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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

MAN KI BAAT : पिछले कुछ साल लगातार इस तलाश के साल थे कि स्कूल के बनने में जो कुछ शामिल होता है क्या उसका कोई निश्चित क्रम या व्यवस्था भी होता है? कुल मिलाकर हमें लगता है कि एक अच्छा स्कूल बनने में क्या शामिल रहता है? तलाशने का कोई लाभ नहीं, बस काम में......

MAN KI BAAT : पिछले कुछ साल लगातार इस तलाश के साल थे कि स्कूल के बनने में जो कुछ शामिल होता है क्या उसका कोई निश्चित क्रम या व्यवस्था भी होता है? कुल मिलाकर हमें लगता है कि एक अच्छा स्कूल बनने में क्या शामिल रहता है? तलाशने का कोई लाभ नहीं, बस काम में......

🔵 प्रभावशाली है शिक्षकों का मिलकर काम करना ।

पिछले कुछ साल लगातार इस तलाश के साल थे कि स्कूल के बनने में जो कुछ शामिल होता है, क्या उसका कोई पैटर्न [कोई निश्चित क्रम या व्यवस्था] भी होता है? यह प्रक्रिया कैसे चली और धीरे-धीरे खुली, यह बात मैं यहाँ साझा करना चाहूँगा। शुरुआत उन तत्वों या पैटर्न का पता लगाने से हुई जिनसे एक अच्छा स्कूल बनता है। इसके बाद यह आभास हुआ और समझ बनी कि एक अच्छा स्कूल बनाने में कोई एक कारण या तत्व नहीं होता। फिर धीरे-धीरे उन दो तत्वों की बहुत ही न्यूनतम समझ बनी जो हमें उन स्कूलों से उभरते दिखाई दिए जिनके साथ हम एक दशक से भी अधिक समय से सम्बद्ध रहे। शिक्षा के क्षेत्र के लिए यह कोई नई बात नहीं है मगर हमारे लिए इस सीख तक पहुँचना कड़े परिश्रम के बाद ही हो पाया। ये दो तत्व हैं शिक्षकों का मिलकर एक समूह के तौर पर काम करना और एक लोकतांत्रिक नेतृत्व का होना।

मैं औपचारिक शिक्षा के क्षेत्र में 2003 में आया। उससे पहले मेरा अनुभव गैर-औपचारिक शिक्षा में, विशेषकर वयस्क-शिक्षा के क्षेत्र में था। फाउण्डेशन में भी हमने अभी काम शुरू ही किया था तथा परिवर्तनकारी साधनों और प्रभावशाली प्रक्रियाओं की तलाश में थे। हम इस क्षेत्र के बहुत से लोगों और विशेषज्ञों से यह जानने के लिए मिल रहे थे कि स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए काम करने का सबसे बेहतर तरीका क्या है। हम विशेषज्ञों से परामर्श ले रहे थे और इस क्षेत्र को समझने के लिए अध्ययनों में शामिल हो रहे थे। हमने प्रो. जलालुद्दीन से अनुरोध किया कि वे हमारे लिए यह जानने हेतु एक अध्ययन करें कि एक अच्छा स्कूल बनने में क्या शामिल रहता है। (प्रो. जलालुद्दीन 1990 के दशक में एन.सी.ई.आर.टी. के निदेशक रहे थे और नेट्‌वर्क ऑफ एन्टर्प्राइज़िंग एजुकेशनल वेन्चर्स का नेतृत्व कर रहे थे)। उन्होंने हमें यह कहकर चौंका दिया कि, “आपको कोई एक अकेला तत्व नहीं मिलेगा जो एक अच्छा स्कूल बनने के लिए जिम्मेदार हो और न ही अच्छे स्कूलों का कोई पैटर्न निकलकर आएगा। एक अच्छा स्कूल बनाने में अलग-अलग तत्व मदद देते हैं और अलग-अलग स्कूलों में यह अलग होगा - इस सवाल का कोई एक जवाब नहीं है कि एक अच्छा स्कूल बनाने में क्या कुछ शामिल रहता है। तलाशने का कोई लाभ नहीं, बस जुटे रहिए।”

