मन की बात : शिक्षा कानून बनने के बाद शिक्षा और अधिक अरुचिपूर्ण और बाध्यकारी हो गयी है बेहतर होता कि हम शिक्षा को व्यक्ति की स्वतंत्रता पर छोड़ देते, वहीं अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने अनिवार्य शिक्षा का विरोध करते हुए एक फैसले में कहा था कि बच्चे राज्य के हाथ की कठपुतली नहीं हैं जिसे राज्य.........
🌑 विद्यालय ऐसा हो कि जिसमे प्रवेश के लिए बच्चा अपने घर में जिद करे ।
निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून लागू हुए 6 वर्ष से अधिक हो गए हैं पर गांधी जी द्वारा 1924 में उठाये प्रश्न आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने 1924 में यंग इंडिया में लेख के माध्यम से सरकार से प्रश्न किया था "मैं पूछता हूँ कि क्या सरकार ने सारे बच्चों को प्राथमिक सुविधाये उपलब्ध करा दी हैं ? स्कूल में पढ़ाने के लिए योग्य और प्रशिक्षित शिक्षक मौजूद हैं ? क्या अभिभावकों को शिक्षा के महत्व से अवगत करा दिया है ? क्या सभी विद्यालयों में पर्याप्त भौतिक संसाधन उपलब्ध करा दिए हैं ?और अगर इन सब का उत्तर हां में है तो इसके लिए कानून बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है, और अगर नहीं में है तो कानून बनाने से पहले सरकार को इस प्रश्न का हल ढूंढ लेना चाहिए। "
लगभग 90 साल बाद जब आज शिक्षा को अधिकार घोषित किया गया तब तक भी सरकार इन प्रश्नो का हल नहीं खोज पायी। शिक्षा को अनिवार्य बनाने के लिए शिक्षाविदों और विशेषज्ञों के बहुत से तर्क हैं मसलन शिक्षा निरक्षरता को दूर भगाती है, लोगों को लिखने पढ़ने की दक्षता के साथ विषयों का ज्ञान कराती है, लोगों को अर्थोपार्जन के लिए साधन चुनने की समझ देती है पर क्या केवल इन लाभों के लिए किसी को एक कानून में बांध लेना उचित है?
अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने अनिवार्य शिक्षा का विरोध करते हुए एक फैसले में कहा था कि बच्चे राज्य के हाँथ की कठपुतली नहीं हैं जिसे राज्य अपनी इच्छानुसार अपनी उँगलियों पर नचाता रहे। इसी सम्बन्ध में प्रसिद्ध शिक्षाविद् जान होल्ट ने कहा है कि अनिवार्य शिक्षा मानवाधिकारों का सरासर उल्लंघन है। मनुष्य को अपने बारे में निर्णय लेने का अधिकार है जब राज्य नागरिकों के बारे में निर्णय का अधिकार अपनें हाँथो में ले लेता है तब वह नागरिक अधिकारों की कटौती कर रहा होता है। सीखने की आजादी विचारों की आजादी से जुड़ा मसला है जो कि अभिव्यक्ति की आजादी से भी महत्वपूर्ण है। अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब यह नहीं है कि अभिव्यक्ति के लिए उसे बाध्य किया जाए।
आजादी से अब तक लगभग अनेकों शिक्षा आयोगों के गठन और इन आयोगों की संस्तुतियां अपनाये जाने के बाद भी जब शिक्षा के स्तर में अपेक्षित सुधार ना हुआ तो शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 को देश की चरमराती शिक्षा व्यवस्था में एक परिवर्तन के रूप में देखा गया था, पर राज्यों के ढुलमुल राजनैतिक निर्णयों और नौकरशाही के भ्रष्ट और कामचोर रवैया के कारण हम अपने को वहीँ खड़ा पाते हैं जहाँ से 2009 में चले थे । 6 साल बाद भी अधिकांश राज्य ना तो प्रत्येक गाँव में सरकारी स्कूलों को पर्याप्त भौतिक संसाधन उपलब्ध करा सके और ना ही प्रत्येक कक्षा के लिए शिक्षक। प्रत्येक विद्यालय में स्वच्छ पेयजल और अलग अलग बालक बालिका शौचालय ही उपलब्ध करवा पाने में ही राज्यों की हालत पस्त है । इन 5 वर्षो में जैसे तैसे केंद्र सरकार द्वारा सर्व शिक्षा अभियान के तहत उपलब्ध कराये गए धन से एक अल्प सुबिधा युक्त काम चलाऊ भवन ही उपलब्ध हो सका है पर चिंता यह भी है कि क्या राज्य सर्व शिक्षा अभियान के ख़त्म होने बाद नए भवनों का निर्माण कर पाएंगे और अपने पुराने बनाये गए भवनों की देख रेख कर सकेंगे ?
