मन की बात : वास्तव में बेसिक शिक्षा विभाग और प्रदेश सरकार अपने आदेशों में शिक्षा के प्रति जितनी संवेदनशील दिखती है यथार्थ में उतनी है नहीं, प्रदेश में एसी ऑफिस में बैठे शिक्षाधिकारियों की शिक्षा के प्रति गंभीरता.........
🌑 गुणवत्ता के लिए दोषी कौन अध्यापक या व्यवस्था ?
हम सभी दोस्त महीने में एक बार ढाबे पर खाना जरूर खाते हैं। ढाबा फिक्स है और कारीगर भी। उस ढाबे के खाना बनाने बाले कारीगर के हाँथ का खाना बहुत लजीज रहता था, पर अबकी बार जब हम लोग खाना खाने गए तो खाने में कोई स्वाद नहीं था। हमने उस ढाबे के रसोइये से बुलाकर शिकायत दर्ज़ की तो वह बोला कि हमारे ढाबे के मालिक ने 2 किलोमीटर आगे एक आलीशान होटल बना लिया है और अब वह यहाँ मॉल ( सब्जी, तेल, मसाला, प्याज) ज्यादा नहीं भेजता है, साहब अच्छा खाना अच्छे माल से बनता है, कारीगर कितना भी अच्छा क्यों ना हो बिना माल के अच्छा खाना नहीं बना सकता। आप यहाँ संजीव कपूर को भी भेज दो तब भी बिना माल के अच्छा खाना नहीं बना पायेगा...
अब आप ये सोच रहे होंगे कि इस घटना का शिक्षा से क्या सम्बन्ध है पर यह घटना शिक्षा से गहरा सम्बन्ध रखती है। हमारे बेसिक शिक्षा में सैकड़ों हुनरमंद अध्यापक (कारीगर) हैं पर प्रदेश सरकार (ढाबे का मालिक) हमें न्यूनतम सुबिधायें (माल) उपलब्ध करवाता है और छात्र और अभिभावक (ग्राहक) हमसे बेहतरीन गुणवत्ता का प्रश्न करता है...
वास्तव में बेसिक शिक्षा विभाग और प्रदेश सरकार अपने आदेशों में शिक्षा के प्रति जितनी संवेदनशील दिखती है यथार्थ में उतनी है नहीं। प्रदेश पर वातानुकूलित ऑफिस में बैठे शिक्षाधिकारियों की शिक्षा के प्रति गंभीरता केवल अध्यापक के कान उमेठने और न्यूज़ पेपर और सख्त आदेश के माध्यम से अपनी कर्तव्यनिष्ठा दिखाने तक ही सीमित है। अब अभिभावक निःशुल्क पाठ्यपुस्तक और मध्यान्ह् भोजन की बजाय अच्छे वातावरण वाले सुविधायुक्त विद्यालय के चयन में रूचि दिखाता है और सरकार एक अदद अल्प सुविधा युक्त सरकारी भवन का निर्माण कर अपनी पीठ थपथपाने में मशगूल है...
सरकारी विद्यालयों से अभिभावकों का मोहभंग होना कोई क्षणिक घटना नहीं है, अपितु यह एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा है ,जिसमे प्रदेश सरकार का पूरा सहयोग रहा है। वर्ष 1990 से पूर्व किसी भी जनपद में गिने चुने सरकारी विद्यालय होते थे और उस समय के जागरूक लोग अपने पाल्यों को इन विद्यालयों में भेजते थे।
कोई अन्य विकल्प ना होने से सरकारी विद्यालय सैकड़ों छात्रों से गुलजार रहते थे। शिक्षा के लिए शुल्क लिया जाता था जो विद्यालय में सुविधाओं पर निर्भर करता था। शुल्क के कारण कुछ निजी पूँजीपतियों को शिक्षा, भविष्य के रोजगार के रूप में नजर आयी और उन्होंने सरकार से अधिक मान्यता प्राप्त विद्यालय स्थापित करने का आदेश पास करवा लिया...
देखते ही देखते हर सरकारी विद्यालय के आसपास बहुरंगी, बहुमंजिला आलीशान निजी विद्यालय खड़े हो गए और प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने बाले मजबूत आय वर्ग के छात्रों के अभिभावकों को बेहतर विकल्प मिल गया। बेहतर सुविधाओं का लालच दिखाकर इन विद्यालयों ने एक झटके में ही प्राथमिक विद्यालयों की रीढ़ तोड़ दी। निजी विद्यालयों की स्थापना के नियमों में लगातार शिथिलता और सरकारी उदारता यह बताने के लिए पर्याप्त है कि शिक्षा के निजीकरण में सरकारी तंत्र की सहमति है...
