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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

MAN KI BAAT : हमारी शिक्षा कैसी हो पर जब भी चर्चा होती है तो सरकार पर प्रश्न उठना लाजमी है, यह संतोष की बात है कि शिक्षा के प्रश्न को लेकर वर्तमान सरकार संजीदगी से विचार करना चाहती है, वहीं यह कहने में जरा भी हिचक नहीं कि एक समर्थ भारत के निर्माण के लिए शिक्षा को बंधे बंधाए ढांचे या लीक से हट कर सोचने की...........

मन की बात : हमारी शिक्षा कैसी हो पर जब भी चर्चा होती है तो सरकार पर प्रश्न उठना लाजमी है, यह संतोष की बात है कि शिक्षा के प्रश्न को लेकर वर्तमान सरकार संजीदगी से विचार करना चाहती है, वहीं यह कहने में जरा भी हिचक नहीं कि एक समर्थ भारत के निर्माण के लिए शिक्षा को बंधे बंधाए ढांचे या लीक से हट कर सोचने की...........

यह संतोष की बात है कि शिक्षा के प्रश्न को लेकर वर्तमान सरकार संजीदगी से विचार करना चाहती है। प्रस्तावित शिक्षा नीति का दस्तावेज सार्वजनिक कर दिया गया है। उस पर सबसे सुझाव भी मांगे गए हैं। बहरहाल, शिक्षा नीति बनाते हुए हमें व्यापक सरोकारों पर भी विचार करना होगा। इस दृष्टि से देखें तो यह स्पष्ट होता है कि जहां मनुष्य स्वभाव से एक बहु आयामी प्राणी है।

हमारी शिक्षा अधिकांशत: बौद्धिक कार्य कलाप पर बल देती हुई एकांगी हुई जा रही है। मनुष्य सिर्फ बुद्धिजीवी न होकर ऐसा सामाजिक प्राणी है, जो बुद्धि के साथ भावनाएं भी रखता है। साथ ही, वह एक भौतिक-शारीरिक रचना भी है, जिसकी अपनी जरूरतें और कार्य हैं। शिक्षा को सार्थक बनाने के लिए इन तीनों को ही संबोधित करना होगा। वास्तव में ज्ञान, भाव और कर्म ये तीनों मिल कर हमारी व्यावहारिक दुनिया को रचते हैं। किसी व्यक्ति के लिए अच्छा जीवन इन तीनों के संतुलन से ही संभव हो पाता है। हमारा मानसिक स्वास्य, भावनात्मक स्वास्य और शारीरिक स्वास्य तीनों जब संतोषप्रद होंगे, तभी हमारा ठीक तरह से विकास हो सकेगा।

कहना न होगा कि वर्तमान शिक्षा बुद्धि तत्व या मानसिक विकास पर अतिरिक्त बल देती आ रही है। समस्त औपचारिक शिक्षा इसी की ओर उन्मुख है। रटने और स्मरण पर विशेष बल होता है और पुस्तक, कक्षा-अध्यापन और परीक्षा समानांतर चलते हुए इसी की कवायद करते हैं। इनमें किसी तरह की सर्जनात्मकता की गुंजाइश बहुत थोड़ी होती है।

परिणाम भारत में शिक्षित बेरोजगारों की बढ़ती संख्या के रूप में देखा जा सकता है, जो समाज के लिए भार बनती जा रही है। आज विभिन्न उपकरणों के चलते खाली समय का अवसर बढ़ता जा रहा है। इसका सीधा असर व्यक्ति को उपलब्ध समय की मात्रा और उसके वितरण पर पड़ रहा है। खाली समय में लोग वीडियो गेम, आईपैड, आईपॉड, इंटरनेट द्वारा चैटिंग तथा अन्य काम करना चाहते हैं। ऐसा करते हुए हम एक प्रतियथार्थ (काउंटर रिएलिटी) बनाते हैं, जिसका ओर छोर नहीं होता। अब तमाम कार्य ईआधार पर ‘‘ऑनलाइन’ हो रहे हैं। एक कृत्रिम दुनिया रची जा रही है। जो नया विश्व उभर रहा है, तीव्र वेग से संचालित प्रचुर मात्रा में सूचनाओं के प्रवाह पर निर्भर है।