इससे हमें कोई जवाब तो नहीं मिला लेकिन एक दिशा जरूर मिली। हमने स्कूलों, कक्षा की प्रक्रियाओं और मुख्यत: शिक्षकों और अधिकारियों के साथ सम्बद्ध होना शुरू किया। हमारे काम का केन्द्र शिक्षक पेशेवर विकास बनने लगा। शिक्षकों की सामर्थ्य का निर्माण हमारे काम के केन्द्र में आ गया। अपने काम के दौरान हमने हर तरह के स्कूल देखे – अच्छे, और वे भी जो इतने अच्छे नहीं थे। लेकिन शिक्षको से हमें आशा मिली। हमने दूर-दराज के इलाकों में शिक्षक देखे जो न्यूनतम सुविधाओं के साथ भी ऐसे स्कूलों में थे जहाँ बच्चों ने सीखने के अच्छे स्तर हासिल कर लिए थे। हमने राजमार्गों और अच्छी दशा की सड़कों से दूर उमंगशील स्कूल देखे जहाँ समय की पाबन्दी भी थी और बच्चों को कई तरह की अकादमिक गतिविधियों में शामिल किया जाता था। हमने शिक्षक देखे जिन्होंने विरोधी भावना लिए हुए समुदाय को स्कूल चलाने वाले दोस्ताना सहभागियों के तौर पर परिवर्तित कर लिया था। सुरपुर (कर्नाटक) में एक नौजवान शिक्षक था जिसने राजसी परिवार के एक शक्तिशाली जमींदार का सामना करते हुए मंजूरशुदा स्कूल के लिए भूमि हेतु संघर्ष किया था। मेरे ख्‍याल से यह शिक्षक के लिए एक बहुत ही साहस की बात थी और अन्य लोगों से मिले सहयोग के चलते वह स्कूल के लिए जमीन लेने में कामयाब हो गया।

अकादमिक तौर पर अच्छा प्रदर्शन करने वाले कई स्कूल थे। रेखा जैसे शिक्षक थे जो अकेले 5 कक्षाओं को सम्भाल रहे थे और फिर भी बच्चों का सीखना बहुत अच्छा था। ये विश्वास से भरे स्वतन्त्र बच्चे थे। कुछ शिक्षक सुधार के लिए शिक्षण को बहुत गम्भीरता से लेते थे और यह काम पूरी प्रतिबद्धता के साथ करते थे, जिसका लाभ स्कूल से बाहर के बच्चों को भी मिलता था। इन बच्चों को अतिरिक्त समय देकर उन्हें सीखने में मदद देने वाले शिक्षक भी रहे हैं। कई शिक्षकों ने समुदाय के लोगों और पुराने विद्यार्थियों से अच्छे सम्बन्ध बना लिए हैं और उन्हें शिक्षण तथा विद्यार्थियों के साथ काम करने में सम्मिलित कर लिया है। यही वे शिक्षक हैं जिनसे हम आशा रख सकते हैं - काम किए जाने की आशा और व्यवस्था को बेहतर बनाए जाने की आशा। हमें इस बात का पक्का विश्वास हो गया था कि इस व्यवस्था में अच्छे प्रतिबद्ध लोग हैं जो रचनात्मक हैं, अपनी समस्याओं को हल करते हैं और बच्चों के साथ आगे बढ़ते हैं।

इन 13 सालों में मैंने अपने कार्य-क्षेत्र के 6 राज्यों में अलग-अलग तरह के अच्छे स्कूल देखे हैं। जैसा कि प्रो. जलालुद्दीन ने कहा, एक नहीं, कई बातें हैं जिनसे एक अच्छा स्कूल बनता है। लेकिन जब मैं पीछे मुड़कर इन स्कूलों की ओर देखता हूँ, तो एक साझा पैटर्न निकलकर आता है। इन सब अच्छे स्कूलों में दो बातें स्पष्ट दिखाई देती हैं। एक, शिक्षकों का समूह के रूप में मिलकर काम करना और दूसरा, एक लोकतांत्रिक नेतृत्व का होना।

