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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

MAN KI BAAT : शिक्षा का माध्यम, भाषा की समस्या ही है जबकि प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा को स्थानीय या मातृभाषा पर आधारित किया जाय अन्य राज्यों या राष्ट्रों से आने वाले विद्यार्थियों हेतु पाठ्यक्रम.........

MAN KI BAAT : शिक्षा का माध्यम, भाषा की समस्या ही है जबकि प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा को स्थानीय या मातृभाषा पर आधारित किया जाय अन्य राज्यों या राष्ट्रों से आने वाले विद्यार्थियों हेतु पाठ्यक्रम.........

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         अंग्रेज़ों के भारत में आने के समय तक भारत के आम नागरिक दैनिक कार्यों में स्थानीय भाषाओं का व्यवहार करते थे; उच्च शिक्षा, शास्त्रीय चर्चा जैसे कार्यों के लिए संस्कृत का व्यवहार करते थे. मुस्लिम सभ्यता के संपर्क के बाद किन्ही-किन्ही कार्यों के लिए फ़ारसी का प्रयोग भी होने लगा था.

         अँग्रेज़ों ने सत्ता हथियाने पर पहले तो हिन्दी-उर्दू मिश्रित भाषा में सरकारी कामकाज किया, पर बाद में अँग्रेज़ी को सरकारी कामकाज की भाषा बनाया, ताकि वह सारा काम उनकी देख-रेख में चले. इस काम के लिए उन्हें भारतीय भाषाओं को जानने वाले ऐसे भारतीय चाहिए थे, जो अँग्रेज़ी के भी जानकार हों. अतः उन्होने अँग्रेज़ी शिक्षा की शुरूआत की, जिसका माध्यम भी अँग्रेज़ी को ही बनाया. संस्कृत और फ़ारसी से उन्हें कोई लेना-देना नही था. अँग्रेज़ी-काल में और उसके पश्चात समय-समय पर शिक्षा के माध्यम की भाषा की समस्या पर चिंतन-मनन किया गया और विभिन्न प्रकार के उपायों को अपनाया भी गया.

          वर्तमान समय में अनिवार्य शिक्षा अधिनियम के अनुसार माध्यमिक स्तर तक मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा) को शिक्षा का माध्यम स्वीकार किया गया है, परंतु उच्च शिक्षा स्तर पर आज भी यह समस्या बनी है कि, क्या इस स्तर पर शिक्षा का माध्यम अँग्रेज़ी ही हो. अनेक महाविद्यालयों में अधिकांश विद्यार्थियों को हिन्दी भाषा के माध्यम से शिक्षा प्रदान किया जा रहा है. ऐसा हिन्दी भाषी क्षेत्रों मे ही है. केंद्र शासित क्षेत्रों व केंद्रीय विश्व-विद्यालयों मे शिक्षा का माध्यम अँग्रेज़ी ही है. अनेक शिक्षा-संस्थाओं में हिन्दी या क्षेत्रीय भाषा तथा अँग्रेज़ी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा प्रदान व प्राप्त की जाती है.
           इस प्रकार अँग्रेज़ी और हिन्दी के मुद्दे पर फंसकर शिक्षा के माध्यम की भाषा एक बहुत बड़ी समस्या बन गयी है, और इस अनसुलझी समस्या ने शिक्षा के स्तर को एकदम निम्न स्थिति में पंहुचा दिया है.

समस्या के समाधान हेतु किए गये कार्यों का समालोचनात्मक मूल्यांकन

           विभिन्न आयोगों, समितियों और परिषदों द्वारा प्रस्तुत किए सुझावों में एक सुर में क्षेत्रीय भाषाओं या मातृभाषाओं को प्रथम स्थान प्रदान किया गया है. साथ ही लगभग सभी ने त्रिभाषा-सूत्र के पालन पर ज़ोर दिया है. इसके अलावा अँग्रेज़ी को धीरे-धीरे शिक्षा के माध्यम की मुख्य धारा से हटाने का भी सुझाव प्रस्तुत किया गया है. सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि एक तरफ लगभग सभी नीति-निर्माता इस बात पर सहमत हैं कि, भारत में ब्रिटिश काल के दौरान टुकड़े-टुकड़े में बँटे देश को, एक सूत्र में पिरोने का कार्य करने वाली एकमात्र भाषा अँग्रेज़ी ही रही है. अँग्रेज़ी भाषा की शिक्षा से ही भारतीय जनमानस में राष्ट्रप्रेम की भावना का उदय हुआ. साथ ही लगभग सभी का यह मानना है कि वैग्यानिक और वस्तुनिष्ठ आधुनिक अध्ययन के लिए अँग्रेज़ी भाषा का अध्ययन अत्यंत आवश्यक है, परन्तु दूसरी तरफ इस तथ्य पर सभी ने ज़ोर दिया है कि, अँग्रेज़ी का मुख्य भाषा के रूप में अध्ययन राष्ट्रीय एकता के लिए ख़तरनाक सिद्ध हो सकता है. इसके अलावा त्रिभाषा-सूत्र के रूप में नीति-निर्माताओं ने लगातार एक अव्यवहारिक और अनावश्यक बोझ विद्यार्थियों के उपर लादने का कार्यक्रम तय किया है. नीति-निर्माताओं ने इस तथ्य पर गंभीरता से विचार नही किया कि अँग्रेज़ी को प्राथमिक शिक्षा से दूर रखकर तथा माध्यमिक शिक्षा में मात्र एक विषय के रूप में अध्ययन की भाषा बनाकर उच्च शिक्षा में वैगयानिकता, तथयपरकता और वस्तुनिष्ठता कैसे लाएँगे.

