MAN KI BAAT : अध्यक्ष व पूर्व कैबिनेट सेक्रेटरी टीएसआर सुब्रमण्यम ने भी अपने एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया है कि जब से देश में राइट टू एजुकेशन एक्ट 2009 लागू किया गया है, तब से शिक्षा की गुणवत्ता में 25 प्रतिशत गिरावट आ गई, परन्तु सरकारें..........
🔴 क्या ऐसे ही गढ़ा जाएगा देश का भविष्य
एक परिवार, समाज और देश का विकास इस बात पर निर्भर करता है कि उनके बच्चों को किस प्रकार की शिक्षा मिल रही है। शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के द्वारा सरकार ने देश के 6 से 14 साल तक के प्रत्येक बच्चे को शिक्षा का मौलिक अधिकार तो प्रदान कर दिया, किंतु इस अधिकार के अंतर्गत देश के गांव-गांव में रहने वाले प्रत्येक बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा कैसे मिले? इस ओर कोई ठोस कदम नहीं उठाया। हम सभी जानते हैं कि भारत गांवों का देश है। यहां की अधिकांश आबादी इन्हीं गांवों में ही निवास करती है। इन्हीं गांवों की स्कूली शिक्षा पर काम करने वाली गैर सरकारी संस्था ‘प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन’ द्वारा हाल ही में जारी एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर-2016) के अनुसार, शिक्षा पर भारी खर्च के बाद भी ग्रामीण भारत के सरकारी स्कूलों (जहां कि नि:शुल्क शिक्षा के साथ ही सरकार उन्हें दोपहर का खाना, किताबें, कापियां, छात्रवृत्ति और बैग तक मुफ्त दे रही है) की स्थिति में अपेक्षित सुधार देखने को नहीं मिला है।
देश के 589 ग्रामीण जिलों के 15,630 सरकारी स्कूलों तथा 3 से 16 आयु वर्ग के 562,305 बच्चों पर किए गए सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाशित एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट 2016 बताती है कि देश के सरकारी स्कूलों के कक्षा 3 के 57.5 प्रतिशत बच्चे कक्षा एक स्तर का पाठ नहीं पढ़ सके, 72.3 प्रतिशत बच्चे दो अंकों वाले घटाव के सवाल को हल नहीं कर सके और 68.00 प्रतिशत बच्चे अंग्रेजी के सामान्य शब्द नहीं पढ़ सके। इसी रिपोर्ट के अनुसार, कक्षा 5 के 74.00 प्रतिशत बच्चे साधारण भाग के सवाल हल नहीं कर सके। रिपोर्ट बताती है कि कक्षा 8 के 56.7 प्रतिशत बच्चे 3 अंक का एक अंक से भाग वाले सवाल को हल नहीं कर सके, 26.9 प्रतिशत बच्चे कक्षा 2 के स्तर का पाठ नहीं पढ़ सके और 54.8 प्रतिशत बच्चे अंग्रेजी के सामान्य वाक्य नहीं पढ़ सके। वास्तव में यह रिपोर्ट ग्रामीण भारत की प्राथमिक शिक्षा पर अत्यन्त ही चिंताजनक और झकझोरने वाली तस्वीर पेश करती है, जबकि प्राथमिक शिक्षा ही किसी व्यक्ति के जीवन की वह नींव होती है, जिस पर उसके संपूर्ण जीवन का भविष्य तय होता है। यूनेस्को की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भी भारत में बच्चों को शिक्षा की उपलब्धता आसान हुई है। लेकिन गुणवत्ता का सवाल ज्यों का त्यों बना हुआ है और स्कूल जाने वाले बच्चे भी बुनियादी शिक्षा से वंचित हो रहे हैं।
