मन की बात : स्वयं करके समेकित और समग्र रूप से सीखना की प्रक्रिया में बच्चों को यह हकीकत समझना होगा और इसे बदलने के लिए उन्हें सृजनशीलता से, जिम्मेदारी से और एक साथ मिलकर काम करना होगा, हमारी शिक्षा व्यवस्था, मोटे तौर पर व्यवहारिक रूप से निष्क्रिय और प्रतिबद्धता......
🌑 महाराष्ट्र के सेवाग्राम में स्थित आनन्द निकेतन स्कूल का अनुभव
यह पहली बार था कि हमने छठी व सातवीं कक्षाओं के हर एक विद्यार्थी के लिए अलग-अलग क्यारियों में प्याज को एकल फसल की तरह से लगाने की योजना बनाई थी। प्याज के रोपे तो तैयार थे लेकिन क्यारियों को तैयार किया जाना था। हमारी बागवानी के शिक्षक प्याज बोने की तैयारी के कामों में विद्यार्थियों का मार्गदर्शन कर रहे थे। हालाँकि मैं प्रधानाध्यापिका हूँ, लेकिन मेरे लिए भी ये चीजें उतनी ही नई थीं जितनी मेरे विद्यार्थियों के लिए। मैं भी इससे जुड़ी बातों को जानने के लिए और बच्चों के समूह में शामिल होने के लिए उत्सुक थी। जब मैं बगीचे मैं पहुँची तो मैंने देखा कि बच्चों को इस काम में जमकर मजा आ रहा था। उन्होंने मिट्टी को ढीला कर दिया था और क्यारियों को पानी से भर दिया गया था। वे मिट्टी और पानी को अपने पैरों से मसल रहे थे ताकि वह कीचड़ बन जाए। इस प्रक्रिया का वे भरपूर आनन्द ले रहे थे। उन्हें इस बात की भी कतई परवाह नहीं थी कि उनके कपड़ों पर भी कीचड़ लग रहा था। आखिरकार, तैयार किए गए प्याज के रोपों को यहाँ प्रतिरोपित कर दिया गया। पिछले साल स्कूल में प्याज की अच्छी पैदावार हुई थी। जैविक ढंग से उगाए गए इन प्याजों का स्कूल की किचन में उपयोग किया गया था और कुछ प्याज शिक्षकों को बेच दिए गए थे।
यह सीखना आसान था कि प्याज की फसल में सामान्य तने का संशोधित रूप गाँठ (बल्ब) बन जाता है। फसल के बढ़ने के दौरान उसकी यह गाँठ जमीन के भीतर ही रहती है। इसलिए जब उन्होंने हल्दी, मूली, गाजर और चुकन्दर की फसलें लगाईं तो उनके लिए तने, जड़ आदि के रूपान्तरण के अन्य उदाहरणों को समझना आसान रहा। स्कूल की पाठ्यचर्या के अनिवार्य पहलू के रूप में, मानसून और रबी की ऋतुओं में, सब्जियाँ उगाने के कार्य ने विद्यार्थियों के लिए सभी स्तरों पर अलग तरह से सीखने की एक विराट सम्भावना के द्वार खोल दिए। इनमें से कुछ सीखें इस प्रकार हैं:
1. विभिन्न प्रकार के पौधों का अवलोकन करना, चाहे वे फसलें हों या खरपतवार। इसका अर्थ था पत्तियों का, जड़ों के तंत्रों का, तनों और शाखाओं के बनने का, फूल आने का, फल आने का और बीजों का अवलोकन करना। इससे विद्यार्थियों को पौधों के समूहीकरण, उपयोग और उनको होने वाले खतरों के बारे में जानने में मदद मिली।
2. अलग-अलग प्रकार की सब्जियों जैसे फलों वाली सब्जियों, पत्तेदार सब्जियों और कन्दों के लिए जमीन तैयार करना सीखना तथा बीज बोने के तरीके व अन्य बारीकियों को सीखना।
3. मिट्टी के उपजाऊपन के महत्व को समझना तथा मिट्टी को जीवन्त बनाए रखने में कीड़ों, केंचुओं, फफूँद और जीवाणुओं के महत्व को समझना। खेती में सामाजिक कीड़ों जैसे चींटियों, दीमकों और मधुमक्खियों के महत्व को समझना।
4. कम्पोस्ट खाद और सड़ी हुई वनस्पति से ढाँकने (मल्चिंग) जैसे विभिन्न तरीकों के माध्यम से जैविक पदार्थ की री-सायक्लिंग का महत्व समझना। साथ ही गाय के गोबर, तथा अतिरिक्त जैविक पोषण का प्रयोग करते हुए कम्पोस्ट खाद तैयार करना सीखना।