वर्तमान स्थिति

               नेशनल यूनिवर्सिटी फॉर एजुकेशन प्लांनिंग एंड एड्मिनिस्ट्रेशन (एन. यू. ई. पी. ए.) के अनुसार अब अधिकाधिक भारतीय अपने बच्चों को अँग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों में पढ़ाना पसंद करते हैं. वर्ष 2003-06 की अवधि के दौरान शिक्षा के माध्यम के रूप में अँग्रेज़ी भाषा का स्थान तीसरा हो गया है. इस अवधि में राष्ट्रीय स्तर पर अँग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों में नामांकन संख्या में 74% की वृद्धि दर्ज की गयी है, अर्थात वर्ष 2003 में यह संख्या 54.7 लाख थी, जो वर्ष 2006 में बढ़कर 95.1 लाख हो गयी. अधिकांश दक्षिण भारतीय राज्यों में अँग्रेज़ी की वृद्धि दर अधिक है, जो इन तीन वर्षों में हुई वृद्धि का लगभग 60% है. पूर्वोत्तर राज्यों में अँग्रेज़ी माध्यम में नामांकन सबसे अधिक अर्थात 90% है.
                                  (योजना, सितंबर 2009, पृष्ठ संख्या 39)
शिक्षा का माध्यम : भाषाई समाधान हेतु सुझाव
                भारत में शिक्षा के माध्यम की भाषा के निर्धारण हेतु निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत हैं. (ध्यान रहे कि इन सुझावों की सफलता हेतु कुछ विशेष परिस्थितियाँ आवश्यक हैं, जिनका उल्लेख, “कैसी हो भारतीय शिक्षा प्रणाली : सुझावनामक लेख में किया जा चुका है.)

प्रथम मार्ग :-

1. प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा को स्थानीय या मातृभाषा पर आधारित किया जाय. अन्य राज्यों या राष्ट्रों से आने वाले विद्यार्थियों हेतु पाठ्यक्रम का अँग्रेज़ी भाषा में व्याख्या द्वारा शिक्षण कार्य किया जाय.

2. अंतरराष्ट्रीय ग्यान एवं विग्यान का स्थानीय या मातृभाषा में अनुवाद करने हेतु एक विभाग की स्थापना की जाय, ताकि शिक्षा में अंतरराष्ट्रीय तत्व भी सम्मिलित रहें.

3. प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए अँग्रेज़ी एवं स्थानीय / मातृभाषा दोनो का प्रयोग किया जाय. इसके लिए आवेदन-पत्र द्वारा स्थानीय / मातृभाषा के उम्मीदवारों की संख्या ग्यात करके, उसके अनुसार प्रश्न-पत्रों का निर्माण किया जाय.

4. संस्कृत, उर्दू एवं अन्य भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय भाषाओं को वैकल्पिक रूप से पढ़ाया जाय, जिसके विद्यार्थियों को उचित सहयोग एवं प्रोत्साहन प्रदान किय जाय.

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प्रथम मार्ग के अनुपालन में कठिनाइयाँ :-

1. अंतरराष्ट्रीय ग्यान एवं विग्यान के विभिन्न स्थानीय / मातृभाषाओं में अनुवाद में ज़्यादा खर्च. वस्तुत: यह कोई व्यावहारिक समस्या नही है.

2. स्थानीय / मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने से अन्य क्षेत्रों से विद्यार्थियों के कट जाने का ख़तरा है. आदिवासी या पिच्छड़े समुदाय पर यह ख़तरा ज़्यादा मंडराएगा.

3. अँग्रेज़ी भाषा का पर्याप्त विकास ना होने से विदेशों में अध्ययन एवं रोज़गार करना कठिन हो जाएगा.

4. भारतीय संविधान द्वारा सभी भारतीय नागरिकों को भारत के किसी भी क्षेत्र में शिक्षा प्राप्त करने, व्यवसाय करने या निवास करने का अधिकार प्राप्त है, जो आवश्यक भी है. स्थानीय / मातृभाषाओं में शिक्षा प्रदान करने से इस सन्दर्भ में व्यावहारिक समस्यायें उत्पन्न होंगी.

