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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

मन की बात : नए दौर में शिक्षक की बदलती भूमिका का सबसे बड़ा कारण आज के परिवेश में भ्रष्टाचार शिष्टाचार का रूप ले लिया है फिर भी शिक्षक को यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि उसने स्वेच्छा से शिक्षक बनना स्वीकार किया है तो राष्ट्र निर्माण व समाज के कल्याण के लिए आगे आना ही होगा........

मन की बात : नए दौर में शिक्षक की बदलती भूमिका का सबसे बड़ा कारण आज के परिवेश में भ्रष्टाचार शिष्टाचार का रूप ले लिया है फिर भी शिक्षक को यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि उसने स्वेच्छा से शिक्षक बनना स्वीकार किया है तो राष्ट्र निर्माण व समाज के कल्याण के लिए आगे आना ही होगा........

हमारे देश में शिक्षक का दर्जा जब तक ऊंचा नहीं होगा, तब तक अध्यापन का पेशा न तो प्रतिभाशाली व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित करेगा और न ही देश से प्रतिभा पलायन को रोका जा सकेगा। दुर्भाग्य यह है कि शिक्षा और शिक्षक के संबंध में अब तक किसी भी सरकार ने सम्यक रूप से विचार नहीं किया, बल्कि टुकड़े-टुकड़े में सोचा गया। परिणाम यह हुआ कि शिक्षा व्यवसाय बन गया और शिक्षक उसका संवाहक। जबकि किसी भी देश की उन्नति में शिक्षा का योगदान सर्वाधिक होता है। अगर शिक्षा और शिक्षक का स्तर गिरता है तो देश को इसका खामियाजा भोगना ही पड़ेगा।
इतिहास गवाह है, जिस देश ने दूरदर्शिता अपनाते हुए बहुत पहले ही शिक्षा और शिक्षक को वरीयता क्रम में सबसे ऊपर रखा, वे आज उन्नति के शिखर पर हैं। लेकिन विश्व की श्रेष्ठतम अध्ययन परंपरा व गुरु की गरिमा को संरक्षण देने वाला भारत आज इस मामले से पिछलग्गू बना हुआ है। देश के स्कूल-कालेजों को श्रेष्ठतम अध्यापक नहीं दिए जा रहे हैं। देश में आज भी 12 लाख से अधिक शिक्षकों के पद खाली हैं। यह स्थिति केवल स्कूल-कालेजों की ही नहीं है, अपितु विश्वविद्यालयों में भी अच्छे समर्पित और प्रतिभावान शिक्षकों का अभाव बना हुआ है। हालांकि शिक्षकों की वर्तमान स्थिति को केवल अधिक वेतन पदोन्नति के अवसर तथा बेहतर कार्यदशाएं प्रदान करके ही नहीं सुधारा जा सकता हैं। शिक्षक की योग्यता और व्यक्तिगत आचरण को भी महत्व देना होगा। यदि इस पेशे में अयोग्य व्यक्तियों को आने से रोका जा सके और ऐसी चयन प्रणाली का विकास किया जा सके, जिससे प्रतिभाशाली व्यक्ति इस पेशे में आ सके तो शिक्षा का स्तर आसानी से सुधारा जा सकता है। यह सर्वविदित है कि हमारे-शिक्षकों का सामाजित स्तर ऊंचा नहीं है। इस संबंध में समय-समय पर गठित आयोगों ने भी अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से पीछे नहीं रहे हैं।
एक सर्वेक्षण से पता चला है कि केवल दस प्रतिशत शिक्षकों ने ही अपने स्वेच्छा से शिक्षक पेशे को अपनाया है। शेष लोगों ने प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण इस पेशे को मजबूरी में अपनाया है। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि 65.5 प्रतिशत माता-पिता आज भी नहीं चाहते कि उनके बच्चे शिक्षक बनें। क्या इस स्थिति से हमारी सरकार अनभिज्ञ है। फिर शिक्षक पेशे को आज तक अहमियत क्यों नहीं दी गई। हमारे यहां एक गलत धारणा यह भी बनी है कि शिक्षकों के स्तर में जो गिरावट आई है, वह आजादी के बाद की घटना है। लेेकिन यह आंकलन सही नहीं है।
इस संबंध में जो प्राप्त दस्तावेज हैं, वे यही बताते हैं कि पहले भी शिक्षकों का स्तर बहुत अच्छा नहीं था। यहां तक कि सन् 1954 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में यह आशा व्यक्त की गई थी कि शिक्षकों का पेशा अन्य पेशे की तरह आकर्षक बने। लेकिन यह आज तक नहीं हो सका है। फिलिप की अध्यक्षता में बनी समिति ने भी शिक्षा तथा शिक्षक की स्थिति पर चिंता जताई। उस समिति ने तो यहां तक कहा कि किसी भी राज्य में शिक्षक का वेतन इतना नहीं है, जो उसे उसके काम के अनुरूप प्रतिष्ठा प्रदान कर सके।