शिक्षकों का समूह एक अच्छे और स्वस्थ सम्बन्ध के आधार पर बनता है। इन अच्छे स्कूलों में आने वाले किसी भी व्यक्ति का ध्यान शिक्षकों की टीम अपनी ओर खींचती है। उनका बहुत अच्छा परस्पर सम्बन्ध है। जब उनसे अच्छे सम्बन्धों के बारे में पूछा जाता है तो वे कहते हैं कि यह तो, “बस हो जाता है कि लोग अच्छे हों।” लेकिन यह सही नहीं है। इस सम्बन्ध को बनाने में बहुत मेहनत लगती है। एक-दूसरे के साथ सम्प्रेषण करने और समझ बनाने में समय लगता है। किसी को परेशानी होती है और उसे मदद की जरूरत होती है तो वे पूरी तौर पर मदद देते हैं। हम देखते हैं कि इसके लिए बहुत मेहनत की जाती है और यह निरंतरता में होता है। जैसा कि एक शिक्षक का कहना था, शुरुआत में बहुत समय लगता है और मेहनत भी होती है लेकिन बाद में तो आपको बस इसे जारी ही रखना होता है। बाद में यह जीवन का ही एक हिस्सा बन जाता है और यह नहीं होता तो आपको बहुत बुरा लगता है।

टीम के रूप में मिलकर काम करना ही असल कुंजी है। इन स्कूलों का दृश्य यही है – सब शिक्षक व्यस्त और काम करते दिखाई देते हैं। आप शिक्षकों को कोई भी काम मिलकर करते देख सकते हैं। सुबह की सभा, मध्याह्‌न भोजन या समुदाय के साथ आदान-प्रदान या अफसरों के साथ सम्बन्ध – इनमें से किसी में भी वे इकट्ठे हो सकते हैं। कलबुर्गी में शरणा सिरसागी थाण्डा स्कूल जैसे इन स्कूलों में शिक्षक-टीम जीवन्त और मिलनसार थी जबकि हम सब जानते हैं कि स्कूलों में यह आसानी से नहीं होता और इसके लिए बहुत तैयारी की जरूरत होती है। शिक्षक एक टीम के तौर पर आपस में बात करते हैं। अगर यह किसी कार्यक्रम के सिलसिले में है, कि किसे क्या करना है, तो यह सुनिश्चित किया जाता है कि बोझ बस किसी एक या दो पर न आए। देखने में सब एकसार, अटूट लगता है लेकिन इसे एक सामूहिक प्रयास बनाने में पीछे का काफी काम शामिल रहता है ।                        

टीम के बनने के लिए समय और स्थान का महत्व होता है। इनमें से अधिकतर स्कूलों में औपचारिक बैठक के लिए व्यवस्थित ढंग से समय निकाला जाता है। माहौल अनौपचारिक होने के बावजूद शिक्षकों की बैठकें बहुत ही व्यवस्थित तथा विशेष एजेण्डा के साथ होती हैं। इसमें भी अलग-अलग सम्भावनाएँ रहती हैं। कई स्कूलों में ये बैठकें शनिवार को स्कूल के तुरन्त बाद होती हैं। लेकिन मैंने कुछ स्‍कूलों में ये स्कूल शुरू होने के बिल्कुल पहले या शाम को स्कूल समाप्त होने के फौरन बाद भी होते देखी हैं। ये प्रतिदिन की बैठकें बस 15 से 30 मिनट की होती हैं। लेकिन शिक्षक कहते हैं कि इनसे उन्हें बहुत मदद मिलती है। कलबुर्गी में नगनहल्ली जैसे स्कूलों में शिक्षक दोपहर के भोजनकाल को अकादमिक विषयों पर और विभिन्न बच्चों के बारे में विस्तृत बातचीत के लिए प्रयोग में लाते हैं। यह खासतौर से उन बच्चों के बारे में जरूर होता है जिनके बारे में कुछ चिन्ता हो। इस बात का ध्यान किया जाता है कि सब शिक्षक मौजूद हों और सभी हिस्सा भी लें। दिलचस्प बात यह है कि इस बैठक में ये शिक्षक विषय, योजना और कठिनाई वाले बच्चों के साथ सम्बन्ध के बारे में बात करते हैं (ऐसे ही प्रयास सुरपुर, यादगीर में गद्ददा नारायण टाण्डा में काशिबाई स्कूल में भी देखने को मिले)।