5. वर्तमान सन्दर्भ में अँग्रेज़ी का ग्यान प्राप्त करना आवश्यक कहा जा सकता है, अत: इसे मात्र एक विषय के रूप में पढ़ाकर कुशलता हासिल नही की जा सकती है.

द्वितीय मार्ग :-

1. प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा का मुख्य माध्यम अँग्रेज़ी भाषा को बनाया जाय. साथ ही स्थानीय / मातृभाषा में उसकी व्याख्या भी की जाय. इससे अँग्रेज़ी भाषा में विद्यार्थियों को कुशलता हासिल होगी और वे राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य से सामंजस्य स्थापित कर सकेंगे.

2. स्थानीय / मातृभाषा को एक विषय के रूप में पढ़ाया जाय.

3. इसके अतिरिक्त प्रथम मार्ग के रूप में सुझाए गये सुझाव संख्या 2 से 4 को द्वितीय मार्ग में भी अपनाया जाना चाहिए.

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द्वितीय मार्ग के अनुपालन में कठिनाइयाँ :-

1. भारत में अँग्रेज़ी में दक्ष शिक्षक-शिक्षिकाओं का अभाव है. ऐसे में अँग्रेज़ी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने से कठिनाई उत्पन्न होगी.

          इस समस्या की गहराई में जाए तो हम पाते हैं कि, वर्तमान में सिर्फ़ सरकारी विद्यालयों को छ्चोड़ दे तो अधिकांश विद्यालय अँग्रेज़ी माध्यम से ही शिक्षा प्रदान कर रहे हैं. तथापि इस समस्या को दूर करने हेतु शिक्षक-शिक्षिकाओं को उचित प्रशिक्षण प्रदान करके यह समस्या दूर की जा सकती है.

2. आदिवासी बहुल क्षेत्रों में अँग्रेज़ी को शिक्षा का माध्यम बनाना कठिन होगा. क्योंकि अन्य क्षेत्रों से आए शिक्षक-शिक्षिकाओं के लिए स्थानीय / मातृभाषा में विषय की व्याख्या कर पाना संभव प्रतीत नही होता.

              वस्तुत: यह समस्या तब भी रहेगी जब शिक्षा का मुख्य माध्यम क्षेत्रीय या मातृभाषायें होंगी. ऐसे में स्थानीय नागरिकों की शिक्षक-शिक्षिकाओं के रूप में भर्ती के उपरांत भी यह समस्या पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रहेगी. जबकि अँग्रेज़ी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने से यह समस्या कुछ पीढ़ियों के बाद ख़त्म हो जाएगी.

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निष्कर्ष :-
              प्रस्तुत अध्ययन से यह तथ्य स्पष्ट है कि अब तक गठित लगभग सभी आयोगों, समितियों और परिषदों ने त्रिभाषा-सूत्र का समर्थन किया है और क्षेत्रीय अथवा मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम घोषित किया है. साथ ही नीति-निर्माताओं के अँग्रेज़ी के संबंध में स्वयं के विचारों में ही विरोधाभास मिलता है. ऐसा प्रतीत होता है कि, सुझाव प्रस्तुत करते समय, वक्त की माँग को खारिज करके, नीति-निर्माताओं ने अँग्रेज़ी भाषा के प्रति अपने पूर्वाग्रहों को अपने सुझावों पर हावी होने दिया है.

              वर्तमान में अँग्रेज़ी माध्यम में नामांकन दर की वृद्धि को देखकर यह पूर्णतया स्पष्ट है कि शिक्षा के माध्यम की प्रथम भाषा के रूप में अँग्रेज़ी को स्वीकार करने से ही वर्तमान समय की माँग को पूरा किया जा सकता है. सिर्फ़ यही एक भाषा है जिसके अध्ययन से वैग्यानिक एवं वस्तुनिष्ठ अध्ययन को सफल बनाया जा सकता है, भारत में राष्ट्रीय एकता की भावना को अटूट मजबूती प्रदान करने के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपने संपर्क एवं ग्यान का आदान-प्रदान सुचारू रूप से किया जा सकता है. जहाँ तक राजभाषा हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं के विकास और सम्मान की बात है तो यह कार्य उन्हें अध्ययन के एक विषय के रूप में स्थापित करके भी सहजता से किया जा सकता है.

             निष्कर्षत: शिक्षा के माध्यम के भाषा की समस्या को अँग्रेज़ी को संपूर्ण भारत में शिक्षा के प्रथम माध्यम के रूप में स्वीकार करके ही दूर किया जा सकता है.
             प्रस्तुत लेख से संबंधित आप सभी के सुझाव और आलोचनायें सादर आमंत्रित हैं. धन्यवाद…!!!

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं ।
    - लेखक तपन कुमार



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