5. फसलों को नुकसान पहुँचाने वाले कीटों, लाभकारी कीड़ों के जीवन चक्रों का अवलोकन करना और उन्हें समझना तथा कीट प्रतिरोधी छिड़काव करना।
6. नियमित रूप से निराई करने, मिट्टी की खुदाई करने, पानी देने, खाद डालने, छिड़काव करने इत्यादि के द्वारा वनस्पतियों वाले भूखण्ड/ उद्यानों की देखरेख करना। हँसिया, काँटे, कुदाली/ फावड़े जैसे विभिन्न उपकरणों का उपयोग करना सीखना।
7. प्रकाश संश्लेषण, वाष्पोत्सर्जन, परागण जैसी वैज्ञानिक प्रक्रियाओं में धूप की भूमिका को समझना।
8. सब्जियाँ उगाने के लिए जमीन के टुकड़ों को मापना और तैयार करना। किसी भूखण्ड पर जोड़ और गुणन का इस्तेमाल करके पौधों की संख्या की गणना करना/ आकलन करना। जितनी भूमि पर जुताई हो रही है, उसकी परिमाप को, क्षेत्रफल को मापना, खुले क्षेत्र को मापना, नक्शे बनाना, उपज को तौलना, उपज का रिकार्ड रखना, सब्जियाँ बेचना इत्यादि।
9. मौसम का रिकार्ड रखना। उदाहरण के लिए न्यूनतम और अधिकतम तापमानों, आर्द्रता, वर्षा को मापना तथा उन्हें लेखाचित्र के रूप में प्रस्तुत करना।
10. पौधा घरों में पौधों को बड़ा करने की तकनीकें जानना। गड्ढ़े खोदना और पौधे लगाना। पौधों को पानी देने के लिए ड्रिप सिंचाई (बूँद-बूँद पानी टपकने के द्वारा सिंचाई) की सरल विधि का उपयोग करना। सिंचाई के तरीकों को तुलनात्मक रूप से समझना।
11. पानी की कमी तथा पानी के अतिरेक से जुड़े संकटों को समझना।
12. भू-जल के अत्यधिक दोहन, पानी की असमान उपलब्धता, बाजार की जरूरतों के मुताबिक लगाई जाने वाली फसलों के कारण होने वाले पानी के अतिशय उपयोग, एक ही फसल को बार-बार लगाया जाना, स्थानीय पोषण की अस्थायी प्रकृति जैसी व्यापक समस्याओं को समझना।
13. लैंगिक पहलुओं को समझना। उदाहरण के लिए महिलाओं के लिए पानी के अभाव के क्या मायने होते हैं, पानी को घरों तक लाने का काम पारम्परिक रूप से किसे सौंपा जाता है।
14. अपने भूखण्ड की खुद देखरेख करना सीखना और अच्छा प्रदर्शन करने के लिए दूसरे विद्यार्थियों के साथ सहयोग करना सीखना। सामूहिक रूप से उल्लिखित नियमों के आधार पर काम को और कमाए गए पैसों को बाँटना। कुछ समाजों में आज भी इस्तेमाल की जाने वाली पारम्परिक सहकारी पद्धतियों के विचार की समझ हासिल करना।
15. मिट्टी की गुणवत्ता में कमी, कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग के कारण होने वाले प्रदूषण, खाद्य और पोषण-सम्बन्धी सुरक्षा, खाद्य पदार्थों की जैव विविधता आदि से जुड़ी ज्यादा बड़ी समस्याओं को अतिरिक्त पढ़ाई करके समझना।
16. बाजार से जुड़ी व्यापक समस्याओं को समझना। अपने उत्पादों के लिए उचित कीमतों के न मिलने से किसानों के साथ होने वाले अन्याय को समझना। यह समझना कि अनुचित आयात-निर्यात नीतियों तथा बीजों, उर्वरकों और कीटनाशकों के लिए किसानों द्वारा दिए जाने वाले मूल्य से उनकी आर्थिक स्थिति पर बेहद प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अखबारों, किताबों और वेबसाइटों से ली गई खबरें और लेख तथा विशेषज्ञों के साथ होने वाला संवाद विद्यार्थियों के सीखने को समृद्ध बना सकता है।
17. फसलों की योजना बनाने, कुछ फसलों के लिए बहुत अधिक पानी की जरूरत होने के कारण भू-जल के अत्यधिक निष्कर्षण तथा जमीन के खारेपन से जुड़ी व्यापक समस्याओं को समझना।