एक टीम के बनने में कई छोटी-छोटी बातें शामिल रहती हैं। स्कूलों के बाहर समय लगाना भी बहुत जरूरी है। यह किसी शिक्षक के घर चाय के लिए या घूमने के लिए किसी स्थान पर जाने की बात हो सकती है। या फिर ऐसा ही कुछ और भी हो सकता है। इससे मदद मिलती है। लेकिन शिक्षकों द्वारा चिह्नित की गई सब से महत्वपूर्ण बात है कि टीम को सीखने और विकसित होने को मिले। अपनी जानकारी तथा ज्ञान को साझा करना और दूसरों से कुछ जानना – यह बहुत ही सूक्ष्म तरीके से होता है। मैंने शिक्षकों को किसी विषय पर कोई निबन्ध लेकर, उसे पढ़ते और चर्चा करते हुए नहीं देखा है। लेकिन समाचार-पत्र में शिक्षा और उसके साथ के विषयों पर क्या छपा है, इस पर काफी चर्चा होती है। वे पढ़ी हुई पुस्तकों को भी साझा करते हैं। इससे भी महत्वपूर्ण है कि वे एक-दूसरे को समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं के लिए कुछ लिख भेजने को प्रोत्साहित करते हैं। यह सच है कि वे शोध-पत्र तैयार करने और जर्नल्स में प्रकाशित लेखों-निबन्धों पर चर्चा करने का काम नहीं करते। ऐसे अन्य लेखों पर चिन्तन भी नहीं होता। लेकिन यह जरूर है कि चर्चा व्यक्तिगत नहीं होती। वह शिक्षा और बच्चे के विकास के इर्द-गिर्द ही होती है।

शिक्षकों का टीम के तौर पर काम करना बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन यह बस यूँ ही नहीं हो जाता। इन प्रक्रियाओं को किसी का नेतृत्व भी चाहिए। एक ऐसा नेतृत्व जो उच्च दर्जे का और दूरदृष्टि लिए हुए हो, जिसके कुछ मूल्य हों और जो समूह-कार्य में विश्वास रखता हो। हमें इन स्कूलों में अच्छा नेतृत्व देने वाले मिल जाते हैं। नेतृत्व का भी एक पैटर्न देखने को मिलता है। मैं श्री शरणबसप्पा नसी (प्रधानाध्यापक, अनापुर स्कूल, यादगीर) की बात यह देखने के लिए करूँगा कि एक अच्छे स्कूल का प्रिंसिपल किस प्रकार काम करता है। मैं उन्हें अपने सुरपुर के दिनों से (2007 से) जानता हूँ ।

