मन की बात : आज मैं इस व्यवस्था में आने के बाद महसूस कर रहा हूँ कि मैदान के बाहर से खेल को खेलना कितना आसान है, जैसे-जैसे इस व्यवस्था से रूबरू हो रहा हूँ विभाग.........
साथियों नमस्कार ।
"बेसिक शिक्षा न्यूज डॉट कॉम" (www.basicshikshanews.com) के एक मंच "मन की बात" में मुझे अवसर प्राप्त हुआ है कि मैं कुछ अपने विचार और अनुभव आपके बीच प्रस्तुत करुँ।
आज प्राथमिक शिक्षा की मौजूदा स्थिति सर्वविदित है। शिक्षा विभाग से जुड़ने से पूर्व मैं अपने उन मित्रों को कोसता था जो मुझसे पूर्व शिक्षा विभाग से 'प्राइमरी के मास्साहब' के रूप में जुड़े थे मजाक में ही सही उनको ताना देता कि मास्साहबों की वजह से ही प्राथमिक शिक्षा की दुर्गति हुई है कुछ मित्र मजाक समझ मेरी बातों को टाल देते तो कुछ वास्तविक कारण बताने तथा समस्याओं को गिनाने का प्रयत्न करते थे लेकिन मैं सुनने का प्रयास नहीं करता था।
आज मैं इस व्यवस्था में आने के बाद महसूस कर रहा हूँ कि मैदान के बाहर से खेल को खेलना कितना आसान है । जैसे-जैसे इस व्यवस्था से रूबरू हो रहा हूँ विभाग की सच्चाई या कहें कि मकड़जाल से सामना होता जा रहा है। सरकार, प्रशासन ने तो जैसे ठान ही लिया है कि शिक्षा विभाग में शिक्षा के अलावा सब कुछ होगा।
जब मुझे नौकरी मिली तो मैं आम प्रतियोगी लड़के की तरह खुश था लेकिन जो लोग मुझसे मिलते बधाई तो देते लेकिन जब यह बोलते कि तुम्हारी बेेरोजगारी तो दूर हो गयी लेकिन दूसरी नौकरी देखते रहना। मैं सोचने लगता आखिर ऐसा कौन सा अपराध हो गया शिक्षक बनके?
मेरे मन तो आदर्श शिक्षक की छवि रचि बसी थी ; समाज में सम्मान, प्रतिष्ठा सब कुछ तो था लेकिन अब ऐसा क्या हो गया है कि सब मेरे अध्यापक बनने से खुश नहीं? अब मैं उनकी सलाह में छिपी कड़वी व्यथा को समझ पा रहा हूँ।
मीडिया के द्वारा शिक्षकों की नित नई छबि जो गढ़ी जा रही है और समाज के कैनवस पर उकेरा जा रहा है उसको देख लगता है कि उनकी सलाह अपनी जगह सही भी है। परन्तु यदि जमीनी हकीकत पर जाया जाए तो मीडिया केवल एक पक्ष को संज्ञान में लेकर आदर्शों की बात करती है अन्य पक्षों को नगण्य कर देती है जबकि जब से मैं 'प्राइमरी के मास्साहबों' के बीच गरिमामयी पद को प्राप्त कर आया तो मेरे अब तक के अनुभव कहते हैं कि सिर्फ और सिर्फ 'मास्साहब' ही दोषी नहीं हैं कहीं न कहीं बेसिक शिक्षा विभाग का मूल धड़ा भी दोषी है जिसमें हम अभिभावक को भी साफ पाख नहीं कह सकते ।
मित्रों मैं शिक्षकों की और बहुत ज्यादे सरकारी शिक्षा की समस्याओं को नहीं गिना पाऊगां क्योंकि आप लोग खूब अच्छी तरह समझते हैं क्योंकि उससे हम सभी भलीभाँति परिचित हो चुके हैं ।
मेरे मन में यह प्रश्न आ रहा है कि क्या हम अपनी गरिमा, प्रतिष्ठा समाज में पुनः प्राप्त कर सकते हैं क्या? क्या हम भी अपनी वर्तमान छबि, शिक्षा के हालात के लिए जिम्मेदार है?(मुझे लगता है कुछ लोग तो वास्तव में जिम्मेदार हैं जो विद्यालय न जाना अपनी शान समझते हैं)हम प्रतिकूल हालात होने के बावजूद क्या कुछ बेहतर कर सकते हैं?
मेरे अनुसार सभी प्रश्नों का जवाब हाँ में है। यह केवल हम(शिक्षक समुदाय) ही हैं जो लगन से प्रयास कर संभव कर सकते हैं। मैं जानता हूँ यह कार्य कठिन जरूर है लेकिन असंभव नहीं।
हम सभी के साथ अच्छी बात यह है कि हम सब अपने कार्यक्षेत्र की समस्याओं से भलीभाँति परिचित हैं, कहते हैं कि जब समस्या ज्ञात हो तो आधी समस्या हल हो जाती है। हम बुद्धिजीवी वर्ग समझे जाते हैं यदि हम अपने पर आ जाये तो कोई समस्या बड़ी नहीं। सिर्फ जरुरत है अपने कर्तव्य को समझने, ईमानदारी से प्रयास करने और अपने स्वाभिमान और भूले हुए शक्ति को जगाने की। अन्त में विनम्र निवेदन के साथ कि; हमें पूरी ईमानदारी और लगन के साथ प्रयास करना ही होगा क्योंकि सवाल अपने सम्मान, पद, प्रतिष्ठा का है जो दाँव पर लगी है ।
-मौलिक नियुक्ति पा चुके आपका अदना सा 'शिक्षक' साथी
'अरूण कुमार सिंह'
शेष अगली बार।
धन्यवाद ।
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📌 मन की बात : आज मैं इस व्यवस्था में आने के बाद महसूस कर रहा हूँ कि मैदान के बाहर से खेल को खेलना कितना आसान है, जैसे-जैसे इस व्यवस्था से रूबरू हो रहा हूँ विभाग.........
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