मन की बात : मिड-डे मील और पढ़ाई का हाल! मिड-डे मील योजना की शुरुआत करने के पीछे एक मकसद ये भी था कि बच्चे भोजन मिलने की वजह से स्कूल जाने में रुचि दिखाएंगे परन्तु भोजन और पढ़ाई को एक साथ जोड़कर देखा गया, किंतु यह अर्द्धसत्य प्रतीत होता है,पढ़ाई का सीधा सा संबंध अच्छे...........
प्राथमिक स्कूलों में फरवरी 2002 से सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार पांचवीं दर्जे तक के बच्चों को गर्म पौष्टिक खाना दिया जाने लगा। इसके बाद इस व्यवस्था पर और भी चिंतन हुआ तो 2007-08 के आसपास आठवीं दर्जे तक के बच्चों को भी दोपहर में भोजन दिया जाने लगा। इस व्यवस्था के आने से जन-जन को खुशहाली भी हुई कि बच्चों को अब स्कूल में पढ़ाई के साथ भोजन भी मिलेगा, यानी कि कम से कम गरीब घर के बच्चों को भूखा बिल्कुल नहीं रहना पडे़गा। परंतु क्या दोपहर के भोजन से ही बच्चों का पेट भरा रहेगा, यह अर्द्धसत्य है क्योंकि दोपहर के बाद शाम और रात का भोजन ही नींद में सहायक होता है। स्कूल में दोपहर के भोजन से सामाजिक समरसता भी कायम होती है। सभी बच्चे बिना किसी भेदभाव के साथ बैठकर भोजन ग्रहण करते हैं।
यह एक बहुत बड़ा सामाजिक बदलाव है, जिसकी जरूरत भारत को है। अभी हाल ही में बिहार के एक शहर से खबर आई थी कि एक अनुसूचित जाति की महिला के खाना बनाने से सामान्य वर्ग के छात्रों के माता-पिता ने एतराज जताया था। परंतु युवा पीढ़ी के युवा आईएएस अफसर ने स्वयं स्कूल में पहुंचकर उस महिला के हाथों से खाना पकवाकर जमीन पर बैठकर भोजन ग्रहण करके सामाजिक समरसता के मूल्यों को बल प्रदान किया। यह एक हालिया उदाहरण है कि भारत जैसे-जैसे युवा पीढ़ी की ओर कदम बढ़ा रहा है, वैसे-वैसे सामाजिक बुराइयों का अंत स्वयमेव होता जाएगा। क्योंकि युवा अस्पृश्यता, लैंगिक भेदभाव जैसी बुराई को धता बताते जा रहे हैं। परंतु पुरातन सामाजिक बुराइयां परछाईं की तरह पीछा कर रही हैं। किंतु जैसे-जैसे सांझ ढलती है, परछाईं गायब होने लगती है, उसी प्रकार सामाजिक बुराइयों की परछाईं लंबी तो प्रतीत होती है, परंतु रात के बाद हर सुबह की तरह सदियों पुरानी बुराई का अंत हो रहा है।
ये मिड डे मील की उपयोगिता है, जो सामाजिक समरसता को बढ़ावा दे रहा है। लेकिन इसके विपरीत एक दूसरा सच ये भी है कि मिड डे मील खाने वाले छात्र दर्जनों की तादाद में स्कूल में ही बीमार हो चुके हैं और बेहोशी की हालत में अस्पताल ले जाना पड़ा था। इतना ही नहीं मिड डे मील भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ता जा रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में 1174 मीट्रिक टन अनाज लापता है। यानी बच्चों का अनाज बिचौलिए खा गए। जबकि एक खबर के अनुसार, 2,22,959 टन अनाज का गबन हुआ या फिफर चोरी हो गया है।
