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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

मन की बात : सरकारी स्कूल अगर बीमार हैं तो इसकी जिम्मेदार कोई और नहीं सरकारें हैं, शिक्षा को स्कूलों के एजेंडे से गायब कर दिया गया है और इसकी जगह पर शौचालय, एमडीएम व सतत् व व्यापक मूल्यांकन प्रणाली यानी सीसीई को प्राथमिकता मिल गई है, इस कारण सारा जोर आंकड़े दुरुस्त करने पर हैं और स्कूल एक तरह से डाटा कलेक्शन एजेंसी.........

मन की बात : सरकारी स्कूल अगर बीमार हैं तो इसकी जिम्मेदार कोई और नहीं सरकारें हैं, शिक्षा को स्कूलों के एजेंडे से गायब कर दिया गया है और इसकी जगह पर शौचालय, एमडीएम व सतत् व व्यापक मूल्यांकन प्रणाली यानी सीसीई को प्राथमिकता मिल गई है, इस कारण सारा जोर आंकड़े दुरुस्त करने पर हैं और स्कूल एक तरह से डाटा कलेक्शन एजेंसी.........

सरकारी स्कूल हमारे देश की सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था की बुनियाद हैं, ये देश के सबसे वंचित व हाशिए पर पहुंचा दिए गए समुदायों की शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। देश की शिक्षा व्यवस्था के निजीकरण और इसे मुनाफा आधारित बना डालने का मंसूबा पाले लोगों के रास्ते में भी सरकारी स्कूल सबसे बड़ी रुकावट हैं। तमाम हमलों और विफल बना दिए जाने की साजिशों के बीच इनका वजूद कायम है और आज भी जो लोग समान शिक्षा व्यवस्था का सपना पाले हुए हैं, उनके लिए यह उम्मीद बनाए रखने का काम कर रहे हैं।

90 के दशक में उदारीकरण आने के बाद से सार्वजनिक सेवाओं पर बहुत ही सुनियोजित तरीके से हमले हो रहे हैं और उन्हें नकारा, चुका हुआ व अनुपयोगी साबित करने हर कोशिश की जा रही है। एक तरह से सार्वजनिक सेवाओं का उपयोग करने वालों को पिछड़ा और सब्सिडीधारी गरीब के तौर पर पेश किया जा रहा है। उच्च मध्यवर्ग और यहां तक कि मध्यवर्ग भी अब सावर्जनिक सेवाओं के इस्तेमाल में बेइज्जती सा महसूस करने लगा है, उनको लगता है इससे उनका क्लास स्टेटस कम हो जाएगा। इसकी वजह से सरकारी सेवाओं पर भरोसा लगातार कम हो रहा है। कायदे से तो इसे लेकर सरकार को चिंतित होना चाहिए था, लेकिन सरकारी तंत्र, राजनेता और नौकरशाही इन सबसे खुश नजर आ रहे हैं, चूंकि निवेश और निजीकरण सरकारों के एजेंडे में सबसे ऊपर आ चुके हैं, इसलिए सामाजिक सेवाओं में सरकारी निवेश को सब्सिडी कहकर मुफ्तखोरी के ताने मारे जा रहे हैं और इन्हें कम या बंद करने का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं दिया जा रहा है।

हमारे सरकारी स्कूलों में भी धीरे-धीरे नेताओं, नौकरशाहों, बिजनेस और नौकरीपेशा लोगों के बच्चों का जाना लगभग बंद हो चुका है, अब जो लोग महंगी और निजी स्कूलों की सेवाओं को अफोर्ड नहीं कर सकते हैं, उनके लिए सस्ते प्राइवेट स्कूल भी उपलब्ध हैं, इनमें से कई तो सरकारी स्कूलों के सामने किसी भी तरह से नहीं टिकते हैं, लेकिन फिर भी लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूल की जगह कमतर, लेकिन निजी स्कूलों में भेजना ज्यादा पसंद करते हैं। और तो और अब स्वयं सरकारी स्कूल के अध्यापक भी अपने बच्चों को प्राईवेट स्कूलों में भेजने को तरजीह देने लगे हैं। यह स्थिति हमारी सावर्जनिक शिक्षा व्यवस्था की त्रासदी बयान करती है।