इस रिपोर्ट के बाद कई दूसरे आयोग बने और वे अपनी रिपोर्ट में शिक्षा व शिक्षकों की परिस्थितियों में सुधार का सुझाव देते रहे किंतु केंद्र तथा राज्य सरकारों ने कभी भी रिपोर्ट पर ध्यान नहीं दिया। परिणाम यह है कि आज शिक्षा का पूरा ढांचा ही चरमरा गया है और शिक्षक बेचारा बन कर रह गया है। आजादी के इतने समय गुजर जाने केबाद भी राष्ट्रीय पाठ्यक्रम और वेतनमान नहीं बना सके।
आज के इस वैश्विक युग के व्यक्ति की अवधारणाएं, मान्यताएं व आस्था सुविधा के अनुसार बन-बिगड़ रही हैं। ऐसे में शिक्षक की अपनी गुरु वाली भूमिका का निर्वाह कर पाना एक बड़ी चुनौती बन गया है। इसका यदि ईमानदारी से अन्वेषण करें तो पता चलता है कि इस स्थिति के लिए बहुत हद तक खुद शिक्षक जिम्मेदार हैं। ऐसे में जरूरी है कि शिक्षक अपनी भूमिका खुद तय करे और बदलते वक्त के साथ चलने केलिए तैयार रहें। सच्चाई यह है कि जिस शिक्षक को गुरु की श्रेणी हासिल की, बदलते युग और वैज्ञानिक विकास ने उसी शिक्षक को कठघरे में आज खड़ा कर दिया है। असली गुरु धीरे-धीरे विलुप्त हो रहा है।
यह स्थिति केवल शिक्षक के लिए ही खतरनाक नहीं है, बल्कि उससे पूरा समाज प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष तौर पर प्रभावित हो रहा है। ऐसे में एक शिक्षक की भूमिका और बढ़ जाती है। दुर्भाग्य है कि शिक्षक समाज ईमानदारी से बदलती परिस्थितियों के साथ न तो तालमेल करने को तैयार है और न ही खुद को बदलना चाह रहा है। आज की भौतिक दुनिया में वह भी रातों-रात अमीर बनना चाह रहा है। ऐसे मेें उसे गुरु की भूमिका निभाना कठिन ही नहीं असंभव है। इस भौतिकवादी युग में शिक्षक की श्रेष्ठता तथा विश्वसनीयता दोनों संकट में है। उससे भी बड़ी चुनौती ‘गुरु’ गरिमा के क्षरण को रोकने की है। शिक्षक जिन गुणों के लिए पूज्य रहा, वह आज खतरे में है। तर्क के लिए हम कह सकते हैं कि जब संपूर्ण समाज धन, पद तथा प्रतिष्ठा को पाने के लिए होड़ लगाए है तो अकेले शिक्षक ही उससे कैसे बच सकता है। आज वह भी इसी दौड़ में शामिल हो गया है।
शिक्षक को यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि उसने स्वेच्छा से शिक्षक बनना स्वीकार किया है तो राष्ट्र निर्माण व समाज के कल्याण के लिए आगे आना ही होगा। आज ऐसे शिक्षक की जरूरत है, जो ज्ञान और सूचना केमध्य उत्पन्न अंतर को समक्ष ही न सके बल्कि उसे खत्म करने के लिए आगे आए।यदि व्यक्ति राष्ट्रभाव से शून्य है, राष्ट्रभक्ति से हीन है, राष्ट्र के प्रति सजग नहीं तो यह शिक्षक की असफलता है। व्यक्ति क्या देश की धरती का कण-कण राष्ट्रभक्ति की भावना से मचल उठे, वह शिक्षक की सफलता है। चाणक्य ने जब यह उद्घोष किया था तो स्वर्ण युग था, किंतु उस समय भी सत्ता और सुख पाने की प्रतिस्पर्धा थी।
आज भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन चुका है। मानवीय रिश्ते बेमानी हो रहे हैं। चारों तरफ छीनाझपटी मची है। आज हमारे सामने कोई आदर्श नहीं है। ऐसे में यदि हम किसी वेतनभोगी शिक्षक से ऐसी उम्मीद करें, जिसे चाणक्य शिक्षक में देखना चाह रहे थे तो निश्चय ही आज यह एक विडंबना ही होगी। हमारे कितने ऐसे शिक्षक हैं, जो आज इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं।दूसरी ओर जो सबसे अधिक चिंता का विषय है, वह यह कि हमारे शिक्षकों ने खुद को एक वेतनभोगी कर्मचारी बना लिया है। शिक्षक की भूमिका और जिम्मेदारी को वह भूल चुका है। यही सही है कि आज का शिक्षक घुटने तक की धोती पहने, एक सामान्य सा कुर्ता और आंख में टूटा चश्मा लगाने वाली इमेज यानी छवि से बाहर आ गया है। शिक्षक की पहचान उसके ज्ञान और कौशल के कारण थी। उसके खुद का आचरण केवल शिष्य के लिए नहीं, अपितु समाज के लिए भी आदर्श और अनुकरणीय रहा है।
यही वजह थी कि शिक्षक समाज का मार्गदर्शक ही नहीं अगुवा भी रहा है। शिक्षक को अपनी खोई प्रतिष्ठा पुन: हासिल करने के लिए संकल्प लेने का यह समय आ गया है। लेकिन ऐसी कोई छटपटाहट शिक्षकों में नहीं दिखाई दे रही है। आचार्य देवो भव:, आज के वेतनभोगी शिक्षक पर यह उक्ति लागू नहीं की जा सकती है। जिस आचार्य को देवतुल्य माना गया था, वह अपने आचरण व कार्य दोनों से अपने शिष्य में ज्ञान बांटता था।
= बजरंगी सिंह

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