न्यू एजुकेशन पालिसी का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए पूर्व में बनी कमेटी के अध्यक्ष व पूर्व कैबिनेट सेक्रेटरी टीएसआर सुब्रमण्यम ने भी अपने एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया है कि जब से देश में राइट टू एजुकेशन एक्ट 2009 लागू किया गया है, तब से शिक्षा की गुणवत्ता में 25 प्रतिशत गिरावट आ गई है। इन सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता पर चिंता व्यक्त करते हुए वर्ष 2015 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय को उत्तर प्रदेश सरकार को सरकारी मद से वेतन लेने वाले सभी अधिकारियों व अधिकारियों को अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाने का आदेश तक पारित करना पड़ा था। इस निर्णय के पीछे एक सीधी धारणा थी कि सत्तासीन वर्ग के बच्चे सरकारी स्कूलों मे पढ़ेंगे तो वहां के शैक्षिक स्तर में भी उन्नति होगी। इसके साथ ही सरकारी स्कूलों की शिक्षा के स्तर के संबंध में समय-समय पर मीडिया में दिखाई गईं रिपोट्र्स देश के सरकारी स्कूलों की बहुत ही भयानक तस्वीर प्रस्तुत करती हैं।
शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के साथ ही सरकार को इन बातों पर ध्यान देना चाहिए कि उनके गांव-गांव में चलने वाले सरकारी स्कूलों व निजी स्कूलों की गुणवत्ता कैसे बढ़े? कैसे सरकारी स्कूलों में बच्चों व शिक्षकों की नियमित उपस्थिति सुनिश्चित की जाए? कैसे इन सरकारी शिक्षकों की जवाबदेही तय की जाए? कैसे इन सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को मिलने वाले ज्ञान के स्तर को बढ़ाया जाए? इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को सम्मानजनक रूप से शिक्षा ग्रहण करने के लिए कुर्सी-मेज की व्यवस्था, बिजली, पानी, सफाई व शौचालय आदि की व्यवस्था कैसे की जाए? इन दिशाओं में ठोस कदम उठाने की बजाय सरकार ने शिक्षा के अधिकार अधिनियम-2009 को लागू करके देश के केवल 15 प्रतिशत निजी स्कूलों की कक्षा एक से आठ तक की 25 प्रतिशत सीटों को चंद दुर्बल वर्ग और अलाभित समूह के बच्चों के लिए आरक्षित करके देश के बच्चों के बीच एक भेदभाव की दीवार और भी खड़ी कर दी है। यह हमारे देश के बच्चों का दुर्भाग्य ही है कि आज हम मंगल ग्रह तक तो पहुंच गए हैं, किंतु आज भी हमारे सरकारी स्कूलों में बच्चे भीषण जाड़े और गर्मी के मौसम में टाट पट्िटयों पर बैठकर पढ़ने के लिए मजबूर हैं। इन सरकारी स्कूलों के कमरों में पंखे और बल्ब/ट्यूब लाइट तो लगे हैं, किंतु बिजली कनेक्शन के अभाव में यह मात्र शोपीस बनकर रह गए हैं।
28 नवंबर, 2016 को प्राथमिक और मिडिल स्कूलों की खराब स्थिति पर सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि ऐसे वातावरण में न तो शिक्षा दी जा सकती है और न ली जा सकती है। कोर्ट ने राज्य सरकार से कहा कि अगर वह स्कूल दुरुस्त नहीं कर सकती तो ये खराब शासन का संकेत है। कोर्ट ने इसके साथ ही राज्य सरकार को चार सप्ताह में इलाहाबाद के स्कूलों में मूलभूत सुविधाओं जैसे बिजली, पानी, शौचालय और सफाई आदि की कमी दूर करने का आदेश दिया है। ये आदेश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने गैर सरकारी संगठन हरिजन महिला की ओर से दाखिल अवमानना याचिका पर सुनवाई के बाद जारी किए। विश्व बैंक के भारत में क्षेत्रीय निदेशक ओनो रूल का मानना है कि ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम की सफलता के लिए भारत को प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर विशेष जोर देना चाहिए। दुनिया का इतिहास गवाह है कि विकसित देशों के विकास में वहां की शिक्षा व्यवस्था ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विकसित देशों में नीतिगत रूप से शिक्षा को शीर्ष प्राथमिकता में रखा गया है, पर हमारे देश में शिक्षा पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। 28 जून, 2016 को यूनिसेफ द्वारा 195 देशों में जारी ‘स्टेट ऑफ द वर्ल्ड चिल्ड्रेन रिपोर्ट 2016’ की थीम है- सभी बच्चों के लिए समान अवसर।