18. अन्तिम पर सबसे जरूरी बात, यह सीख प्राप्त करना कि काम करना हमारे जीवित रहने के लिए बेहद आवश्यक है। इसलिए काम का और उसे करने वाले व्यक्ति का हमेशा सम्मान होना चाहिए।
इस सूची को उम्र तथा स्तर के मुताबिक और विस्तृत किया जा सकता है। इसलिए इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि कृषि को नियमित स्कूली गतिविधि की तरह से किए जाने पर वह वर्गीकरण की सीमाओं से बँधी पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से हासिल की जाने वाली अपेक्षित समझ के अलावा, बच्चों को बहुत से पहलुओं की एकीकृत, समृद्ध और ‘वास्तविक जीवन से जुड़ी’ समझ और योग्यताओं को विकसित करने का द्वार खोलती है। इससे शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच ऊँच-नीच वाला सत्तावादी सम्बन्ध समाप्त हो जाता है क्योंकि दोनों ही एक साथ मिलकर खेतों में काम करते हैं। इसके अलावा खाना बनाना, वस्त्रकला (कपड़ा बनाना) और ऊर्जा के क्षेत्रों में कुछ और कार्य-आधारित गतिविधियाँ तैयार की कई हैं जिनमें सीखने और व्यावहारिक समझ को विकसित करने की सम्भावना है। स्कूल की स्थिति और जरूरतों के मुताबिक ऐसी कई और गतिविधियाँ तैयार की जा सकती हैं।
काम करना: समग्र रूप से सीखने का माध्यम
इस बात को दर्शाना बहुत जरूरी है कि शिक्षा में काम के समावेश को सिर्फ व्यावसायिक शिक्षा की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। सीखने में इसकी भूमिका कहीं अधिक है। इसे समेकित तथा समग्र रूप से सीखने के साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। जरूरत है ऐसे सीखने को सुगम बनाने के लिए शिक्षक की सोच, प्रेरणा और क्षमता के विकास की। क्योंकि इस तरह से सिखाने को सुगम बनाने के लिए पारम्परिक ढंग से विषयों को सिखाने के तरीके की तुलना में कहीं अधिक पेशेवर लगन की जरूरत होती है। सरल और बुनियादी कलाएँ तथा काम कहीं अधिक स्पष्ट देखे जा सकने वाले और रचनात्मक कल्पना के अनुसार ढाले जा सकने वाले होते हैं और इस तरह सीखने के लिए एक ठोस सन्दर्भ प्रदान करते हैं। लेकिन सभी चीजों को उत्पादक कार्य के साथ आसानी से एकीकृत नहीं किया जा सकता। पर्यावरण और स्थानीय समाज से जुड़ी कुछ अच्छी गतिविधियों के संयोजन से सीखने के लिए बहुत समृद्ध परिस्थिति निर्मित की जा सकती हैं। स्कूल को सहभागिता के प्रतिरूप पर चलाना ही अपने आप में सीखने का एक अच्छा माध्यम है।
स्कूल की बिलकुल शुरुआत में हमने तय किया था कि शारीरिक कामों को स्कूली शिक्षा के अत्यावश्यक घटक के रूप में शामिल करेंगे। यह निर्णय हमने इस विश्वास के साथ लिया था कि करके सीखने के इस तरीके में संज्ञानात्मक, शारीरिक, सामाजिक और भावनात्मक विकास की अत्यधिक सम्भावनाएँ होती हैं। इसलिए हमारी यह धारणा थी कि व्यवस्थित ढंग से और वैज्ञानिक रूप से तराशा गया सीखने का अनुभव निश्चित रूप से समग्र व्यक्तित्व और जिम्मेदार नागरिक के निर्माण में निश्चित मदद करेगा।
कई अन्य लोगों की भाँति हम भी स्कूली शिक्षा की अत्यधिक किताबी और प्रतिस्पर्धात्मक प्रकृति के बारे में चिन्तित थे, जो बच्चों की वैयक्तिक क्षमताओं और सम्भावनाओं के अन्तरों का निरादर करती है। इसी प्रकार हमारा समाज शारीरिक काम करने वाले सभी लोगों के साथ जो भेदभाव तथा निरादर वाला व्यवहार करता है, उससे हम लोग व्यथित थे। ये हमारी कुछ चिन्ताएँ थीं -
वह क्या चीज है जिसकी वजह से हम उत्पादक व शारीरिक काम तथा बौद्धिक काम के बीच अन्तर करते हैं?