नसी कल्पनाशील व्यक्ति हैं। वे जहाँ भी जाते हैं, उसी स्थान को एक बेहतर जगह बनाने के सपने देखने लगते हैं। हमने उन्हें प्रधानाध्यापक, क्लस्टर स्रोत व्यक्ति और फिर से प्रधानाध्यापक के रूप में देखा है। बात कुछ भी हो सकती है लेकिन वे लगातार सोचते रहते हैं कि फलाँ को किस रूप में विकसित किया जा सकता है। अपनी दृष्टि को वे अपने साथियों के साथ साझा करते हैं। वे स्टाफ के सदस्यों और सहायक शिक्षकों को समझाकर अपने दृष्टिकोण तक लाने में वक्‍त लेते हैं। वे कहते हैं कि वे प्रत्येक व्यक्ति के साथ दृष्टि विकसित करने पर काम करते हैं। बहुत बार उनके दोस्त या अन्य शिक्षक उनसे कहते हैं कि वे क्यों किसी एक शिक्षक पर इतनी ऊर्जा लगाते हैं। लेकिन नसी अपनी बात पर अडिग रहते हैं। उनका मानना है कि एक टीम में साझा समझ विकसित करने के लिए आपको प्रत्येक शिक्षक पर समय लगाना होगा। एक जंजीर की ताकत उसकी सबसे कमजोर कड़ी पर निर्भर होती है। कुछ जल्दी समझ जाते हैं और कुछ को बहुत समय लगता है लेकिन नेतृत्व देने वाले के रूप में हमें प्रत्येक व्यक्ति पर काम करना होता है। एक बार यह हो जाता है तो साझा समझ और दृष्टि वाली टीम विकसित करना आसान हो जाता है। उनका कहना है कि टीम की समझ भी स्थाई या एक ही जगह स्थित नहीं रहती। वह गतिशील होती है और आप निरन्तर सम्प्रेषण की प्रक्रिया को रोक नहीं सकते। किसी भी टीम के आगे बढ़ने के लिए दृष्टि बाबत स्पष्टता और उत्तेजना का होना बहुत महत्वपूर्ण है। नेतृत्व करने वाले के पास कल्पनाशीलता होनी चाहिए लेकिन अच्छे नेतृत्वकारी के लिए यह दृष्टि पूरी टीम की दृष्टि होनी चाहिए। और दक्षता इसी में है कि इस कल्पनाशीलता और दृष्टि को टीम के साथ धीरे-धीरे विकसित किया जाए। नसी हर हालात में बहुत ही दक्षता के साथ यह करते हैं और अब तक सफल भी रहे हैं।

योजना बनाना नसी की ताकत है, और उन जैसे अन्य प्रधानाध्यापकों के लिए भी। वे जो भी कल्पना करते हैं, उसकी बहुत ठोस योजना बनाने में सक्षम हैं। नसी की टीम के सदस्य बताते हैं कि वे एक बहुत ही विस्तृत योजना बनाने में सक्षम हैं जो व्यावहारिक भी हो और चुनौतीपूर्ण भी। ऐसा लगता है कि नसी में बारीकी की बातों पर आखिरी कदम तक काम करने की अच्छी पकड़ है। वे अपनी योजनाओं पर हमेशा अपनी टीम के साथ काम करते हैं।

जब मैं नसी से पूछता हूँ कि वे योगदान कैसे कर पाते हैं तो वे जवाब देते हैं, “मैं बहुत बुद्धिमान नहीं हूँ। मैं तो बस परिश्रमी हूँ। मैं तैयारी करता हूँ। मैं पढ़ता हूँ, उन लोगों से बात करता हूँ जो जानते हैं – और स्वयं को तैयार करता हूँ।” वे टीचर लर्निंग सेण्‍टर और जिला संस्थान में नियमित आते हैं। वे लोगों से मिलते हैं, उनसे बात करते हैं और पढ़ते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि वे पढ़े हुए को अन्य लोगों के साथ चर्चा में लाते हैं। वे प्रशिक्षण-कार्यक्रमों में भाग लेते हैं और अपने शिक्षकों को भी भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वे कक्षाएँ लेते हैं। उन की एक नियमित कक्षा है और कोई शिक्षक अनुपस्थित हो तो वे उसकी जगह भी पढ़ाते हैं। इस बात से अपने सहकर्मियों में उनके लिए आदर पनपा है। यह उदाहरण के साथ नेतृत्व प्रदान करने की बात है। वे किताबें पढ़ते हैं और आदतानुसार उनकी विषवस्तु को अपनी टीम के सदस्यों के साथ साझा करते हैं। इसके चलते धीरे-धीरे उनकी टीम के अन्य सदस्य भी किताबें पढ़ने और उन्हें अन्य सदस्यों के साथ साझा करने लग गए हैं।

