मन की बात : आज परिषदीय विद्यालयों की दशा व सुधार की दिशा पर चर्चा करते हुए यह कहने में तनिक भी हिचक नहीं है कि 1900 से लेकर 1980 तक के मध्य प्राइवेट विद्यालय नगण्य........
ये एक अकाट्य सत्य है की कभी परिषदीय विद्यालय शासन व प्रशासन को संचालित करने वाले प्रोडक्ट निकालते थे । यह दौर 1909 से लेकर 1990 तक बना रहा, पर आज स्थिति इसके विपरीत है आईये इसके कारणों पर विचार करें ?
यह कहने में तनिक भी हिचक नहीं है कि 1900 से लेकर 1980 तक के मध्य प्राइवेट विद्यालय नगण्य थे (और सरकारें या कहिये विभाग जितना आज प्राइवेट विद्यालयों को मान्यता देने पर आमादा है उस दौर में ऐसा नहीं था) अतः समस्त शिक्षार्थी वर्ग चाहे वो किसी भी आर्थिक वर्ग का हो परिषदीय विद्यालयो में ही आता था। छात्रो के अनुपात में पर्याप्त शिक्षक रहते थे । समाज में शिक्षको का सम्मान शिक्षा के प्रति जागरूक हर वर्ग करता था जाहिर सी बात है उस दौर में शिक्षा के प्रति जागरूक वर्ग समाज का आर्थिक या सामाजिक रूप से सम्पन्न वर्ग ही था। अतः जब वही शिक्षकों को अतिशय सम्मान करता था तो स्वाभाविक है की समाज का बाकी वर्ग भी करेगा ही । समाज से सर्वत्र अतिशय सम्मान पाने के बाद अधिकांश शिक्षक खुद को उस सम्मान के समर्पण में विद्यालय को अपना सर्वश्रेष्ठ देंने को तत्पर रहते थे। जो नहीं रहना चाहते थे वे सहकर्मी शिक्षकों व विद्यालय प्रशासन के दबाव में समर्पित रहते थे।
इनके समर्पण का मुख्य आधार था विद्यालय परिवार में चली आ रही परंपरा व् परिपाटी।अर्थात उस दौर में न तो एकाएक बहुत से रिटायरमेंट हुए न ही एकाएक बहुत सी भर्तियां , होता ये था की एक विद्यालय में 6 से 10 तक अध्यापक सामान्य तौर पर रहते थे विद्यालय सही ढंग से संचालित रहते थे, इस सञ्चालन का आधार अभिभावको व् समाज के सहयोग व विद्यालय द्वारा वह सहयोग प्राप्त करने का ढंग होता था। ऐसे में जब कोई एक अध्यापक रिटायर भी हो जाता था तो वह अपने पीछे विद्यालयीय परंपरा का निर्वहन करने वाले अध्यापको का एक समूह छोड़कर जाता था और यदि इसी बीच कोई नया अध्यापक आ भी जाता था तो विद्यालय की बनी बनायीं परंपरा को वो चाहे अनचाहे अपना लेता था।
कालान्तर में 1990 से 95 के बीच बड़े पैमाने पर अध्यापको का रिटायरमेंट होता रहा जबकि भर्तियां नहीं हुई जो की शासन की बेपरवाही का नतीजा था । इस बेपरवाही का कारण ये था की 80 के दशक में आज की बहुराष्ट्रीय कम्पनियो की तरह ही विदेशी पद्धति की नक़ल पर आधारित कुछ चमक दमक वाले कान्वेंट खुले जिसमे शासन व् प्रशासन के पदों पर बैठे लोंगो की औलादें शिक्षा ग्रहण करने लगी साथ ही उनकी देखा देखी समाज का आर्थिक रूप से संपन्न तबका जो शासन पर दबाव डाल सकता था भी अपने बच्चों को इन्ही कान्वेंट में दाखिल कर दिया । अब जब उनके अपने बच्चे परिषदीय विद्यालयो से दूर हो चुके थे तो यहाँ की भर्तियो के लिए खजाने से होने वाला व्यय इन्हें भारी व् फालतू लगने लगा। फलतः रिटायरमेंट के सापेक्ष भर्तियां नहीं के बराबर हुई ।