शारीरिक श्रम करने वालों को इतनी कम मजदूरी क्यों मिलती है?
इस स्थिति के लिए क्या सिर्फ माँग और आपूर्ति जिम्मेदार है या इसका सम्बन्ध हमारे विकृत मूल्यों से है जिसने कुछ लोगों के हित में जानबूझकर कुछ तरह के कामों और प्रयासों का मूल्य कम कर दिया है?
क्या यह सत्य है कि उत्पादक कार्य में बौद्धिक पक्ष की कमी होती है?
सफलता के लिए और मनुष्य की सभी सृजनशील योग्यताओं और क्षमताओं को बाहर लाने के लिए क्या सिर्फ किताबी ज्ञान ही पर्याप्त होता है?
क्या बुद्धि के विकास में शारीरिक कार्यों की कोई भूमिका होती है?
हमारा मानना है कि शिक्षकों और विद्यार्थियों, दोनों के लिए इन प्रश्नों पर गहराई से विचार करना जरूरी है। ऐसी चर्चाओं में माता-पिता को शामिल करने से और अधिक प्रभावी ढंग से काम करने में मदद मिल सकती है।
शिक्षा का उद्देश्य अस्पष्ट होने से हम एक अव्यवस्थित समाज पैदा कर रहे हैं
शिक्षा का सरोकार सिर्फ संज्ञानात्मक आयामों से ही नहीं है, इसका सरोकार समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और आर्थिक आयामों से भी है। इसका उद्देश्य होता है कि किसी व्यक्ति को उसके व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के लिए समर्थ बनाना और एक न्यायसंगत, निष्पक्ष और अहिंसात्मक समाज बनाने के लिए व्यक्तियों की मदद करना। गाँधी जी ने कहा था कि शिक्षा का उद्देश्य ‘चरित्र निर्माण’ होता है, क्योंकि यह बिलकुल स्पष्ट है कि तभी, सिर्फ तभी, कोई व्यक्ति समाज के कल्याण के लिए काम करने की नैतिक शक्ति और आत्मविश्वास हासिल करता है।
स्वतंत्रता के बाद, एक लोकतांत्रिक राज्य के रूप में हमने ऐसे संविधान को अपनाया जिसने हमें कुछ अधिकार दिए - स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे और न्याय के अधिकार जिनका उपभोग कुछ कर्तव्यों के प्रति वचनबद्ध रहे बिना नहीं किया जा सकता। हम अपने बच्चों को यह सब सीखने में किस तरह मदद कर सकते हैं? शिक्षक और वयस्क लोग खुद इस राह पर चलना कैसे सीख सकते हैं? हम बच्चों की शिक्षा के लिए योजना बनाते वक्त इन सवालों से बच नहीं सकते। आज हम ऐसे वैश्विक संसार में जी रहे हैं जो तकनीकी रूप से बहुत विकसित व केन्द्रीकृत है। एक राष्ट्र के रूप में हम भी इन तकनीकी ऊँचाइयों तक पहुँच गए हैं। लेकिन एक राष्ट्र के रूप में, हम आज तक अपने सभी नागरिकों की पोषण सम्बन्धी सुरक्षा, साफ व स्वच्छ जल आपूर्ति, प्राथमिक शिक्षा तथा बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी आधारभूत समस्याओं को हल नहीं कर पाए हैं। एक राजनैतिक व सामाजिक तंत्र के रूप में हम संवेदनशील ढंग से तथा अपनी जरूरतों की प्राथमिकता के हिसाब से काम नहीं कर पाए हैं।