हमारा ऐसा मानना है कि कैशलेस स्कूल वाउचर सिस्टम के माध्यम से हम अलाभित समूह व दुर्बल वर्ग के प्रत्येक बच्चों को समान व गुणात्मक शिक्षा प्रदान कर सकते हैं, जोकि आरटीई एक्ट-2009 का उद्देश्य भी है, जिससे इन बच्चों को समाज की मुख्यधारा में सम्मान के साथ सम्मिलित किया जा सकता है और जिसे सरकार की डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर यानी डीबीटी महत्वकांक्षी व भ्रष्टाचार मुक्त योजना के अंतर्गत लागू किया जा सकता है। स्कूल वाउचर वह कैशलेस व्यवस्था है, जिसके माध्यम से देश के कमजोर वर्ग के प्रत्येक बच्चे को एक निश्चित धनराशि का वाउचर उनकी फीस की प्रतिपूर्ति के लिए दिया जाएगा। इस वाउचर को बच्चे अपने फीस के रूप में अपने पसंद के सरकारी/निजी स्कूल में प्रतिमाह जमा कर दिया करेंगे। सरकारी/निजी स्कूल इन सभी वाउचरों को किसी भी राष्ट्रीयकृत बैंक, जिसे सरकार ने भुगतान हेतु अधिकृत किया होगा, में प्रस्तुत करके वाउचर के बराबर की धनराशि प्राप्त कर लेगा। इस व्यवस्था में किसी भी प्रकार की भ्रष्टाचार की कोई संभावना भी नहीं रहेगी, साथ ही इस बाउचर धनराशि को प्राप्त करने के लिए सभी स्कूल अपने स्कूल द्वारा बच्चों को दी जाने वाली गुणवत्ता को भी बढ़ाने के लिए प्रयासरत रहेंगे। लेकिन इसके लिए यह भी जरूरी है कि स्कूल वाउचर देते समय सरकार आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के प्रत्येक बच्चे के आधार कार्ड को उनके ‘स्कूल वाउचर’ से जरूर लिंक करवाए। देश की नीतियों को तय करने वाले लोगों को समझना होगा कि विकास का मतलब केवल जीडीपी में उछाल नहीं है।
देश का असली विकास तो तब होगा, जब समाज के सभी वगोंर् के प्रत्येक बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने का समान अवसर मिले, वो चाहे गांवों में रहता हो, कस्बों में या शहरों में। इसलिए अगर सरकार वास्तव में देश के प्रत्येक बच्चे को गुणात्मक शिक्षा मिलने के उनके संवैधानिक मौलिक अधिकार के प्रति संवेदनशील है तो सबसे पहले उसे प्रत्येक सरकारी स्कूल में शिक्षा का स्तर बढ़ाने के साथ ही प्रत्येक बच्चे की स्कूल में उपस्थिति अनिवार्य बनाने के लिए कैशलेस ‘स्कूल बाउचर सिस्टम’ को सारे देश में लागू करना होगा, नहीं तो आने वाले समय में देश के गांवों और कस्बों में सरकारी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करने वाली बाल व युवा पीढ़ी के साथ ही देश का भविष्य भी अंधकारमय हो सकता है।
-लेख अजय कुमार श्रीवास्तव डीएनए
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📌 MAN KI BAAT : अध्यक्ष व पूर्व कैबिनेट सेक्रेटरी टीएसआर सुब्रमण्यम ने भी अपने एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया है कि जब से देश में राइट टू एजुकेशन एक्ट 2009 लागू किया गया है, तब से शिक्षा की गुणवत्ता में 25 प्रतिशत गिरावट आ गई, परन्तु सरकारें..........
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