आलम यह हुआ कि 10 वर्ष में ही प्रत्येक गांव के आसपास कोई ना कोई निजी विद्यालय स्थापित हो चुका था। सरकार भी लोगों को शिक्षित करने के लिए प्रत्येक गांव में एक प्राइमरी और एक जूनियर स्कूल खोलती जा रही थी। जिससे प्रत्येक गांव में शिक्षा के अच्छे विकल्प उपलब्ध होते जा रहे थे और अभिभावक अपनी हैसियत के अनुरूप विद्यालय का चयन कर अपने पाल्यों का प्रवेश उनमे कराने लगे...
सरकारी विद्यालयों की आलोचना करने बाले अधिकांशतः 1980 के दशक के पूर्व के उदाहरण प्रस्तुत कर यह तर्क देते हैं कि पहले सरकारी विद्यालयों में बहुत पढ़ाई होती थी और हम भी सरकारी स्कूल में ही पढ़े हैं पर वह यह भूल जाते हैं कि उनके समय में निजी विद्यालय नहीं होते थे इसलिए वे मजबूरी में सरकारी विद्यालय में पढ़ते थे।
उस समय कुल नामांकन 60 से 70 प्रतिशत होता था और 30 प्रतिशत छात्र तो कभी विद्यालय का मुँह नहीं देखते थे। निजी विद्यालयों की स्थापना के साथ ही यह नामांकित वर्ग सरकारी विद्यालयों से निजी विद्यालयों में शिफ्ट होता चला गया। चूँकि सरकार अपने सरकारी विद्यालयों को बंद नहीं करना चाहती थी इसलिये उसने उन 30 प्रतिशत छात्रों पर अपना ध्यान केंद्रित कर लिया जो अभी तक स्कूल नहीं जाते थे।
सर्व शिक्षा अभियान में वर्ष 2001 से 2010 तक सरकार का ध्यान केवल प्रत्येक गांव में एक सरकारी स्कूल की स्थापना भर था इसलिए प्रत्येक गांव में 3 कमरों के एक सरकारी विद्यालय का निर्माण प्रारम्भ हो गया पर यहाँ सरकार यह भी भूल गयी कि वह अधिकांश गांव में एक निजी विद्यालय की स्थापना का आदेश भी कर चुकी है। कुछ गांव में सरकारी स्कूल की स्थापना का प्रस्ताव गांव के नागरिकों और ग्राम प्रधान द्वारा केवल इसलिये किया गया था कि गांव में कोई बारातघर नहीं है।
2008 के बाद सरकार ने घटती छात्र संख्या के कारण 100 प्रतिशत नामांकन पर ध्यान केंद्रित कर लिया और सरकारी विद्यालय के अध्यापकों ने हर उस छात्र को ढूढ़ निकाला जो पढ़ना नहीं चाहता था या उसके अभिभावक उसको पढ़ाना नहीं चाहते थे। चूँकि ये छात्र किसी भी कीमत पर विद्यालय नहीं रुकना चाहते थे इसलिये सरकार ने शिक्षा और संसाधन विकसित करने की बजाय अपना ध्यान मध्यान्ह् भोजन पर केंद्रित कर लिया...
स्थिति यह है कि अभी भी कई विद्यालय शौचालय, हैंडपंप, और बॉउंड्रीबाल जैसी मुलभुत सुविधाओं में ही जूझ रहे हैं पर मध्यान्ह् भोजन के वितरण में किसी भी प्रकार की लापरवाही क्षम्य नहीं है। सरकार, सरकारी विद्यालयों को केवल एक बार ही फण्ड उपलब्ध कराती है और उसका जोर शोर से प्रचार कर देती है। लाइब्रेरी के लिए कुछ धनराशि उपलब्ध कराकर सरकार यह भूल गयी कि किताबें भविष्य में फट भी सकती हैं या नयी किताबों की भी आवश्यकता हो सकती है।
जूनियर स्कूल में एक बार विज्ञान किट उपलब्ध कराने के बाद सरकार को यह याद नहीं रहा कि विज्ञान के यंत्र कुछ साल बाद खराब हो जाते हैं और रसायन विज्ञान में केमिकल हर वर्ष खरीदने होते है। एक बार सस्ता फर्नीचर उपलब्ध करवाने के बाद सरकार को यह लगता है कि यह फर्नीचर अब कभी भी टूटेगा नहीं। बृक्षारोपण का आदेश कर पर्यावरण के प्रति अपनी सोच दिखाने बाली सरकार भूल जाती है कि बृक्ष मुफ़्त नहीं मिलते हैं और इनमे पानी कौन डालेगा...
सरकार का यह भी मानना है कि महगाई बढ़ने के बाबजूद अभी भी 5000 रुपये में विद्यालय को अच्छा रंग रोगन कराया जा सकता है। शायद इसी सोच की बजह से सरकारी योजनाओं ने छात्रों को लाभ पहुचाने से पहले ही दम तोड़ दिया। विगत 2 दशकों में टी वी जैसे माध्यम से शिक्षा के प्रचार के कारण अभिभावक पहले से अधिक जागरूक और संवेदनशील हो गए हैं अब प्रत्येक समझदार अभिभावक अपने पाल्य को अपने परिवेश के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ाकर उसका और अपना भविष्य सुरक्षित करना चाहता है, ऐसे में सुविधाओं की दृष्टि से प्राथमिक विद्यालय उसकी वरीयता सूची में अंतिम पायदान पर आते है...