आज हमारे स्कूल भी हमारी आर्थिक और सामाजिक गैरबराबरी के नए प्रतीक बन गए हैं। यह बहुत आम जानकारी हो चुकी है कि किस तरह से नेताओं, अफसरों और व्यपारियों के गठजोड़ ने सावर्जनिक शिक्षा को दीमक की तरह धीरे-धीरे को चौपट किया है, ताकि यह दम तोड़ दें और उनकी जगह पर प्राइवेट क्षेत्र को मौका मिल सके। इसलिए जब कुछ अपवाद सामने आते हंै तो वे राष्ट्रीय खबर बन जाते हैं। 2011 में इसी तरह की एक खबर तमिलनाडु से आई थी, जहां इरोड जिले के कलेक्टर डॉ. आर आनंद कुमार ने जब अपनी छह साल की बेटी को एक सरकारी स्कूल में दर्ज कराया तो यह घटना एक राष्ट्रीय खबर बन गई। स्कूल स्तर पर भी इसका असर देखने तो मिला था, कलेक्टर की बच्ची के सरकारी स्कूल में जाते ही सरकारी अमले ने उस स्कूल की सुध लेनी शुरू कर दी और उसकी दशा पहले से बेहतर हो गई।

जाहिर है, अगर यह अपवाद आम बन जाए तो बड़े बदलाव देखने को मिल सकते हंै। शायद इसी को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2014 में केंद्र सरकार से कहा था कि जिस तरह से सरकारी मेडिकल कॉलेज सबसे अच्छे माने जाते हैं। उसी तरह से सरकार देशभर में अच्छे स्कूल क्यों नहीं खोलती है, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी पिछले साल अगस्त में एक महत्वपूर्ण फैसला देते हुए यूपी सरकार से कहा था कि जन-प्रतिनिधियों व सरकारी खजाने से वेतन या मानदेय पाने वाले हर व्यक्ति के बच्चे का सरकारी स्कूल में पढ़ना अनिवार्य किया जाए और इसकी अवहेलना करने वालों पर कड़ी कार्यवाही हो। इस फैसले का आम जनता द्वारा तो खूब स्वागत किया गया, लेकिन संपन्न वर्ग की प्रतिक्रिया थी कि पालकों को यह आजादी होनी चाहिए कि उन्हें अपने बच्चों को कहां पढ़ाना है। यह एक ऐसा दौर है, जब तमाम ताकतवर और रुतबे वाले लोग सरकारी स्कूलों के निजीकरण के लिए पूरा जोर लगा रहे हैं, इसके लिए खुले तौर लाबिंग की जा रही है, यह लोग सरकारी स्कूलों को ऐसा सफेद हाथी बता रहे हैं, जो चुका हुआ भ्रष्ट, निष्क्रिय और बोझ बन चुका है। सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी नाम की कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारीनुमा एक सामाजिक संस्था है, जिसका मानना है कि सरकारी स्कूल भारत के बच्चों की जरूरतों पर खरे नहीं उतर रहे हैं, इसीलिए यह निजी स्कूलों की वकालत करती है और जनमत बनाने का काम करती है। सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी द्वारा स्कूल चयन अभियान नाम से एक परियोजना चलाई जा रही है, जिसके तहत स्कूलों की जगह छात्रों को फंड देने की वकालत की जा रही है, जिसे वे स्कूल वाउचर का नाम दे रहे हैं, उनका तर्क है कि इस वाउचर के सहारे गरीब और वंचित परिवारों के बच्चे भी अपने चुने हुए स्कूलों में पढ़ सकेंगे।

जाहिर सी बात है, इससे उनका मतलब निजी स्कूलों से है। सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी की एक प्रमुख मांग यह भी है कि आरटीई कानून को लेकर उस गुजरात मॉडल को अपनाया जाए, जहां निजी स्कूलों की मान्यता के लिए जमीन व अन्य आवश्यक संसाधनों में छूट मिली हुई है और लर्निंग आउटपुट के आधार पर मान्यता का निर्धारण होता है। इस साल फरवरी में निजी स्कूलों के संगठन नेशनल इंडिपेंडेंट स्कूल्स एलांयस यानी नीसा द्वारा इसी मांग को लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक प्रदर्शन भी किया गया है, जिसमें प्रधानमंत्री से स्कूलों की मान्यता के मामले में गुजरात मॉडल को देशभर में लागू करने की मांग की गई थी। दरअसल, यह ढील इसलिए मांगी जा रही है, क्योंकि लाखों की संख्या में प्राइवेट स्कूल शिक्षा अधिकार कानून के मानकों को पूरा नहीं कर रहे हैं, इसलिए उनपर बंद होने का खतरा मंडरा रहा है।

