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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

मन की बात : शिक्षक के लिए आज के भौतिक और आर्थिक वादी परिवर्तन के बीच अबोध सुकोमल नन्हें मुन्ने बच्चे उसके विद्यार्थी कच्चा माल की तरह..........

मन की बात : शिक्षक के लिए आज के भौतिक और आर्थिक वादी परिवर्तन के बीच अबोध सुकोमल नन्हें मुन्ने बच्चे उसके विद्यार्थी कच्चा माल की तरह..........

ये शब्द शायद आपने सुने होंगे जो जाने पहचाने से लगते हैं। यदि नहीं सुनें हों तो हम बताते हैं कि इनका उपयोग उत्पादन के क्षेत्र में होता है। और उत्पादन एक सतत् और व्यापक प्रक्रिया है। जिसकी आधारभूत इकाई  कच्चा माल ही होता है। यही कच्चा माल धैर्य पूर्वक विभिन्न सरल और जटिल तथा तकनीकी प्रकियाओं से गुजर कर एक सर्वोत्तम गुणवत्ता युक्त उत्पाद बनकर तैयार होता है। इस कच्चे माल को पक्का माल बनाने में आलस या लापरवाही की कोई जगह नहीं होती है। यदि लापरवाही की तो उत्पादन गुणवत्ता पूर्ण न होकर गुणवत्ता विहीन हो जाता है। जिसकी कीमत एक कचरे के और व्यवहार प्रदूषण के समान हो जाता है। जो उत्पादन कर्ता आदि सभी के नुकसान और पतन का कारण होता है। यदि मेहनत और सतर्कता से उत्पादन की गुणवत्ता बनाये रखने में कामयाब रहे तो यही से उत्पादन कर्ता के धन, सम्मान और पहचान का रास्ता निकल कर विश्व पटल पर आता है।

ठीक इसी प्रकार एक शिक्षक से भी आज अभिभावक समाज और सरकार उम्मीद करने लगे हैं कि कच्चे मन के सुकोमल बच्चों को आकर्षक उत्पादन के रूप में बनाना होगा।

जबकि शायद वह भूल जाते हैं कि ''पत्थर को तराश कर सजीव दिखने वाली मूर्ति तो बनाई जाती है लेकिन क्या हर पत्थर को तराश कर सजीव मूर्ति बनाया जा सकता है? जहाँ पत्थर तराशने में केवल उस कारीगर का स्वतंत्र मन और विचार स्वयं मूर्ति बनाने की दिशा और दसा तय करता है।" लेकिन एक शिक्षक को स्वतंत्र मन विचार और परिस्थिति के अनुसार काम करने देने की जगह प्रतिदिन नवीन आदेशों के बन्धन कारी चक्रव्यूह की रचना बनाकर भय और अशांत नौकरी रक्षक बना दिया। जबकि विविध मानसिक स्तर के बच्चों से विविधता भरा चुनौती पूर्ण शिक्षण कार्य उसके पास पहले से ही रहता है।

लेकिन फिर भी एक शिक्षक के लिए आज के भौतिक और आर्थिक वादी परिवर्तन के बीच अबोध सुकोमल नन्हें मुन्ने बच्चे उसके विद्यार्थी कच्चा माल की तरह हैं। यदि एक शिक्षक बच्चों के प्रति लापरवाही करता है तो एक उत्पाद के रूप में गुणवत्ता विहीन कचरा जैसा भारतीय नागरिक बनकर तैयार होता है। वह अशिक्षित रह कर अपने आप की जिन्दगी के लिए बोझ के समान बनकर रह जाता है। जो एक क्राइम के रूप में सामाजिक प्रदूषण बनकर मनुष्यता पर आघात करता है। और यही से शुरू होता है उस शिक्षक के सामाजिक पतन और अविश्वास का रास्ता। क्योंकि बाजारीकरण के दौर में गुणवत्ता युक्त उत्पाद ही उत्पादन कर्ता की कसौटी है।

यदि शिक्षक अपने कच्चे विद्यार्थी को पक्का गुणवत्ता पूर्ण उत्पाद बनाने में सफल होता है तो पूँजीवाद और बाजारवाद की ओर बढ़ते समाज में अपना अस्तित्व, धन, सम्मान, यश, और कीर्ति बचाने में सफल व कामयाब रह सकेगा। अन्यथा की स्थितियाँ धीरे- धीरे हम आप सभी के सामने धुंधली ही सही लेकिन दिखाई अवश्य देने लगी हैं।

यदि हम परिस्थितियों वश विश्व गुरु का सम्मान और पहचान नहीं बचा कर रख सकते हैं तो कम से कम एक विद्यालय का टीचर तो बनना ही होगा। जहाँ सेवा शर्तों और काम में सन्तुलन बना कर अपने सुकोमल अबोध बच्चों को कच्चे मन से पक्का सशक्त भारतीय नागरिक बनाने के लिए तमाम अन्तर्विरोधों के बीच से ही रास्ता निकालते हुए तथा अपनी बात और विरोध के रास्ते के साथ आगे बढ़ते चलना ही होगा।

- विमल कुमार कानपुर ( देहात )

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