मन की बात : 7वां वेतन आयोग में सैलरी बढ़ने को तर्कबुद्धि और तथ्यबुद्धि से देखिए जब भी सरकारी कर्मचारियों का वेतन बढ़ने की बात होती है, उन्हें हिक़ारत की निगाह से..............
जब भी सरकारी कर्मचारियों का वेतन बढ़ने की बात होती है, उन्हें हिक़ारत की निगाह से देखा जाने लगता है। जैसे सरकार काम न करने वालों का कोई समूह हो। सुझाव दिया जाने लगता है कि इनकी संख्या सीमित हो और वेतन कम बढ़े। आलसी, जाहिल से लेकर मक्कार तक की छवि बनाई जाती है और इस सबके बीच वेतन बढ़ाने की घोषणा किसी अर्थक्रांति के आगमन के रूप में भी की जाने लगती है। कर्मचारी तमाम विश्लेषणों के अगले पैरे में सुस्त पड़ती भारत की महान अर्थव्यवस्था में जान लेने वाले एजेंट बन जाते हैं।
आज भी यही हो रहा है, पहले भी यही हो रहा था। एक तरफ सरकारी नौकरी के लिए सारा देश मरा जा रहा है। दूसरी तरफ उन्हीं सरकारी नौकरों के वेतन बढ़ने पर भी देश को मरने के लिए कहा जा रहा है। क्या सरकारी नौकरों को बोतल में बंद कर दिया जाए और कह दिया जाए कि तुम बिना हवा के जी सकते हो, क्योंकि तुम जनता के दिए टैक्स पर बोझ हो। यह बात वैसी है कि सरकारी नौकरी में सिर्फ कामचोरों की जमात पलती है, लेकिन भाई 'टेल मी, ऑनेस्टली', कॉरपोरेट के आंगन में कामचोर डेस्कटॉप के पीछे नहीं छिपे होते हैं...?
अगर नौकरशाही चोरों, कामचोरों की जमात है, तो इस देश के तमाम मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री से पूछा जाना चाहिए कि डियर, आप कैसे कह रहे हैं कि आपकी सरकार काम करती है। इस बात को कहने के लिए ही आप करोड़ों रुपये विज्ञापनबाज़ी में क्यों फूंक रहे हैं। आपके साथ कोई तो काम करता होगा, तभी तो नतीजे आते हैं। अगर कोई काम नहीं कर रहा, तो यह आप देखिए कि क्यों ऐसा है। बाहर आकर बताइे कि तमाम मंत्रालयों के चपरासी से लेकर अफसर तक समय पर आते हैं और काम करते हैं। इसका दावा तो आप लोग ही करते हैं न। तो क्यों नहीं भोंपू लेकर बताते हैं कि नौकरशाही का एक बड़ा हिस्सा आठ घंटे से ज़्यादा काम करता है। पुलिस से लेकर कई महकमे के लोग 14-15 घंटे काम करते हैं।
सरकार से बाहर के लोग सरकार की साइज़ को लेकर बहुत चिन्तित रहते हैं। वे इतना ही भारी बोझ हैं तो डियर सबको हटा दो। सिर्फ पीएमओ में पीएम रख दो और सीएमओ में सीएम, सबका काम हो जाएगा। जनता का दिया सारा टैक्स बच जाएगा। पिछले 20 साल से यह बकवास सुन रहा हूं। कितनी नौकरियां सरकार निकाल रही है, पहले यह बताइए। क्या यह तथ्य नहीं है कि सरकारी नौकरियों की संख्या घटी है। इसका असर काम पर पड़ता होगा कि नहीं। तमाम सरकारी विभागों में लोग ठेके पर रखे जा रहे हैं। ठेके के टीचर तमाम राज्यों में लाठी खा रहे हैं। क्या इनका भी वेतन बढ़ रहा है...? नौकरियां घटाने के बाद कर्मचारियों और अफ़सरों पर कितना दबाव बढ़ा है, क्या हम जानते हैं...?