यह स्मरणीय है कि शहरों में डिजिटल दुनिया के साथ अब बच्चे का रिश्ता बहुत जल्द स्थापित होने लगा है। स्कूल जाने के पहले वह लिखना न जानते हुए भी बहुत सा ज्ञान अर्जित कर चुका होता है। अनुभव और शब्द ज्ञान की दृष्टि वह अब अधिक परिपक्व हो रहा है। उसकी तैयारी और अपेक्षाएं पहले की तुलना में भिन्न हैं। सीखने की शैली भी बदल रही है। यह एक बड़ा बदलाव है, जिसके लिए अधिकांश स्कूल तैयार नहीं हैं। इसी के साथ जुड़ा प्रश्न शिक्षा के भार का है, जिसकी ओर इशारा किया गया है पर ठोस कदम उठाने की दिशा में कोई चेष्टा नहीं दिखती।यदि बुद्धि, भावना और कर्म की त्रयी मुख्य है तो शिक्षा को भी इन तीनों को ध्यान में रखना होगा। केवल बुद्धि तत्व को, ज्ञान पर बल दे कर, सर्वस्व मान लेना नुकसानदेह होगा। आज आवश्यकता है कि हम शिक्षा के क्रम में ऐसे नागरिकों का निर्माण करें जो अपने समाज के निकट हों और उसके लिए कुछ करने को उद्यत हों।

यह भी सोचना जरूरी है कि मानव की आन्तरिक क्षमता में बड़ा वैविध्य पाया जाता है। कोई ज्ञान में, तो कोई नृत्य में, कोई संगीत में, कोई क्रि केट में अच्छा हो सकता है। वस्तुत: योग्यता और सामर्य की आज की समझ इसकी बहुलता को स्वीकार करती है। अब एक बुद्धि की नहीं कई तरह की बुद्धियों की र्चचा की जाती है। इस व्यापक विविधता को देखते हुए हमें छात्रों को उनकी विशिष्ट योग्यता के अनुकूल शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। सबको एक ही डंडे से हांकना सिर्फ प्रतिभा को कुंठित करने वाला होता है, और कुछ एक छात्रों को छोड़ सबको औसत की श्रेणी में पहुंचा देने वाला होता है।

अत: संभावनाओं को आकार देने और बच्चों के सर्वतोमुखी विकास के लिए जरूरी है कि शारीरिक शिक्षा तथा नृत्य-संगीत और अन्य कलाओं की शिक्षा का सम्मान किया जाए और उन्हें स्कूली शिक्षा की मुख्यधारा में लाया जाए। इनके प्रभावी ढंग से समावेश से भावनात्मक उथल-पुथल पर भी अंकुश लगेगा, उनमें सुरुचि भी विकसित होगी, वे आत्मनिर्भर भी बन सकेंगे और भारत की विरासत को भी संभाल सकेंगे। एक समर्थ भारत के निर्माण के लिए शिक्षा को बंधे बंधाए ढांचे या लीक से हट कर सोचने की आवश्यकता है।
    -द्वारा गिरीश्वर मिश्र जी

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  1. 📌 MAN KI BAAT : हमारी शिक्षा कैसी हो पर जब भी चर्चा होती है तो सरकार पर प्रश्न उठना लाजमी है, यह संतोष की बात है कि शिक्षा के प्रश्न को लेकर वर्तमान सरकार संजीदगी से विचार करना चाहती है, वहीं यह कहने में जरा भी हिचक नहीं कि एक समर्थ भारत के निर्माण के लिए शिक्षा को बंधे बंधाए ढांचे या लीक से हट कर सोचने की...........
    👉 http://www.basicshikshanews.com/2016/08/man-ki-baat_21.html

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