प्रत्येक कक्षा कक्ष में पर्याप्त फर्नीचर एक अच्छा कार्यालय सुसज्जित प्रयोगशालाएं और हरे भरे खेलकूद के मैदान अभी भी इन स्कूलों के लिए एक सपना ही है। यह कानून इन भौतिक सुबिधाओं के लिए राज्यों के सामने आग्रह सा करता नजर आता है और राज्य भौतिक सुबिधाओं के लिए केंद्र सरकार के सामने हाथ फैलाये नजर आते हैं ऐसे में केंद्र और राज्य के बीच फण्ड की लड़ाई कई राज्यों में आम जनता के बीच आ चुकी है।
शिक्षा अधिकार अधिनियम एक छदम कानून है जिसमे कोई भी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है जबाबदेह लोगों ने जिम्मेदारियों से बच निकलने को सभी आवश्यक जुगाड़ पहले ही कर ली है। केंद्र अपनी जिम्मेदारी राज्य पर थोप देता है और राज्य अपनी जिम्मेदारी विद्यालय प्रबंध समिति पर। विद्यालय प्रबंध समिति जब कोई स्वतंत्र निर्णय लेना चाहती है तब राज्य फिर उसे आदेश में बांधकर अपनी इच्छा पूरी करने को बाध्य कर देता है इस कानून में विद्यालय प्रबंध समिति को विद्यालय विकास से जुडी योजनाएं बनाने और उन्हें लागू करने का अधिकार प्रदान है पर राज्य स्वयं ही अधिकारों को अतिक्रमित करते हुए बल पूर्वक अपने दिए निर्देशों के पालन को बाध्य कर देता है। विद्यालय से जुडी समस्याओं के निदान की बजाय अध्यापकों को ही जिम्मेदार बनाकर उन्हें जेल तक का भय दिखाया जा रहा है।
अभिभावकों को वेहतर शैक्षणिक परिवेश प्रदान कर आकर्षित करने की बजाय राज्य उन्हें कानून का भय दिखाकर पाल्यों को भेजने को बाध्य करता नजर आता है।शिक्षा अधिकार अधिनियम समाज में हर वर्ग और अंतिम व्यक्ति तक शिक्षा पहुचाने के लिए केवल निर्देश देता दिखाई पड़ता है पर यह कैसे संभव हो इसका समाधान प्रस्तुत नहीं करता है।
यहाँ प्रश्न यह भी है कि क्या किसी बालक को जबरन शिक्षा लेने के लिए बाध्य किया जा सकता है? और अगर कोई ऐसा कर रहा है तो क्या यह अपराध की श्रेणी में नहीं आता है? क्या यह व्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन नहीं है? क्या कोई बालक जो विद्यालय में आकर शिक्षा लेने के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार नहीं है उसके मन में जबरदस्ती शिक्षा को भरा जा सकता है ? क्या समाज के सभी छात्र प्रारंभिक शिक्षा को स्वीकार कर पा रहे हैं ? क्या कक्षा कक्ष के सभी छात्र सामान रूप से सीखने को तैयार रहते हैं ? क्या विद्यालय के सभी छात्र बिना ना नुकुर विद्यालय आने को तैयार रहते हैं? अगर किसी छात्रों के समूह से दोस्ती कर उनसे इन प्रश्नों के उत्तर जानने की कोशिश की जाए तो ज्यादातर बच्चों को पढ़ना रुचिकर नहीं लगता है। ज्यादातर छात्र अपने माता पिता के दबाब में स्कूल आते हैं। ज्यादातर छात्रों को पाठ्यक्रम बोझिल लगता है।
शिक्षा के सम्बन्ध में सरकार का नजरिया कुछ और है। सरकार का मानना है कि हर छात्र पढ़ने को लालायित है पर उसे स्कूल नहीं उपलब्ध है। सरकार यह भी मानती है कि हर छात्र का मनोवैज्ञानिक स्तर एक सा है और सभी छात्र एक साथ सभी विषय आसानी से समझ सकते हैं। सरकार यह भी मानती है कि उसके द्वारा बनाया गया पाठ्यक्रम और बताई गयी शिक्षण पद्यति सर्वश्रेष्ठ है इसलिए हर हाल में सभी बच्चों को पढ़ना ही होगा और वही पढ़ना होगा जो सरकार चाहती है और वैसे ही पढ़ना होगा जैसे सरकार चाहती है ? इसका साफ अर्थ है कि सरकार शिक्षा प्रदान करने बाले शिक्षक और ग्रहण करने बाले विद्यार्थी के अधिकारों पर अतिक्रमण कर रही है।