नसी लोकतांत्रिक हैं। वे अपनी टीम के सदस्यों की हर बात पर सलाह लेते हैं, बड़ी या छोटी, आम-साधारण चाहे महत्वपूर्ण। बैठकें खुली और पारदर्शी होती हैं। नसी के नेतृत्व की सबसे बड़ी बात क्या है? उनके शिक्षक कहते हैं कि वे अकादमिक नेतृत्व प्रदान करते हैं। उनका कहना है कि वे चाहे कुछ भी करें, उनके काम के केन्द्र में अकादमिक बातें ही होती हैं। बच्चों को अच्छी शिक्षा कैसे दी जाए? सीखना बच्चों के लिए रुचिकर और चुनौतीपूर्ण कैसे बनाया जाए? उनके लिए एक बेहतर माहौल कैसे बनाया जाए? शिक्षकों के लिए निरन्तर शिक्षा और विकास की प्रक्रिया कैसे रची जाए? ये सब बातें ही नसी के स्कूल को एक अच्छा, प्रदर्शन के लिहाज से भी बेहतर स्कूल बनाती हैं। सीखने का आधार रटना नहीं है। शिक्षक और विद्यार्थी दोनों ही प्रसन्न और बिना किसी भय के रहते हैं। बच्चों को ही क्यों, हमें भी अच्छा लगता है नसी के स्कूल में होना।

लर्निंग गारण्टी प्रोग्राम में 15 स्कूलों के 3 बार के विजेताओं पर किए गए अध्ययनों की 2006 की रिपोर्ट में भी इसी तरह का निष्कर्ष था। विजेता स्कूलों में कुछ बातें समान थीं, जैसे कि प्रतिबद्ध प्रधानाध्यापक और शिक्षकों के आपस में तथा समुदाय के साथ अच्छे सम्बन्ध होना। अब जब हम उत्तर-पूर्वी कर्नाटक के स्कूलों को देखते हैं, हमें कई अच्छे प्रदर्शन वाले स्कूल मिलते हैं। जब हम इन स्कूलों को यह जानने के लिए बहुत ध्यान से देखते हैं, कि इन स्कूलों की सफलता किस वजह से है, ये दो तत्व निकलकर आते हैं - एक, शिक्षक एक टीम की तरह काम कर रहे हैं और दो, एक अच्छा लोकतांत्रिक नेतृत्वकारी व्यक्ति है जो अकादमिक कार्य को प्रक्रिया के केन्द्र में रखता है और इस टीम को मिलकर काम करने और उसमें मजा लेने के स्तर तक ले जाता है। इन्हीं पहलुओं को ध्यान में रखते हुए हमने प्रो. जलालुद्दीन के शब्दों को नहीं भुलाया है, “एक अच्छा स्कूल बनने में क्या शामिल रहता है? तलाशने का कोई लाभ नहीं, बस काम में लग जाइए।”
  
आभार/ साभार - उमाशंकर पेरियोडी, अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन

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  1. 📌 MAN KI BAAT : पिछले कुछ साल लगातार इस तलाश के साल थे कि स्कूल के बनने में जो कुछ शामिल होता है क्या उसका कोई निश्चित क्रम या व्यवस्था भी होता है? कुल मिलाकर हमें लगता है कि एक अच्छा स्कूल बनने में क्या शामिल रहता है? तलाशने का कोई लाभ नहीं, बस काम में......
    👉 http://www.basicshikshanews.com/2017/10/man-ki-baat.html

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