मन की बात : प्राथमिक शिक्षा में प्रगति और समस्याएं, भारत में शिक्षा अभियानों से जुड़े बहुत से नीति-निर्माता ये मानते हैं कि प्राथमिक शिक्षा की हालत में सुधार के लिए अभी भारत को आने वाले सालों में कठिन..........
यू नेस्को द्वारा दुनिया भर में प्राथमिक शिक्षा की दशा-दिशा का जायजा लेने वाली जारी की गई सालाना रिपोर्ट में भारत में बुनियादी शिक्षा के कार्यक्रमों और अभियानों- जैसे शिक्षा का अधिकार कानून और सर्वशिक्षा अभियान के नतीजों को सकारात्मक बताते हुए कहा गया है कि भारत ने बच्चों को स्कूल भेजने के मानक पर दुनिया में सबसे तेज प्रगति की।
रिपोर्ट के अनुसार जहां भारत में स्कूलों से बाहर रहने वाले बच्चों की संख्या साल 2000 में 2 करोड़ थी तो वहीं साल 2006 में ये संख्या घटकर 23 लाख और साल 2011 में 17 लाख रह गई। हालांकि इस उल्लेखनीय प्रगति के बाद भी भारत स्कूलों से बाहर रहने वाले बच्चों की संख्या के आधार पर तैयार की गई सूची में नीचे से चौथे पायदान पर है।
भारत में शिक्षा अभियानों से जुड़े बहुत से नीति-निर्माता ये मानते हैं कि प्राथमिक शिक्षा की हालत में सुधार के लिए अभी भारत को आने वाले सालों में कठिन चुनौतियों का सामना करना है। खासकर आने वाले सालों में शिक्षा को सार्वभौमिक अधिकार बनाने वाली योजनाओं की सफलता को लेकर कई स्तरों पर संशय कायम है। वैसे खुद भारत में नीति-निर्माताओं का एक हिस्सा है जो यह मानता है कि यूनेस्को द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में भारत के शैक्षिक परिदृश्य का सम्रगता में मूल्यांकन नहीं किया गया है। इस वजह से इस रिपोर्ट के आधार पर भारत में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति के बारे में किसी निष्कर्ष तक पहुंचना सही नहीं है।
शिक्षा पर बने केंद्रीय शिक्षा बोर्ड के सदस्य और शिक्षाविद विनोद रैना रिपोर्ट के निष्कर्षों पर आलोचनात्मक रुख अख्तियार करते हुए कहते हैं कि यह एक तथ्य है कि साल 2000 से लेकर आज तक स्कूलों में नामांकन बढ़ा है, लेकिन आज भी बहुत से बच्चों के नाम महज स्कूल रजिस्टरों पर दर्ज हैं। रैना मानते हैं कि प्राथमिक शिक्षा में हुई प्रगति का मूल्यांकन तीन मानकों- नामांकन की दर, स्कूल में बच्चों की उपस्थिति और उनके स्कूल छोड़ने की दर के आधार पर होना चाहिए। निश्चित ही सिर्फ रैना ही नहीं, बल्कि कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी स्कूल छोड़ने की ऊंची दर को एक बड़ी चुनौती माना है। वर्तमान में स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति दर 70 प्रतिशत जरूर है, लेकिन स्कूल छोड़ने की दर भी 40 प्रतिशत बनी हुई है।
शिक्षाविदों और कार्यकर्ताओं द्वारा व्यक्त की गई ये चिंताएं नाजायज नहीं हैं, लेकिन यह भी सच है कि इस स्तर पर कोई भी व्यापक बदलाव रातों-रात नहीं, बल्कि एक लंबी प्रक्रिया के बाद आ सकेगा। स्कूल छोड़ने की दर ऊंची रहने के कारण भारतीय समाज के जटिल सामाजिक और आर्थिक ढांचे में छिपे हैं जिसमें बदलाव समग्र विकास के साथ आ पाएगा। जाहिर है कि इसके लिए भारत को एक लंबा रास्ता तय करना है। लेकिन असल चिंता के पहलू अन्य हैं और इससे निपटना आने वाले सालों में भारतीय राज्य की प्राथमिकता होनी चाहिए।
यूनेस्को ने अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया है कि भारत शिक्षा की स्थिति सुधारने के लिए दुनिया में सबसे ज्यादा वैश्विक सहायता लेता है, लेकिन रिपोर्ट यह भी बताती है कि मुश्किल वैश्विक आर्थिक हालात के चलते आर्थिक सहायता करने वाली सस्थाएं और देश आने वाले सालों में भारी कटौती कर सकते हैं।
प्राथमिक शिक्षा की स्थिति में सुधार में आर्थिक योगदान देने वाले दस बड़े देशों में छह (कनाडा, फ्रांस, जापान, नीदरलैंड, नार्वे और अमेरिका) कठिन वैश्विक आर्थिक स्थितियों के चलते अपने हाथ पीछे खींच रहे हैं। इस स्थिति से सबसे ज्यादा प्रभावित होने की आशंका भारत की है। अपनी कल्याणकारी भूमिका को पूरा करने के लिए भारतीय राज्य संसाधन और आर्थिक मदद कहां से जुटाएगा, ये एक सवाल है जिस पर विचार की जरूरत है।
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