वास्तव में आजादी के 7 दशक बाद भी शिक्षा से जुड़ा प्रशासनिक वर्ग यह ही नहीं समझ पाया कि शिक्षा है क्या ,और इसको देने का उद्देश्य क्या है ? वर्तमान समय में किसी व्यक्ति की नजर में शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य सरकारी नौकरी प्राप्त करना भर है ऐसे में उसे शिक्षा से अधिक आवश्यकता नौकरी प्राप्त करने के लिए अच्छे अंको बाली अंकसूची की होती है और अभिभावक अपने पाल्यों की शिक्षा का प्रबंध इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर करते हैं। वहीँ सरकार की नजर में शिक्षा का उद्देश्य सरकारी सिस्टम के लिए आज्ञाकारी कुशल कामगार पैदा करना भर है। दोनों ही स्तिथियों में शिक्षा अपने मूल उद्देश्य को पूरा नहीं करती है। शिक्षा का मूल उद्देश्य तो शारीरिक ,मानसिक और बौद्धिक रूप से परिपक्व स्वाबलंबी मानव निर्मित करना है। शिक्षा का उद्देश्य मानव जाति में सामाजिक अज्ञानता को दूर कर उन्हें कुरीतियों और जाति बंधन से मुक्त करना है पर कई दशकों से लगातार शिक्षा देने के बाद भी यह व्यवस्था ज्यों की त्यों बरक़रार है और इसमें शिक्षा से कोई फायदा नहीं हुआ है ,बल्कि शिक्षित लोग ज्यादा जातिवादी और संकुचित विचारधारा के होते जा रहे हैं। सरकार का उद्देश्य है कि गरीब और बंचित वर्ग को शिक्षित कर उन्हें अधिक से अधिक सरकारी नौकरी प्रदान कर समाज की मुख्यधारा में शामिल करना है। पर इससे समाज में वर्षों से पनप रही असमानता कहाँ दूर हुयी।
शिक्षा अधिकार कानून में राज्यों को शिक्षा प्रदान करने की शक्तियां दे दी गयी हैं पर राज्य केवल विद्यालय का निर्माण कर अपने दायित्व को पूर्ण मान रहा है । राज्यों के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है कि बिना नौकरी की गारंटी के एक गरीब अपने बच्चे को शिक्षा क्यों दिलाये। वह तो अपने बच्चे को स्कूल से दूर समाज की विसंगतियों के बीच रखकर सामाजिक शिक्षा देना चाहता है उसे लगता है कि विद्यालय की गणित विज्ञान और भूगोल से अधिक आवश्यक दो वक्त की रोटी कमाने की कुशलता हांसिल करना है उसे अपने अनुभवों के आधार पर पता है कि सरकार कुल शिक्षित किये गए युवकों में से केवल 5 प्रतिशत को ही रोजगार देती है उसे यह भी पता है विद्यालय में पढ़ाये जाने बाले इतिहास का दैनिक जीवन में कोई महत्व नहीं है जबकि उसका इतिहास उसे पता है जो ज्यादा महत्वपूर्ण है। ऐसे में दो बक्त की रोटी की जुगाड़ में शरीर को तपाने बाले किसान और मजदुर को किस तरीके से जागरूक किया जाए इसका उत्तर राज्य देने में असमर्थ है और उसकी चुप्पी उसकी मनोदशा बयां करने को पर्याप्त है।
शिक्षा कानून बनने के बाद शिक्षा और अधिक अरुचिपूर्ण और बाध्यकारी हो गयी है वेहतर होता कि हम शिक्षा को व्यक्ति की स्वतंत्रता पर छोड़ देते। विचारकों का मानना है कि शिक्षा के कानून के बाद दलित और बंचित वर्ग को शिक्षा के ज्यादा मौके मिलेगे और समाज में बदलाव होगा, तो क्या इस अधिकार से पहले सरकारी विद्यालयों में दलित और बंचित का प्रवेश निषेध था ? क्या इस अधिकार से पहले सभी छात्रों को सरकारी स्कूल में प्रवेश में समस्या थी? क्या इस अधिकार के आने के बाद सभी दलित और बंचित वर्ग के लोग अपने पाल्यों का प्रवेश शत प्रतिशत करा देंगे और उनकी उपस्थिति शत प्रतिशत सुनुश्चित करेगें?