इसके साथ-साथ वित्त विश्लेषक लिखने लगता है कि प्राइवेट सेक्टर में नर्स को जो मिलता है, उससे ज़्यादा सरकार अपनी नर्स को दे रही है। जनाब शिक्षित विश्लेषक, पता तो कीजिए कि प्राइवेट अस्पतालों में नर्सों की नौकरी की क्या शर्तें हैं। उन्हें क्यों कम वेतन दिया जा रहा है। उनकी कितनी हालत ख़राब है। अगर आप कम वेतन के समर्थक हैं तो अपनी सैलरी भी चौथाई कर दीजिए और बाकी को कहिए कि राष्ट्रवाद से पेट भर जाता है, सैलरी की क्या ज़रूरत है। कारपोरेट में सही है कि सैलरी ज्यादा है, लेकिन क्या सभी को लाखों रुपये पगार के मिल रहे हैं...? नौकरी नहीं देंगे, तो भाई, बेरोज़गारी प्रमोट होगी कि नहीं। सरकार का दायित्व बनता है कि सुरक्षित नौकरी दे और अपने नागरिकों का बोझ उठाए। उसे इसमें दिक्कत है तो बोझ को छोड़े और जाए।
नौकरशाही में कोई काम नहीं कर रहा है, तो यह सिस्टम की समस्या है। इसका सैलरी से क्या लेना-देना। उसके ऊपर बैठा नेता है, जो डीएम तक से पैसे वसूल कर लाने के लिए कहता है। जो लूट के हर तंत्र में शामिल है और आज भी हर राज्य में शामिल है। नहीं तो आप पिछले चार चुनावों में हुए खर्चे का अनुमान लगाकर देखिए। इनके पास कहां से इतना पैसा आ रहा है, वह भी सिर्फ फूंकने के लिए। ज़ाहिर है, एक हिस्सा तंत्र को कामचोर बनाता है, ताकि लूट कर राजनीति में फूंक सके। मगर एक हिस्सा काम भी तो करता है। हमारी चोर राजनीति इस सिस्टम को सड़ाकर रखती है, भ्रष्ट लोगों को शह देती है और उकसाकर रखती है। इसका संबंध उसके वेतन से नहीं है।
रहा सवाल कि अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए वेतन बढ़ाने की बात है तो सरकारी कर्मचारियों का वेतन ही क्यों बढ़ाया जा रहा है। एक लाख करोड़ से ज़्यादा किसानों के कर्ज़े माफ हो सकते थे। उनके अनाजों के दाम बढ़ाए जा सकते थे। किसान के हाथ में पैसा आएगा तो क्या भारत की महान अर्थव्यवस्था अंगड़ाई लेने से इंकार कर देगी...? ये विश्लेषक चाहते क्या हैं...? सरकार सरकारी कर्मचारी की सैलरी न बढ़ाए, किसानों और छात्रों के कर्ज़ माफ न करे, खरीद मूल्य न बढ़ाए तो उस पैसे का क्या करे सरकार...? पांच लाख करोड़ की ऋण छूट दी तो है उद्योगपतियों को। कॉरपोरेट इतना ही कार्यकुशल है तो जनता के पैसे से चलने वाले सरकारी बैंकों के लाखों करोड़ क्यों पचा जाता है। कॉरपोरेट इतना ही कार्यकुशल है तो क्यों सरकार से मदद मांगता है। अर्थव्यवस्था को दौड़ाकर दिखा दे न।
इसलिए इस वेतन वृद्धि को तर्क और तथ्य बुद्धि से देखिए। धारणाओं के कुचक्र से कोई लाभ नहीं है। प्राइवेट हो या सरकारी, हर तरह की नौकरियों में काम करने की औसत उम्र कम हो रही है, सुरक्षा घट रही है। इसका नागरिकों के सामाजिक जीवन से लेकर सेहत तक पर बुरा असर पड़ता है। लोग तनाव में ही दिखते हैं। उपभोग करने वाला वर्ग योग से तैयार नहीं होगा। काम करने के अवसर और उचित मज़दूरी से ही उसकी क्षमता बढ़ेगी।
साभार/आभार : रवीश कुमार जी एनडीटीवी
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📌 मन की बात : 7वां वेतन आयोग में सैलरी बढ़ने को तर्कबुद्धि और तथ्यबुद्धि से देखिए.......जब भी सरकारी कर्मचारियों का वेतन बढ़ने की बात होती है, उन्हें हिक़ारत की निगाह से..............
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