विभिन्न प्रभावशाली पदों पर आसीन बौद्धिक समुदाय के समस्त लोग समाज के सभी वर्गों के हित में नीतिगत निर्णय लेने और काम करने में प्रभावहीन प्रतीत होते हैं। ऐसे निर्णय लेने के बजाय इनमें से अधिकांश लोग मौजूदा व्यवस्था से खुद लाभ ले रहे हैं और उत्तरोत्तर ऐसा प्रतीत होता है कि उनका सरोकार सिर्फ अपने स्वार्थी लक्ष्यों को साधना है। इस वजह से ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में शारीरिक श्रम करने वाले लोग निरन्तर हाशिए पर पहुँचते जा रहे हैं। इस बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि ऐसे पदों पर बैठे लोग यह नहीं समझ पाते हों कि उनके निर्णयों से सुविधाहीन लोगों पर तथा पर्यावरण पर लम्बे समय में क्या प्रभाव पड़ेगा। पर्यावरण की समस्याओं के बढ़ते स्वरूप का अर्थ है कि हमें ‘विकास’ और ‘प्रगति’ जैसे उन शब्दों के अर्थ पर ही सवाल खड़ा करना पड़ेगा जिन्हें बाजार की ताकतों द्वारा पूरे विश्व में बढ़ावा दिया जा रहा है।
दुनियाभर में, समृद्ध लोगों को और दरिद्र लोगों को इन अवधारणाओं पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। समय आ गया है कि हम इस बात को समझें, कि ‘मनुष्यता’ हमारे द्वारा उपभोग की गई मात्रा में नहीं बसती है बल्कि मनुष्यता का अर्थ है कि हम न सिर्फ एक-दूसरे से जुड़ें, एक दूसरे को समझें, बल्कि उस पृथ्वी को भी समझें जो जीवित बने रहने में हमारी मदद करती आई है। समय आ गया है कि हम अपने लिए और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए अपनी मिट्टी, पानी और हवा की सुरक्षा करें और उन्हें स्वच्छ रखें। इससे हमें चारों तरफ फैले अत्यधिक लालच से दूर हटने में मदद मिलेगी। यह अनिवार्य हो गया है कि हम ऐसी नई जीवनशैलियों के बारे में सोचें जिनमें ऊर्जा की खपत कम हो और जो पर्यावरण को सुरक्षित रखें। जो हमें व्यक्तिगत स्तर पर तथा सामाजिक स्तर पर भी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ रखें।
शिक्षा को समेकित और समग्र पद्धति की जरूरत है
हमारे बच्चों को यह हकीकत समझना होगी और इसे बदलने के लिए उन्हें सृजनशीलता से, जिम्मेदारी से और एक साथ मिलकर काम करना होगा। हमारी शिक्षा व्यवस्था, मोटेतौर पर व्यवहारिक रूप से निष्क्रिय और प्रतिबद्धता रहित रही है। इसके परिणामस्वरूप ऐसी शिक्षा व्यवस्था से निकलने वाले विद्यार्थियों का रवैया बेहद गैर-जिम्मेदाराना रहा है और उनके भीतर नागरिक बोध का अभाव रहा है। इसके अलावा, हमारी शिक्षा व्यवस्था हमारे बच्चों को बुनियादी कौशलों से दूर करती रही है। इस व्यवस्था में क्रान्तिकारी बदलाव लाने की सख्त जरूरत है। हमारे सामने चुनौती है कि इस व्यवस्था को समग्र बनाना ताकि इस व्यवस्था से सीखकर निकलने वाले विद्यार्थी कौशलों, मूल्यों और विश्लेषणात्मक क्षमता के साथ जिन्दगी जी सकें।
ऐतिहासिक रूप से, दुनिया के कई समाज विभिन्न कारणों से बचे रहे हैं, फले-फूले हैं या नष्ट हुए हैं। संसाधनों का पर्यावरण के नजरिये से टिकाऊ न रह सकने वाला प्रबन्धन तथा समाजों के भीतर व दूसरे समाजों के साथ असंतुलित मानवीय सम्बन्ध, ऐसे कुछ कारणों में से हैं। हमारा देश जटिल समस्याओं वाला देश है। हमें जरूरत है अतीत से सीखने की और ऐसे बदलाव करने की जिससे वर्तमान पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी के लिए एक संवहनीय और टिकाऊ भविष्य का निर्माण हो सके। मेरे लिए, इसका अर्थ होगा ऐसे रास्ते की तरफ बढ़ना जो हर व्यक्ति और समाज को उत्पादक बनाएगा, सृजनात्मक रूप से प्रतिक्रिया करने वाला बनाएगा और ऐसे लोग जहाँ भी होंगे, पर्यावरण तथा संसाधनों की दृष्टि से संवहनीय स्थिति में होंगे। जरूरत है कि विज्ञान और तकनीकी आविष्कारों को इस तरफ मोड़ा जाए।
