देखा जाए तो केंद्रीय विद्यालयों में होने वाली प्रार्थना में हिंदुत्व देखना या इसे संविधानसम्मत नहीं मानने और 2005 में राष्ट्रगान से सिंध शब्द को निकाल देने की उठी मांग में कोई बहुत फर्क नहीं है। 2005 में संजीव भटनागर नाम के एक शख्स ने याचिका दायर की थी, जिसमें सिंध के भारत में न होने के आधार पर जन-गण-मन से निकालने की मांग की थी। तर्क यह दिया गया कि चूंकि सिंध अब भारत का हिस्सा नहीं रहा तो इसे राष्ट्रगान में नहीं होना चाहिए। उसमें सिंध शब्द के स्थान पर राष्ट्रगान में कश्मीर को शामिल करने की मांग की गई थी। शायद ही संसार के किसी अन्य देश में राष्ट्रगान का इस तरह से अपमान होता हो, जैसा हमारे देश में होता आया है। राष्ट्रगान पर रोक लगाने से लेकर इसमें संशोधन करने के प्रयास लगातार चलते रहते हैं। दरअसल अरबी लोग जब हिंदुस्तान आए तो सिंधु नदी को पार कर आए। अरबी में स को ह बोलते हैं इसलिए सिंध की जगह हिंद कहकर उच्चारण किया। हिंद के जगह सिंध कैसे नहीं होगा। उस याचिका को 13 मई, 2005 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आरसी लाखोटी की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने सिर्फ खारिज ही नहीं किया था, बल्कि याचिका को बचकानी मुकदमेबाजी मानते हुए उन पर दस हजार रुपये का दंड भी लगाया था। इसी तरह अब प्रार्थना में कमियां निकाली जा रही हैं। असल में कुछ शक्तियां देश को खोखला करने की दिशा में संलग्न हैं। इन्हें किसी भी सूरत में माफ नहीं किया जाना चाहिए।
- जागरण सम्पादकीय
- आरके सिन्हा
(लेखक राज्यसभा के सदस्य हैं)
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