MAN KI BAAT : आज हिन्दी दिवस पर सोशल मीडिया और हिन्दी को छोड़कर चर्चा की जाए तो सब कुछ अधूरा सा लगता है क्योंकि सोशल मीडिया ने सार्वजनिक अभिव्यक्ति और एक बड़े समुदाय तक बिना रोक-टोक अपनी बात पहुंचाना संभव बनाकर करोड़ों लोगों को एक नई ताकत.....
🔴 हिंदी दिवस पर विशेष : सोशल मीडिया ने सार्वजनिक अभिव्यक्ति और एक बड़े समुदाय तक बिना रोक-टोक अपनी बात पहुंचाना संभव बनाकर करोड़ों लोगों को एक नई ताकत दी है ।
आजकल जब लगभग हर चीज को सोशल मीडिया में उसकी उपस्थिति से नापा जा रहा है। हर संस्था, व्यक्ति, सरकार, कंपनी, साहित्यकर्मी से समाजकर्मी तक और नेता से अभिनेता तक को सोशल मीडिया में उसके वजन, प्रभाव और लोकप्रियता की कसौटी पर तौला जा रहा है। यह स्वाभाविक है कि इस नई तकनीकी-सामाजिक शक्ति और भाषा के संबंध को भी हम समझने की कोशिश करें। कुछ बुनियादी बातें शुरू में। यह सोशल मीडिया भी अंतत: एक तकनीकी चीज है। हर तकनीकी आविष्कार निरपेक्ष होता है। यानी हर तरह के काम के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, चाहे वह अच्छा हो या बुरा। इसलिए हर तकनीकी आविष्कार की तरह इसके दुरुपयोग पर हमें ज्यादा आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हर वैज्ञानिक या तकनीकी आविष्कार, यदि वह एक व्यापक समाज के लिए रोचक या उपयोगी है, अपनी एक नई जगह बना लेता है। और जब यह नई तकनीक संवाद और संप्रेषण से जुड़ी हो तो स्वाभाविक है कि वह अपनी विशिष्टताओं के साथ संवाद और संप्रेषण के नए-पुराने तरीकों, उपकरणों और तकनीकों को कुछ विस्थापित करके ही अपनी जगह बनाती है।
जब प्रिंट आया तो वाचिक संवाद की सर्वव्याप्तता घटी। जब रेडियो आया तो उसने लिखित और मुद्रित माध्यम को थोड़ा खिसका कर अपनी जगह बनाई। जब टेलीविजन आया तो बहुत से लोगों ने मुद्रित माध्यम के अवसान की घोषणा कर दी। उसका अवसान तो नहीं हुआ, लेकिन उसके विकास, प्रभाव और राजस्व पर सीधा प्रभाव पड़ा और आज भी पड़ता ही जा रहा है। अब सोशल मीडिया नाम के इस नए प्राणी ने संचार माध्यमों की दुनिया को फिर बड़े बुनियादी ढंग से बदल दिया है। यह प्रक्रिया जारी है और कहां जाकर स्थिर होगी, यह कोई नहीं जानता। लेकिन इन नए संप्रेषण मंचों और पुरानों में एक बुनियादी अंतर है। अखबार, पुस्तकों, पत्रिकाओं, रेडियो और टीवी से अलग इस माध्यम की संवाद क्षमता इसे शायद इन सबसे ज्यादा निजी, आकर्षक, अंतरंग और इसलिए शक्तिशाली बनाती है। दूसरे माध्यम एक दिशात्मक थे। यह नया माध्यम अंत:क्रियात्मक है, आपसी संवाद संभव बनाता है। अब जब यह डेस्कटॉप कंप्यूटरों, लैपटॉपों से निकल कर मोबाइल फोन पर आ गया है तो सर्वव्यापी, सर्वसमय, सर्वत्र और सर्वसुलभ हो गया है। इसने राजनीतिक रणनीतियों, विमर्श और चुनावी नतीजों में अपनी जगह बनाई है। कंपनियों और उनके उत्पादों, सेवाओं के प्रचार-प्रसार, उपभोग, मार्केटिंग और ग्राहकों तक पहुंचने, उन्हें छूने के तौर-तरीकों को बदला है। व्यापार, उद्योग, शासन, मनोरंजन, राजनीति और मीडिया जगत के लोगों के लिए तो ये मंच महत्वपूर्ण है ही।
दरअसल भाषा के दो प्रमुख आयाम हैं। एक, उसका शुद्ध भाषिक आयाम जिसमें उसके शब्दों, वाक्य रचना, व्याकरण, शब्दकोश आदि पर ध्यान रहता है। दूसरा, भाषा का सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक संदर्भ जिसमें उसके इन संदर्भो में प्रयोग, परिवर्तनों, अर्थो, प्रभावों आदि पर ध्यान होता है। आज संसार की लगभग हर भाषा पर सोशल मीडिया के प्रभाव को महसूस किया जा रहा है, उसे समझने की कोशिश हो रही है और विमर्श हो रहा है। इस नए माध्यम ने हर नए माध्यम की तरह हर भाषा के प्रयोग के तौर-तरीकों, शब्दकोश, शैली, शुद्धता, व्याकरण और वाक्य रचना को प्रभावित किया है।