इस कानून के 6 वर्ष बाद भी समाज की मनोदशा में कोई ऐसा विशेष बदलाव नहीं दिखा। अभी भी अध्यापकों को ग्रामीण क्षेत्र में बच्चों को स्कूल तक लाने में उतना ही संघर्ष करना पड़ रहा है जितना इस कानून से पहले करना पड़ रहा था। शिक्षा के लिए उत्सुक व्यक्ति पहले भी अपने पाल्यों को अच्छे विद्यालय में शिक्षित कर रहा था और आज भी कर रहा है। तो इस कानून से समाज की मनोदशा में क्या परिवर्तन हुआ ।
अगर कोई व्यक्ति यह कहे कि वह अपने बच्चे को नहीं पढ़ाना चाहता है तो क्या उसे पढ़ाने के लिए बाध्य किया जा सकता है ऐसी स्तिथि में क्या वह व्यक्ति बच्चे के अध्ययन में बाधक नहीं बनेगा ? क्या ऐसी स्तिथि में सरकार का यह कर्त्तव्य नहीं है कि उस व्यक्ति को अपने पाल्य की शिक्षा के लिए प्रेरित करे। अगर किसी अभिभावक की इच्छा के विरुद्ध कोई छात्र विद्यालय आना चाहे तो इस स्तिथि में क्या उपाय है। मनोवैज्ञानिक राथबार्ड का कहना है कि सभी बच्चे शिक्षा प्राप्त करने लायक होते है यह केवल एक खोखली अवधारणा है । बस्तुतः सभी बच्चों की योग्यता एक जैसी नहीं होती है कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जिनमे शिक्षित होने की क्षमता ही नहीं होती है ऐसे बच्चों को बार बार स्कूल लाने से उनके सीखने की गति में रूकावट पड़ती है।बच्चों को जबरन स्कूल भेज देना कोई परोपकार नहीं है राज्य द्वारा सभी को एक सांचे में ठूंसना एक हिटलरी कार्य है।
वास्तव में हम अभी तक ऐसे प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना ही नहीं कर सके जो बच्चों को अपनी और आकर्षित कर सके। जिसमे कदम रखते ही बच्चों में उत्साह और उल्लास का माहौल पैदा हो। ऐसा स्कूल में जिसमे कोई पाठ्यक्रम ना हो जिसमे बच्चों की इच्छा से शिक्षण हो जिसमे बच्चों को करके सीखने का अवसर मिले। ऐसा स्कूल हो जिसमे आने के लिए बच्चा अपने घर से भागे। ऐसा स्कूल हो जिसकी दीवारें बच्चों को अच्छी लगें ऐसे अध्यापक हो जिनका इंतज़ार बच्चे स्कूल खुलने से पहले करें और आते ही उनके पैरों से लिपट जाए ,ऐसा स्कूल हो जिसमे घंटा बजने की बाध्यता ना हो और अध्यापक को पाठ्यक्रम में ना बंधना पड़े। ऐसा विद्यालय हो जिसमे प्रवेश के लिए बच्चा अपने घर में जिद करे। ऐसा विद्यालय जिसमे विद्यालय परिवार और अभिभावक योजना बनाने और उन्हें लागू करने के लिए स्वतंत्र हों और सरकार विद्यालय प्रबंध समिति के प्रस्ताव को मानने में आनाकानी ना करे।और अगर ऐसा होता है तो शिक्षा अधिकार कानून गैर प्रासंगिक हो जायेगा।
अवनीन्द्र सिंह जादौन
महामंत्री,
टीचर्स क्लब उत्तर प्रदेश
278, कृष्णापुरम कॉलोनी इटावा
उत्तर प्रदेश
1 Comments
📌 मन की बात : शिक्षा कानून बनने के बाद शिक्षा और अधिक अरुचिपूर्ण और बाध्यकारी हो गयी है बेहतर होता कि हम शिक्षा को व्यक्ति की स्वतंत्रता पर छोड़ देते, वहीं अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने अनिवार्य शिक्षा का विरोध करते हुए एक फैसले में कहा था कि बच्चे राज्य के हाथ की कठपुतली नहीं हैं जिसे राज्य.........
ReplyDelete👉 http://www.basicshikshanews.com/2016/03/blog-post_36.html