आइए हम यह सोच त्यागें कि ‘बुनियादी मानवीय स्वभाव’ लालची और प्रतिस्पर्धी है। हम खुद को सिर्फ उपभोक्ता मानकर न रह जाएँ। निश्चित ही हम खुद को एक ऐसे बुद्धिमान समुदाय के रूप में विकसित करने की कल्पना कर सकते हैं और उसके प्रति आत्मविश्वास रख सकते हैं, जो एक प्रजाति के रूप बेहतर ढंग से संगठित हो और वसुधैव कुटुम्बकम की सोच के अनुरूप हो।
सुषमा शर्मा महाराष्ट्र के सेवाग्राम में स्थित आनन्द निकेतन की प्राचार्य व संस्थापक सदस्य हैं। यह स्कूल गाँधी जी के जीवन दर्शन से प्रेरित है। आनन्द निकेतन 3 से 13 साल तक के बच्चों का स्कूल है जो 2005 में गाँधी आश्रम के परिसर में मोहल्ला स्कूल के रूप में शुरू हुआ था। शिक्षा के बारे में गाँधी जी की सोच से प्रेरणा लेकर सुषमा अपनी टीम के साथ ठोस मनोवैज्ञानिक और संज्ञानात्मक बुनियादों पर समग्र और काम-आधारित शिक्षा के रास्ते खोजने और प्रयोग करने की कोशिश कर रही हैं। सुषमा ने पुणे विश्वविद्यालय से मानव शास्त्र में एम.एससी. की पढ़ाई की है तथा टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसिज, मुम्बई से प्राथमिक शिक्षा में एम.ए. किया है। वे पिछले 25 सालों से शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही हैं। बुनियादी रूप से वे एक सक्रिय कार्यकर्ता हैं। उन्होंने एक स्वयंसेवी एजेंसी के माध्यम से 15 सालों तक वर्धा जिले के ग्रामीण इलाकों में काम किया है। उन्होंने एकीकृत ग्रामीण विकास के लिए काम किया है और उनका विशेष ध्यान स्कूल-पूर्व तथा प्राथमिक स्कूलों के बच्चों पर रहा है। उन्होंने संवहनीय विकास की ओर एकीकृत पद्धति का प्रयोग करते हुए महिलाओं, युवाओं तथा किसानों के साथ भी काम किया है। उनसे sushama.anwda@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।
यह अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन की अँग्रेजी पत्रिका ‘लर्निंग कर्व’ के Productive Work As Pedagogy Issue XXIV, March 2015 अंक में प्रकाशित A Powerful Means of Integrated Holistic Learning : Sushama Sharma का हिन्दी अनुवाद है। अनुवाद : भरत त्रिपाठी
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📌 मन की बात : स्वयं करके समेकित और समग्र रूप से सीखना की प्रक्रिया में बच्चों को यह हकीकत समझना होगा और इसे बदलने के लिए उन्हें सृजनशीलता से, जिम्मेदारी से और एक साथ मिलकर काम करना होगा, हमारी शिक्षा व्यवस्था, मोटे तौर पर व्यवहारिक रूप से निष्क्रिय और प्रतिबद्धता......
ReplyDelete👉 http://www.basicshikshanews.com/2016/06/blog-post_4.html