CHILDREN : 'आरती’ की रोशनी में कई दीये रौशन, रोगियों के बच्चों को भीख मांगने से रोक पहुंचाया स्कूल, गंगा की निर्मलता को भी रहे सक्रिय
प्रमोद यादव, इलाहाबाद : अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी ए दिल जमाने के लिए। इस गीत का तराना आरती के लिए जैसे जीवन का ध्येय ही बन गया। अपने जीवन को कॅरियर बनाया उनके लिए जिनके जीवन का कोई कॅरियर ही नहीं था। जिनका जीवन अंधेरे में बीत रहा था उन्हें रोशनी दिखायी। मां गंगा की निर्मलता के लिए भी जूझना पड़ा तो पीछे नहीं हटीं। ऐसे ना जाने कितने छोटे-छोटे प्रयास करते वह बड़ी हो गईं, पता ही नहीं चला। यह कहानी है गंगा किनारे छप्परनुमा आवास में रह रही आरती सिंह की है। पिता ज्ञान सिंह लकड़ी बेच कर चार बेटियों और एक बेटे का परिवार चल रहे हैं।
आरती सिंह बताती हैं कि सन 2007 में जब वह हाईस्कूल में थी। तब एक शाम वह पिता के साथ त्रिवेणी बांध पर टहल रही थी। तभी एक लग्जरी कार से कुछ लोग आए और एक बच्ची को गंगा किनारे नाले में फेंककर भाग गए। बच्चे के रोने की आहट सुन वह अपने पिता और पड़ोस के कुछ लोगों के साथ मौके पर पहुंची। देखा कि नाले में एक बच्ची पड़ी है। उसे निकाला और नहलाया धुलाया तो पता चला वह मंद बुद्धि है। तब तक लोग समझ गए उसके परिजन क्यों फेंक गए।
फिलहाल आरती ने उस बच्ची को अपने पास रखा और प्रशासन के सहयोग से इलाज कराया। आजकल वह लखनऊ में है, वहीं उसका इलाज समय-समय पर होता है। इस एक घटना ने आरती के जीवन की धारा ही मोड़ दी। उन्होंने दिव्यांग और कुष्ठ रोगियों की सेवा का प्रण ले लिया। संगम किनारे पांच सौ से अधिक कुष्ठ रोगियों के परिवार पर अपना ध्यान केंद्रित किया। भीख मांगकर जीवनयापन कर रहे कुष्ठरोगियों के जीवनयापन में सुधार के लिए आरती ने दुर्बल कुष्ठ सेवा संस्थान नाम से एनजीओ शुरू किया। इसके जरिए उन्होंने कुष्ठ रोगियों के बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया और भीख मांगने से रोका। बच्चों का स्कूल में एडमीशन कराया। बच्चे जब स्कूल से पढ़ लिखकर निकले तो कहीं न कहीं काम करने लगे। आरती ने अपने छोटे से एनजीओ में दो बच्चों को नौकरी दी। कुष्ठ रोगियों का राशन कार्ड बनवाया तो उन्हें राशन मिलने लगा और कई सरकारी मदद भी दिलवाई व इलाज भी करवाया।
आरती बताती हैं कि प्रतापगढ़ की एक महिला पांच बेटियों के साथ हनुमान मंदिर के पास चाय की दुकान लगाती थी। उसके पति का निधन हो चुका था। कई लोगों से मदद लेकर आरती ने उनकी दो बेटियों की शादी करवाई। इसके अलावा संगम किनारे दर्जनों पौधे लगाए और गंगा सफाई के लिए लगातार सक्रिय रही।
इसी के साथ आरती ने अपनी भी आर्थिक हालत पर ध्यान देना जारी रखा और स्थिति सुधरने लगी। अपनी एक बहन को एमबीए तो दूसरी को पॉलीटेक्निक डिप्लोमा करवा रही हैं। वह मूलत: कौशांबी जिले के पश्चिम शरीरा गांव की रहने वाली हैं। आरती कहती हैं कि जीवन की धारा कल-कल करती नदी की तरह है, कभी नीचे तो कभी ऊपर होती रहती है। इसी में गिरना, फिर उठकर चलने वाला ही सफलता की सीढ़ियां चढ़ता है।