अब रह गया था समाज का आर्थिक रूप से सामान्य तबका जो अमीर तो नहीं था पर शिक्षा का महत्त्व खूब समझता था व् उसकी आय का आधार शिक्षा ही थी । पर वह इतना ताकतवर नहीं था की शासन पर परिषदीय विद्यालयो की बदहाली रोकने पर दबाव डाल सके । अतः 1990 से 2000 के बीच जब परिषदीय विद्यालय अध्यापको की कमी से चाहकर भी शिक्षा के स्तर को बरकरार नहीं रख सके तो उसने भी अन्यत्र राह तलाशनी शुरू कर दी जैसा की हम सब जानते है बाजार में मांग के सापेक्ष आपूर्ति होनी तय है जब अध्यापको की आपूर्ति सरकारी विद्यालय नहीं कर सके तो मांग के सापेक्ष नए प्राइवेट विद्यालय खुले और उन्होंने ट्रेंड व् अनट्रेंड हर स्तर के अध्यापको को उपलब्ध कराया अतः शिक्षा के प्रति जागरूक यह तबका इन विद्यालयो के अध्यापको की गुणवत्ता जानते हुए भी न से थोडा ही सही की राह पर चलकर अपने बच्चों को परिषदीय विद्यालयो से निकालकर बाग़ व गलियो में चलने वाले इन स्कूलो में डाल दिया ।
तब जाकर सरकार की नींद टूटी वो भी तब जब इन्हें विश्व बैंक की सहायता दिखी जिसे चाहे अनचाहे देश में व्यय करना था। इसी बिच 1998 में बड़े पैमाने पर btc की जगह vbtc की भर्ती हुई ।और विदयालय भो बड़े पैमाने पर बनने लगे पर इतनी भर्ती इन विद्यालयो को खोलने व् कागज बनाने के लिए तो पर्याप्त थी पर पढ़ाने के लिए नहीं अब विभाग एक नयी समस्या से जूझने लगा क्योकि विद्यालय तो खुल रहे थे पर अध्यापक न होने के कारन शिक्षा पर आश्रित तबका अभी भी अपने बच्चों को यहाँ नहीं लाया ऐसे में सरकार ने एक नया निर्णय लिया ।निर्णय तो सराहनीय था पर इस निर्णय के आधार पर नीतियों में बदलाव नहीं किया गया, और निर्णय ये हुआ की सभी आउट ऑफ़ स्कूल बच्चों को इन विद्यालय में लाया जाय यही वह दौर था जब बिहार में चरवाहा विद्यालय की हवा चली।
वास्तव में यह वो तबका था जिसके पूर्वज सदियो से शिक्षा से सामान्य तौर पर दूर रहे थे । जीवन जीने की इनकी आवश्यकताएं भिन्न थी। अतः इस वर्ग का पहला सवाल यही हुआ की हम अपने बच्चों को आपके विद्यालय में क्यों भेजें । हमें क्या लाभ होगा सरकार का जवाब आया वजीफा मिलेगा। (जबकि जवाब होना चाहिए था पढ़ाकर रोजगार देंगे) इस वर्ग ने तालियां बजायी वोट बढ़ें और साथ ही विद्यालय में बच्चे भी बच्चे बढे जरूर पर स्कूल में टिके नहीं । नाम लिखाकर गायब ।जब उनसे कारण पूछा तो जवाब आया , बच्चा काम करेगा तो घर पर खाने की व्यवस्था होगी अतः सरकार ने कहा हम गेहूं भी देंगे । बच्चे एक बार फिर विद्यालय में दिखने लगे पर ये क्या ये तो मात्र उन्ही 2 या तीन दिन ही दिखते जब गेहू बाँटना होता।