यह असर लिखित ही नहीं, बोलने वाली भाषा पर भी दिख रहा है। जब ईमेल आया तो कहा गया कि पत्र लिखना ही समाप्त हो जाएगा। वह तो नहीं हुआ, लेकिन हाथ या टाइपराइटर से पत्र लिखने का चलन जरूर खत्म हो गया। पर बात यहीं तक नहीं है। अब एसएमएस, ट्विटर, फेसबुक और वाट्सएप ने बहुत से लोगों के लिए ईमेल को भी अनावश्यक और अप्रासंगिक बना दिया है। सोशल मीडिया ने अपनी एक नई भाषा गढ़ ली है। भाषा और शब्दों के सौंदर्य, मर्यादा, गरिमा और स्वरूप की चिंता करने वाले सभी इस नई भाषा के प्रभाव और भविष्य पर तो चितिंत हैं ही, इस पर भी हैं कि इस खिचड़ी, विकृत, कई बार अटपटी भाषा की खुराक पर पल-बढ़ रही किशोर और युवा पीढ़ी वयस्क होने पर किसी भी एक भाषा में सशक्त और प्रभावी संप्रेषण के योग्य बचेगी या नहीं।
यह खतरा इसलिए भी गंभीर होता जा रहा है कि नई पीढ़ियां पाठ्य-पुस्तकों के अलावा कुछ भी गंभीर, स्वस्थ, विचारपूर्ण लेखन, साहित्य, वैचारिक पठन से लगातार दूर जा रही हैं। अच्छी, असरदार भाषा अच्छा पढ़ने से ही आती है। अच्छी भाषा के बिना गहरा, गंभीर विचार, विमर्श, चिंतन और ज्ञान-निर्माण संभव नहीं। वे पीढ़ियां जो विद्यालयों की मजबूरन पढ़ाई के बाहर केवल या अधिकांशत: यह खिचड़ी और भ्रष्ट भाषा ही पढ़ लिख रही हैं उसकी बौद्धिक क्षमताएं ठीक से विकसित होंगी कि नहीं? अगर हमारे भावी नागरिक गंभीर चिंतन और विमर्श में सक्षम ही नहीं होंगे तो उसका उनके विकास के अवसरों और व्यापक सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, बौद्धिक, राजनीतिक विकास पर कैसा असर पड़ेगा, इस पर अभी हमारे बौद्धिक समाज, सरकार और नीति-निर्माताओं का ध्यान बहुत कम गया है।
सोशल मीडिया का असर बस नकारात्मक ही नहीं है। ट्विटर जैसे मंचों की शब्दसीमा ने अपनी बात को चुस्त और कम से कम शब्दों में कहने के अभ्यास को संभव बनाया है। सोशल मीडिया ने सार्वजनिक अभिव्यक्ति और एक बड़े समुदाय तक निडर और बिना रोक-टोक और नियंत्रण के अपनी बात, अपनी सोच और अनुभव पहुंचाना संभव बनाकर करोड़ों लोगों को एक नई ताकत, छोटी बड़ी बहसों में भागीदारी का नया स्वाद और हिम्मत दी है। इस नई ताकत ने सरकारों और शासकों को ज्यादा पारदर्शी, संवादमुखी और जवाबदेह बनाया है, जनता के मन और नब्ज को जानने का नया माध्यम दिया है। सोशल मीडिया की ताकत ने सरकारों को अपने फैसलों, नीतियों और व्यवहारों को बदलने पर भी मजबूर किया है। पर क्या इस मीडिया ने लोक-विमर्श को ज्यादा गंभीर, गहरा, व्यापक, उदार बनाया है? क्या जब करोड़ों लोग एक साथ इतना लिख- बोल रहे हैं तो इन मंचों पर सार्वजनिक विमर्श की गुणवत्ता बढ़ी है, स्तर बेहतर हुआ है? इस पर दो टूक राय देना संभव नहीं, क्योंकि संसार में कुछ भी एकांगी, एकदिशात्मक नहीं होता।
-लेखक राहुल देव
(लेखक भारतीय भाषाओं के संवर्धन के लिए सक्रिय सम्यक न्यास के ट्रस्टी एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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📌 MAN KI BAAT : आज हिन्दी दिवस पर सोशल मीडिया और हिन्दी को छोड़कर चर्चा की जाए तो सब कुछ अधूरा सा लगता है क्योंकि सोशल मीडिया ने सार्वजनिक अभिव्यक्ति और एक बड़े समुदाय तक बिना रोक-टोक अपनी बात पहुंचाना संभव बनाकर करोड़ों लोगों को एक नई ताकत.....
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