मतलब साफ है कि बच्चों के पेट का निवाला भी भ्रष्ट शासन-प्रशासन के लोग दलालों के माध्यम से आसानी से छीन रहे हैं। मतलब, इस देश में भ्रष्टाचार की जडें मजबूत तो हैं साथ ही ये भ्रष्टाचारी क्रूर भी हैं। आखिर बच्चों का निवाला छीनने वालों की दया-दृष्टि कहां मर जाती है, यह विचारणीय तथ्य है। इस भ्रष्टाचार में गुरुजनों से लेकर बडे़ अफसर व दलाल संलिप्त हैं। कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक यही समस्या जड़ से व्याप्त है। वहीं, कश्मीर के कबीर कालोनी के स्कूल के अध्यापक की मेहरबानी से बच्चों को दोपहर का भोजन मिलता है और इसमें सहायक हैं तो एक छोटे से किराना व्यापारी।
ये भारत के दो पहलू हैं कि जहां एक ओर क्रूर भ्रष्टाचारी रहते हैं तो वहीं इतने दयालु व ईमानदार लोग भी हैं, जो सरकारी पेच फंसने पर मिड डे मील का धन 6 से 8 महीने तक नहीं आने पर भी अध्यापक और किराने वाले की मदद से बच्चों को भोजन मिल पा रहा है। जबकि केंद्र सरकार द्वारा लगभग 6 से 8 महीने तक मिड डे मील का धन आवंटित नहीं किया गया है। मिड डे मील योजना की शुरुआत करने के पीछे एक मकसद ये भी था कि बच्चे भोजन मिलने की वजह से स्कूल जाने में रुचि दिखाएंगे। भोजन और पढ़ाई को एकसाथ जोड़कर देखा गया। किंतु यह अर्द्धसत्य प्रतीत होता है। पढ़ाई का सीधा सा संबंध अच्छे अध्यापकों से और अच्छे स्कूल से है। शिक्षक अच्छी शिक्षा दें और सरकार स्कूल में अच्छी व्यवस्था को प्राथमिकता दे।
जबकि हालात ये हैं कि कान्वेंट स्कूलों और साधारण प्राइवेट स्कूलों की अपेक्षा आज भी सरकारी प्राथमिक व जूनियर विद्यालय पिछडे़ प्रतीत होते हैं। सरकारी स्कूलों को लेकर आज भी अभिभावकों के मन में अच्छी सकारात्मक सोच नहीं है। जो भारतीय परिवार थोड़े से भी अच्छी आय वाले हैं, उनके बच्चे प्राइवेट स्कूलों में ही शिक्षा प्राप्त करते हैं। धनाढ्य परिवारों के बच्चे कान्वेंट स्कूल, इंग्लिश मीडियम स्कूलों की ओर रुख करते हैं। विभेद इतना है कि कारपोरेट घराने, बडे़ अफसरों व प्रादेशिक, राष्ट्रीय नेताओं के बच्चे बडे़ पैमाने पर देश नहीं, विदेशों में शिक्षा ग्रहण करने जाते हैं और इसी तर्ज पर थोडे़ से ज्यादा पढ़े लिखे भारतीय छात्र विदेशों में नौकरी करते हैं। इसलिए तो हाईकोर्ट को पिछले साल ये निर्णय सुनाना पड़ा कि नेताओं व बडे़ अफसरों व सरकारी शिक्षकों के बच्चों का भी सरकारी स्कूलों में पढ़ना सुनिश्चित किया जाए। इसके पीछे सिर्फ यही मकसद था कि सरकारी स्कूलों की स्थिति को सुधारने की तरफ ध्यान आकृष्ट हो।
किंतु इस निर्णय के बाद भी अभी स्थिति जस की तस बनी हुई है और ये भारत की परंपरा बन चुकी है कि कोर्ट के निर्णय के खिलाफ भी याचिका दायर हो जाती है या फिर बीच का कोई रास्ता आसानी से निकाल लिया जाता है। कमोबेश इस निर्णय पर भी कुछ ऐसी ही लीपापोती चल रही है। सरकारी स्कूलों की स्थिति इतनी बद्तर है कि एक सर्वे के मुताबिक देशभर के करीब 90 लाख छात्रों ने अपना नाम कटवा लिया है। क्योंकि अभिभावक और बच्चों का ये मानना है कि खाने से ज्यादा अच्छी पढ़ाई होनी चाहिए। ये सच भी है कि भोजन के साथ अच्छी पढ़ाई ही बच्चों को स्कूल की तरफ आकर्षित कर सकती है। हमारी सरकारें स्मार्ट सिटी व मॉडल सिटी बनाने का खाका खींच रही हैं, लेकिन सरकारी स्कूल कब स्मार्ट होंगे कि उनमें अच्छी व्यवस्था हो और शिक्षक जिम्मेदारी से