इस समस्या पर एक सत्य उदहारण बताता हूँ । एक बात प्रशिक्षण के दौरान एक अध्यापिका ने विद्यालय में बच्चे के ठहराव पर अपना अनुभव साझा किया ।उन्ही के शब्दों में ,एक बार एक महिला विद्यालय में आई और अपने बच्चे को छुट्टी देने को कहने लगी, जब मैंने उसे समझाया की उसे पढ़ने दें तब उसका जवाब आया की मैडम पढ़ि के का करी आगे चलिके अपने बाबू की नाही बजवै टी बजाई। वास्तव में उस बच्चे का पिता ग्रामीण बैंड बजाता था ।
यहाँ तात्पर्य ये है की सरकार ने इस वर्ग को अपने बच्चों को विद्यालय में नाम लिखाने व् विद्यालय भेजने के लिए लालच तो बहुत दिया पर शिक्षा नीति में इस आय वर्ग के सार्थक परिवर्तन नहीं किया । विडम्बना ये है की आज ac में बैठे अधिकारी सरकार को उलुल जलूल सलाह देकर कोढ़ में खाज उत्पन्न कर रहे।सरकार ने कला अनुदेशको की भर्ती की वो भी ऐसे वर्ग के बच्चों के लिए जो ठीक से कलम नहीं खरीद पाते ब्रश व् पेंट कहाँ से लाएंगे। यदि करना ही था तो परिवेश में उपलब्ध संशाधनों के आधार पर ऐसा कौशल सिखाया जाता जिससे आगे चलकर बच्चा पढाई छोड़कर भी कमाने का हुनर सीख पाता, खैर सारी समस्याओं के होते हुए भी जो अध्यापक है उन्होंने इसका समाधान क्यों न किया । इसका एक ही जवाब है यदि बिना शारीरिक परिक्षण के मात्र मेरिट पर सेना की भर्ती कर दी जाय तो क्या होगा?
जवाब आपके मन में आ गया तो इसपर भी विचार करें की लाख ज्ञान होने पर भी बिना मनोवैज्ञानिक परिक्षण के शिक्षको की भर्ती क्यों? क्योकि मात्र ज्ञान ही शिक्षको का मापदंड होता तो एक अकेला गूगल गुरु पर्याप्त है ।
शिक्षक बनने के लिए जरुरी है की वो मन से शिक्षक हो।ऐसा नहीं है भर्ती की इस प्रक्रिया में अच्छे शिक्षक नहीं हैं । मेरिट से सेना की भर्ती होने पर भी एक निश्चित अनुपात में तन व् मन से सैनिक भी आ जायेंगे । ऐसे ही शिक्षको की भर्ती में हुआ।
अब चर्चा करें आज की स्थिति की आज यह अकाट्य सत्य है की हमारे परिषदीय विद्यालयो में शिक्षा के प्रति अजागरुक अभिभावको के बच्चे है।अतः जरुरी है की या तो हम अपने विभाग को ऊपरी चमक दिखाने के लिए जागरूक वर्ग के बच्चों को आकर्षित करें । या जो है उन्हें शिक्षा से जोड़ने के लिए शिक्षा नीति में आवश्यक बदलाव करें व् इस सर्वहारा वर्ग के बच्चों को काबिल बनाकर विश्व में एक नया कीर्तिमान स्थापित करें ।
पहले रास्ते से आप आसानी से सम्मानजनक नौकरी कर पाएंगे दूसरे में आप पूजे जायेंगे । अब आप पर तय करता है की आप कौन सी राह चुनते हैं, मैं हर उस परिषदीय अध्यापक को पूज्य की श्रेणी में रखता हूँ जो इस विकट व विपरीत परिस्थितियों में भी अपने विद्यालय को बेहतर ढंग से चला रहा है जरुरत है उनसे सीखने की हमें भी सरकार को भी व नीति नियंताओं को भी।
आभार - भाई विनोद कुमार जी
भदोही
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