प्रमोद यादव, इलाहाबाद : अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी ए दिल जमाने के लिए। इस गीत का तराना आरती के लिए जैसे जीवन का ध्येय ही बन गया। अपने जीवन को कॅरियर बनाया उनके लिए जिनके जीवन का कोई कॅरियर ही नहीं था। जिनका जीवन अंधेरे में बीत रहा था उन्हें रोशनी दिखायी। मां गंगा की निर्मलता के लिए भी जूझना पड़ा तो पीछे नहीं हटीं। ऐसे ना जाने कितने छोटे-छोटे प्रयास करते वह बड़ी हो गईं, पता ही नहीं चला। यह कहानी है गंगा किनारे छप्परनुमा आवास में रह रही आरती सिंह की है। पिता ज्ञान सिंह लकड़ी बेच कर चार बेटियों और एक बेटे का परिवार चल रहे हैं।1आरती सिंह बताती हैं कि सन 2007 में जब वह हाईस्कूल में थी। तब एक शाम वह पिता के साथ त्रिवेणी बांध पर टहल रही थी। तभी एक लग्जरी कार से कुछ लोग आए और एक बच्ची को गंगा किनारे नाले में फेंककर भाग गए। बच्चे के रोने की आहट सुन वह अपने पिता और पड़ोस के कुछ लोगों के साथ मौके पर पहुंची। देखा कि नाले में एक बच्ची पड़ी है। उसे निकाला और नहलाया धुलाया तो पता चला वह मंद बुद्धि है। तब तक लोग समझ गए उसके परिजन क्यों फेंक गए। फिलहाल आरती ने उस बच्ची को अपने पास रखा और प्रशासन के सहयोग से इलाज कराया। आजकल वह लखनऊ में है, वहीं उसका इलाज समय-समय पर होता है। इस एक घटना ने आरती के जीवन की धारा ही मोड़ दी। उन्होंने दिव्यांग और कुष्ठ रोगियों की सेवा का प्रण ले लिया। संगम किनारे पांच सौ से अधिक कुष्ठ रोगियों के परिवार पर अपना ध्यान केंद्रित किया। भीख मांगकर जीवनयापन कर रहे कुष्ठरोगियों के जीवनयापन में सुधार के लिए आरती ने दुर्बल कुष्ठ सेवा संस्थान नाम से एनजीओ शुरू किया। इसके जरिए उन्होंने कुष्ठ रोगियों के बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया और भीख मांगने से रोका। बच्चों का स्कूल में एडमीशन कराया। बच्चे जब स्कूल से पढ़ लिखकर निकले तो कहीं न कहीं काम करने लगे। आरती ने अपने छोटे से एनजीओ में दो बच्चों को नौकरी दी। कुष्ठ रोगियों का राशन कार्ड बनवाया तो उन्हें राशन मिलने लगा और कई सरकारी मदद भी दिलवाई व इलाज भी करवाया।
आरती बताती हैं कि प्रतापगढ़ की एक महिला पांच बेटियों के साथ हनुमान मंदिर के पास चाय की दुकान लगाती थी। उसके पति का निधन हो चुका था। कई लोगों से मदद लेकर आरती ने उनकी दो बेटियों की शादी करवाई। इसके अलावा संगम किनारे दर्जनों पौधे लगाए और गंगा सफाई के लिए लगातार सक्रिय रही।
इसी के साथ आरती ने अपनी भी आर्थिक हालत पर ध्यान देना जारी रखा और स्थिति सुधरने लगी। अपनी एक बहन को एमबीए तो दूसरी को पॉलीटेक्निक डिप्लोमा करवा रही हैं। वह मूलत: कौशांबी जिले के पश्चिम शरीरा गांव की रहने वाली हैं। आरती कहती हैं कि जीवन की धारा कल-कल करती नदी की तरह है, कभी नीचे तो कभी ऊपर होती रहती है। इसी में गिरना, फिर उठकर चलने वाला ही सफलता की सीढ़ियां चढ़ता है।
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