गुणवत्तापरक शिक्षा प्रदान करें, जिससे भारत का भविष्य संवरेगा। गांवों के हालात आज भी बद्तर हैं और स्कूलों में जितनी सुविधा उपलब्ध है, उतने में भी शिक्षकों के गैरजिम्मेदाराना रवैए से कुछ भी सकारात्मक होने जैसा नहीं प्रतीत होता है, बल्कि कागजी घोड़ों के दौड़ने के साथ हम पिछड़ते जा रहे हैं। नौनिहालों के भविष्य के साथ देश का भविष्य भी चौपट हो रहा है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस योजना में पिछले साल 13,000 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं, अगर यही धन वषोंर् पहले सरकरी स्कूलों को स्मार्ट बनाने व गुणवत्तापरक शिक्षा के लिए खर्च किया जाता तो बेशक शिक्षा और भोजन एक ही सिक्के के दो पहलू साबित होते। संभव है कि स्थिति इतनी अच्छी होती कि हर घर खुशहाल होता, गरीबी की जगह अबतक इतनी अमीरी होती कि मिड डे मील को लागू करने जैसी आवश्यकता न होती। स्कूल सामाजिक समरसता कायम करने के बहुत बडे़ माध्यम होते हैं। जहां जातिवाद व धार्मिक भेदभाव नहीं होता, केवल शिक्षा ही वह माध्यम है, जिससे आने वाली पीढि़यां जागरूक होती है और बुराई का नाश धीरे-धीरे होता जाता है। इसलिए अभी भी समय है कि सरकार मिड डे मील में आवश्यक बदलाव करे। इस योजना को अब तक कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स से भी नहीं जोड़ा गया है। अतएव केंद्र सरकार व विपक्ष को मिड डे मील पर पुन: विचार करने की आवश्यकता है। साथ ही प्रत्येक छात्र को पौष्टिक आहार मिल सके, इसके लिए अधिक बजट आवंटित किया जाए।
यह कहना अतिश्योक्ति होगी कि इस योजना को बंद कर दिया जाए, क्योंकि भूख मिटाने को एक निवाला ही बहुत है। कम से कम कुछ गरीब बच्चों को भोजन तो मिल ही रहा है। किंतु देश की भलाई इसी में है कि अच्छे भोजन के साथ अच्छी शिक्षा मिले तो अभी भी समय है समाज को जागरूक हो जाना चाहिए, वो बच्चों की पढ़ाई में मदद करें और स्कूल की व्यवस्था तथा अध्यापकों की तरफ सीसीटीवी कैमरे की तरह नजर रखें।
सरकारी स्कूलों के अध्यापकों को अच्छी शिक्षा देने के लिए अभिभावक भी प्रेरित करें और आवश्यकता पड़ने पर दबाव भी बनाएं। केंद्र व राज्य की सरकार स्मार्ट स्कूल बनाने पर ध्यान दें, इंफ्रास्ट्रक्चर अच्छा होगा तो स्कूल की तरफ आकर्षण बढ़ेगा, पढ़ाई के साथ खेलकूद पर विशेष ध्यान दिया जाए, क्योंकि शिक्षा का अर्थ बच्चों को नौकरी के लिए ही तैयार करना नहीं होता है। जब गांवों में अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त स्कूल होंगे, तब शिक्षकों की मदद से वास्तव में भारत का भविष्य स्वर्णिम होगा।
= सौरभ द्विवेदी
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📌 मन की बात : मिड-डे मील और पढ़ाई का हाल! मिड-डे मील योजना की शुरुआत करने के पीछे एक मकसद ये भी था कि बच्चे भोजन मिलने की वजह से स्कूल जाने में रुचि दिखाएंगे परन्तु भोजन और पढ़ाई को एक साथ जोड़कर देखा गया, किंतु यह अर्द्धसत्य प्रतीत होता है,पढ़ाई का सीधा सा संबंध अच्छे...........
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