दरअसल, हमारी शिक्षा व्यवस्था सफेद नहीं, बीमार हाथी की तरह है, जिसे गंभीर इलाज की जरूरत है, लेकिन समस्या यह है कि हर कोई इसका अपने तरह से इलाज करना चाहता है। यहां सूंड और पूंछ की कहानी सच साबित हो रही है और कुछ लोग इस भ्रम को और बढ़ाकर शिक्षा को अपनी दुकानों में सजाना चाहते हैं।

सरकारी स्कूल अगर बीमार हैं तो इसकी जिम्मेदार कोई और नहीं सरकारें हैं, शिक्षा को स्कूलों के एजेंडे से गायब कर दिया गया है और इसकी जगह पर शौचालय, एमडीएम व सतत व व्यापक मूल्यांकन प्रणाली यानी सीसीई को प्राथमिकता मिल गई है, सारा जोर आंकड़े दुरुस्त करने पर है और स्कूल एक तरह से डाटा कलेक्शन एजेंसी बना दिए गए हैं, कागजी काम बहुत हो गया है और शिक्षकों का काफी समय आंकड़े जुटाने व रजिस्टरों को भरने में ही चला जाता है। हर काम के लिए लक्ष्य और निश्चित समयावधि निर्धारित कर दी गई है, हमारे शिक्षकों का सारा ध्यान इसी लक्ष्य को पूरा करने की जोड़-तोड़ लगा रहता है। हमारे स्कूल ऐसी प्रयोगशाला बना दिए गए हैं, जहां हर कोई विचारों और नवाचारों को आजमाना चाहता है। देश के लगभग 20 फीसदी स्कूल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं, समुदाय के लोगों की ज्यादा रुचि स्कूल में होने वाली शिक्षा की जगह वहां हो रहे आर्थिक कामों में अपना हिस्सा मांगने में दिखाई पड़ने लगी है। शिक्षकों के लिए किसी भी तरह के प्रोत्साहन की व्यवस्था नहीं है, उलटे सारी नाकामियों का ठीकरा उन्हीं के सिर पर थोप दिया जाता है।इन तमाम समस्याओं से जूझते हुए भी हमारी सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था अपने आप को बनाए और बचाए हुए है और दौड़ नहीं तो कम से कम चल रही है।

मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अनुसार, देशभर में करीब दो लाख सरकारी स्कूल हैं, जहां 13.8 करोड़ बच्चे पढ़ते हैं, जबकि प्राइवेट स्कूलों में करीब 9.2 करोड़ छात्र पढ़ते हैं, यानी अभी भी सरकारी स्कूल ही हैं, जो तमाम कमजोरियों के बावजूद हमारी शिक्षा व्यवस्था को अपने कंधे पर उठाए हुए हैं और आज भी सबसे ज्यादा बच्चे अपनी शिक्षा के लिए इन्हीं पर निर्भर हैं, जिनमें ज्यादातर गरीब और हाशिए पर पहुंचा दिए गए समुदायों से हैं, इसलिए जरूरी है कि इन्हें मजबूत बनाया जाए, लेकिन यह काम सभी की सहभागिता और सहयोग के बिना नहीं हो सकता है, इस दिशा में राज्य, समाज, शिक्षकों और स्कूल प्रबंधन समिति आदि को मिलकर अपना योगदान देना होगा।

कोठारी कमीशन द्वारा साठ के दशक में ही समान शिक्षा प्रणाली की वकालत की गई थी। मजबूत सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था हमें उस सपने के और करीब ला सकती है।
= जावेद अनीस

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  1. 📌 मन की बात : सरकारी स्कूल अगर बीमार हैं तो इसकी जिम्मेदार कोई और नहीं सरकारें हैं, शिक्षा को स्कूलों के एजेंडे से गायब कर दिया गया है और इसकी जगह पर शौचालय, एमडीएम व सतत् व व्यापक मूल्यांकन प्रणाली यानी सीसीई को प्राथमिकता मिल गई है, इस कारण सारा जोर आंकड़े दुरुस्त करने पर हैं और स्कूल एक तरह से डाटा कलेक्शन एजेंसी.........
    👉 http://www.basicshikshanews.com/2016/03/blog-post_167.html

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