आज का अभिभावक अपने पाल्यों को उन स्कूल में भेजना चाहते हैं जहाँ उसे आया, चपरासी, बस, खेलकूद की व्यवस्था के साथ अच्छे भौतिक परिवेश की गारंटी मिले पर प्राथमिक विद्यालय ऐसी किसी सुविधा की कोई गारंटी नहीं दे सकता है।
सरकारी शिक्षा का आलम यह है कि कही हिंदी का अध्यापक नहीं है तो कही गणित का, कही 2 अध्यापक 5 क्लास चला रहे हैं तो कही अकेला प्रधानाध्यापक या शिक्षामित्र सूचनाओं में व्यस्त है। चपरासी, आया, बाबू, लाइब्रेरियन, गार्ड इन स्कूलों के लिए सपना जैसे हैं पिछले एक दशक से 5000 रुपये में वर्ष भर मैन्टीनेन्स करने बाले अध्यापक, जो की ड्रेस का 75 प्रतिशत भुगतान कर ड्रेस खरीदते है, बची 25 प्रतिशत के भुगतान के दूकानदार के तगादा से भागते रहते है की हालात गांव के उस गरीब व्यक्ति जैसी हो जाती है जो पैबंद लगाकर जिंदगी गुजर वसर करता है...
अगर अध्यापक प्रयास भी करना चाहे तो उसको अपने विद्यालय में कार्य हेतु कहीं से भी कोई सहायता नहीं मिलती। इसके इतर निजी विद्यालय अपने स्थापना के एक वर्ष में ही आया ,गार्ड ,बाबू, बेहतरीन प्रधानाध्यापक कक्ष, अच्छा खेलकूद का मैदान और स्कूल का नाम लिखी बस के साथ कई सुविधाएँ अर्जित कर अभिभावक को प्रभावित करने में सक्षम हो जाते हैं...
सरकार शिक्षा के नाम पर केवल भ्रम पैदा करती है अख़बार में निःशुल्क शिक्षा के फूल पेज विज्ञापन देकर अपनी पीठ थपथपाने के आलावा वह कभी भी संवेदनशील नहीं रही। जहाँ निजी विद्यालय का छात्र 2000 रूपये की फुल यूनिफार्म और 1000 रुपये की कापी किताबों के साथ अपनी निजी बस में इठलाता हुआ निकालता है वही सरकारी विद्यालय का छात्र 200 रुपये की प्योर टेरीकॉट की यूनिफार्म और साढ़े तीन रूपया में एक प्लेट के साथ अपनी गरीबी को कोसता हुआ विद्यालय पहुँचता है। अगर सरकार वास्तव में इन गरीबों को आम जनमानस की तरह शिक्षा सुख प्रदान करना चाहती है तो उसे पहले अपने संसाधनों को निजी विद्यालय के समकक्ष बिकसित करना होगा...
हालाँकि सरकारी शिक्षा के प्रयासों को कम नहीं आंका जा सकता। सरकारी प्रयासों ने उन लाखों नौनिहालों को स्कूल की दहलीज़ तक पहुँचाकर अक्षर ज्ञान देने का अभूतपूर्व कार्य किया है जिनके लिए विद्यालय केवल सपना भर ही था पर सरकारी विद्यालय के गरीब छात्रों की गुणवत्ता का लगातार सार्वजनिक मजाक उड़ाया जाना निहायत शर्मनाक विषय है और शिक्षा विभाग के अध्यापकों को विना किसी संसाधन के कई गैरविभागीय कार्यो के साथ गुणवत्ता के लिए प्रताणित किया जाना निहायत अमानवीय कृत्य है।
विषम परिस्तिथियों में कार्य कर रहे शिक्षकों को सरकार के समर्थन सहयोग और सहानभूति की जरुरत है पर यहाँ तो बिना मिर्च मसाला और सामिग्री दिए हर कोई विद्यालय आकर 5 स्टार होटल के शाही पनीर और तंदूरी रोटी का लुफ्त लेना चाहता है और ना मिलने पर स्कूल के कारीगर ( अध्यापक) को चाबुक मारकर चला जाता है।
साभार/आभार : अवनीन्द्र जादौन जी
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📌 मन की बात : वास्तव में बेसिक शिक्षा विभाग और प्रदेश सरकार अपने आदेशों में शिक्षा के प्रति जितनी संवेदनशील दिखती है यथार्थ में उतनी है नहीं, प्रदेश में एसी ऑफिस में बैठे शिक्षाधिकारियों की शिक्षा के प्रति गंभीरता.........
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