MAN KI BAAT : विगत दो-तीन दशकों में प्राथमिक शिक्षा को मजबूत करने के लिए जो कदम सुधार के लिए उठाए गए वह तो ठीक हैं परन्तु प्राथमिक स्कूलों को बचाने का एकमात्र विकल्प यह है कि मिड-डे-मील व फ्री जैसी योजनाओं को बन्द करने की जरूरत है अब वैसे गरीब बच्चों की मदद करने के लिए दूसरे तमाम तरीके हैं जिसके लिए सरकार.......
🔴 स्कूलों को रसोईघर न बनने दें ।
अंग्रेजों ने जिस प्राथमिक शिक्षा की नींव रखी थी, उसमें हर प्राथमिक पाठशाला में पांच अध्यापकों की नियुक्ति, मातृभाषा में शिक्षा, खेल-कूद, फूल-पौधों और बागवानी सहित कृषि कार्य, लेजिम, डंबल, पीटी आदि का प्रबंध, डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल की नियुक्ति, पांचवीं में बोर्ड परीक्षा की अनिवार्यता शामिल थी। जातिगत भेदभाव के बावजूद अध्यापकों द्वारा बच्चों को बेहतर शिक्षा दी जाती थी। प्रति शनिवार बाल सभाएं होती थीं, जिनमें बच्चे कुछ न कुछ गाते-सुनाते थे। ऐसी प्राथमिक शिक्षा की बुनियाद पर बच्चों का बौद्धिक और सामाजिक विकास होता था। बेशक वे अंग्रेजी में कमजोर थे, मगर मातृभाषा, गणित और ज्ञान में काफी मजबूत निकले।
अब विगत दो-तीन दशकों में प्राथमिक शिक्षा को मजबूत करने के लिए जो कदम उठाए गए, उनमें मिड-डे-मिल, सर्वशिक्षा अभियान, निःशुल्क कॉपी-किताबें, ड्रेस आदि के वितरण के अलावा शिक्षा मित्रों की नियुक्ति की गई। कहीं-कहीं मातृभाषा के साथ-साथ अंग्रेजी भी शिक्षा का माध्यम बन गई, मगर शिक्षा का पूरा ढांचा ध्वस्त हो गया। अब प्राथमिक पाठशालाओं में पकने वाला मिड-डे-मील ही चर्चा में रहता है। इन पाठशालाओं में पढ़ाई हो, पढ़ाई की गुणवत्ता बेहतर हो, इस पर कहीं चर्चा नहीं होती। अरबों का बजट खर्च होता रहा, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार नहीं हुआ। अब गरीब, मजदूर और भूमिहीन अभिभावक भी निजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं, क्योंकि सरकारी स्कूलों की पढ़ाई पर से उनका भरोसा लगभग उठ चुका है। अपने बच्चों को टाई-सूट में देखकर उन्हें लगता है कि निजी स्कूलों में सरकारी स्कूल से बेहतर शिक्षा तो मिल ही रही होगी।
पूरे हिंदी बेल्ट की हकीकत यह है कि अब केवल वे ही बच्चे प्राथमिक स्कूलों में खाने जाते हैं, जिन्हें उनके अभिभावक पढ़ाना नहीं चाहते। ऐसा क्यों है कि आठवीं पास बच्चा भी वर्णमाला नहीं पढ़ पाता? आखिर ऐसे प्राथमिक पाठशालाओं को हम क्यों चलाना चाहते हैं? अब निजी स्कूलों की संस्कृति जहां पहुंच चुकी है, उससे मुक्त हुए बिना प्राथमिक पाठशालाओं का उद्धार संभव नहीं है। सरकारी स्कूलों में पढ़ाई और बाल विकास की गतिविधियों के अलावा सब कुछ होता है। पढ़ाई की गुणवत्ता के बिना प्राथमिक स्कूलों को बनाए रखना, सरकारी धन का अपव्यय ही है। अगर हम वाकई प्राथमिक पाठशालाओं की सूरत बदलना चाहते हैं, तो तत्काल पांचवीं तक की शिक्षा केवल सरकारी स्कूलों में देना अनिवार्य करना होगा। जब सभी के बच्चों की शिक्षा के लिए सरकारी स्कूल होंगे, तभी सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता सुधरेगी। समान शिक्षा संस्कृति के पनपने से शिक्षा में धनबल पर रोक लगेगी।
प्राथमिक स्कूलों को बचाने का एकमात्र विकल्प यह है कि मिड-डे-मील जैसी दिखावटी और फिजूलखर्ची वाली योजनाओं को तुरंत बंद कर सभी पाठशालाओं में कम से कम पांच से छह योग्य स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति की जाए और उनके शिक्षण, प्रशिक्षण की प्रक्रिया पर निरंतर नजर रखने वाले जवाबदेह तंत्र को स्थापित किया जाए। अध्यापकों की जवाबदेही बेहतर परिणाम देने की होनी चाहिए। गरीब बच्चों की मदद करने के लिए दूसरे तमाम तरीके हैं-जैसे कि छात्रवृत्ति और अनाज, जो 80 फीसदी उपस्थिति दर्ज कराने वाले बच्चों के अभिभावकों को दी जा सकती है। पाठशालाओं को रसोईघर में तब्दील होने से बचाए बगैर प्राथमिक शिक्षा का भला नहीं होने वाला है।
- सुभाष चंद्र कुशवाहा (ओपीनियन)
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📌 MAN KI BAAT : विगत दो-तीन दशकों में प्राथमिक शिक्षा को मजबूत करने के लिए जो कदम सुधार के लिए उठाए गए वह तो ठीक हैं परन्तु प्राथमिक स्कूलों को बचाने का एकमात्र विकल्प यह है कि मिड-डे-मील व फ्री जैसी योजनाओं को बन्द करने की जरूरत है अब वैसे गरीब बच्चों की मदद करने के लिए दूसरे तमाम तरीके हैं जिसके लिए सरकार.......
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