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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

मन की बात : स्कूलों को पाठशाला या विद्यालय रखें, प्रैक्टिकल कारखाना या रसोई घर नहीं ? शासन/बेसिक शिक्षा विभाग द्वारा सरकारी स्कूलों की ओर समाज के लोगों को आकर्षित करने वाली योजनाएं ही सरकारी स्कूलों के लिए गले की हड्डी.................

मन की बात : स्कूलों को पाठशाला या विद्यालय रखें, प्रैक्टिकल कारखाना या रसोई घर नहीं ? शासन/बेसिक शिक्षा विभाग द्वारा सरकारी स्कूलों की ओर समाज के लोगों को आकर्षित करने वाली योजनाएं ही सरकारी स्कूलों के लिए गले की हड्डी.................

शासन/बेसिक शिक्षा विभाग द्वारा सरकारी स्कूलों के तरफ समाज के लोगों को आकर्षित करने वाली योजनाएं ही सरकारी स्कूलों के लिए गले की हड्डी बन गयी है, दिनों-दिन नामांकन घट रहा है। जो गरीब परिवार थोड़ा सा भी जागरूक हो रहे है, वो इन योजनाओं का विरोध कर रहे है।

एक आम ग्रामीण का कहना है कि "सरकारी स्कूलों में जब से खाना खिलाने अर्थात् मिड डे मील  की योजना शुरु हुई, तब से दिन भर खाना-पीना चलता है" मास्टर का टाइम खाना खिलाने में निकल जाता है वहीं दूसरी ओर जब से नि:शुल्क यूनिफार्म का रंग बदला है, उससे तो अभिभावक के साथ बच्चों के अंदर एक नकारात्मक सन्देश गया है। लोंगो ने नि:शुल्क यूनिफार्म को सबसे घटिया ड्रेस का दर्ज़ा दिया है, जिसे बच्चे पहनना पसंद नही करते, विशेष तौर पर जब बच्चे कक्षा 3-4 से ऊपर पढ़ने जाते हैं ।

हमामें अधिकारी वर्ग का फोकस भी मिड डे मील पर ही ज्यादा रहता है। एक ऐसा वातावरण बन चूका है जिसमें अध्यापक को जनता के समक्ष न चाहते हुए हास्य का पात्र बनना पड़ता है वहीं दूसरी तरफ जो अभिभावक कम से कम 3000/- रुपया प्रति माह कमा लेता है उसकी सोच बच्चों को सरकारी योजना से हटाकर प्राइवेट की चकाचौंध में चला जाता है। कहता है बच्चों को बैठने के लिए न ही फर्नीचर है और न ही विषयवार शिक्षक, तो मजाक तो बनेगा ही।

हम ये नहीं कहते कि इस दुर्दशा के लिए शासन/बेसिक शिक्षा विभाग ही पूरी तरह जिम्मेदार है, अपितु शिक्षक भी अपने उद्देश्य से भटक गये है। अध्यापक कहीं न कहीं अपनी जिम्मेदारियों से भागता है और अधिकारी गण के जी हजूरी में लगा रहता है और मूल उद्देश्य से हटकर सरकार की नित नयी-नयी योजनाओं के क्रियान्वयन में लगा रहता है उसे लगता है कि हमारा जीवन भी इन्हीं योजनाओं को सफल करने में है न कि पढ़ाने में।

शासन/बेसिक शिक्षा विभाग द्वारा सत्र परिवर्तन कर दिया गया, स्कूल सरकारी से कान्वेंट व्यवस्था में बदल दिया गया लेकिन शासन में बैठे अधिकारी अपनी व्यवस्था का सत्र परिवर्तन नहीं कर पाये। किताबें अगस्त में मिलेगी, नया सत्र अप्रैल से चलेंगे । बच्चों की पुरानी किताबों को देखकर मनोबल उठने की बजाय गिर गया, पर अधिकारी/बेसिक शिक्षा विभाग को क्या ? वह उच्चाधिकारियों के आदेश को फॉलोकर लागू कराकर खुश हो गया।

वर्ष 2015-16 में पंचायत चुनाव की 4-4 ड्यूटी शिक्षक के गले की फांस बन गयी, अब पुन: विधान सभा चुनाव के लिए शिक्षक तैयार रहें फिर शिक्षा में गुणवत्ता भी तो देना है कैसे होंगे ? इस पर कोई चर्चा करना नहीं चाहता अपितु गुणवत्ता आया क्यों नहीं यह मात्र प्रश्न बनकर शिक्षक के लिए खड़ा रहता है ?

शासन के लोग योजनाओं का क्रियान्वयन धरातल से जोड़कर नहीं करते अपितु राजनीति का लाभ लेने के लिए तैयार करते हैं और उसका समय समय पर क्रियान्वयन करते है,  इसका हश्र क्या होता है ? शिक्षक क्या सही है, क्या गलत है, क्या पहले करना है, क्या बाद में, इसी उधेड़ बुन में लगा रहता अंतत: होता क्या है कि वह दिशा से भटककर, डर कर योजनाओं को सफल करने में लगा रहता है।

    सरकारी स्कूलों का भविष्य कैसे तय होगा यह सबसे बड़ा प्रश्न है? शिक्षक की भूमिका को शासन/बेसिक शिक्षा विभाग किस नजरिये से देखता है यह भी बड़ा प्रश्न है ? क्या शासन/बेसिक शिक्षा विभाग और शिक्षक को नये सिरे से विचार करने की जरूरत नहीं ? क्या यह सम्भव नहीं कि सत्र कान्वेन्ट व्यवस्था के अनुसार चलेगा तो क्यों न नि:शुल्क की व्यवस्था पर विराम लगे? ऐसे बहुत सारे प्रश्न जवाब की प्रतिक्षा में हैं कब इन प्रश्नों पर शासन/बेसिक शिक्षा विभाग के स्तर से विचार किया जायेगा ?

  - द्वारा पुरूषोत्तम सिंह वर्मा जी
           फर्रूखाबाद

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