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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

मन की बात (Man Ki Baat) : घरेलू शिक्षा पर खतरा है क्योंकि विदेशी प्रभावों के कारगर हो जाने से देसी शिक्षा का अस्तित्व खतरे में......

मन की बात (Man Ki Baat) : घरेलू शिक्षा पर खतरा है क्योंकि विदेशी प्रभावों के कारगर हो जाने से देसी शिक्षा का अस्तित्व खतरे में......

संसद के शीतकालीन सत्र के अंतिम क्षणों में पारित हुए कई महत्वपूर्ण विधेयकों के बीच सरकार व विपक्ष की नैरोबी में संपन्न हुई डब्ल्यूटीओ की मंत्री स्तरीय बैठक पर सदन के अंदर गहमा-गहमी विशेष चर्चा का विषय बनी तो वहीं सदन के बाहर डब्ल्यूटीओ मसले पर कई राजनीतिक पार्टियों व सामाजिक संगठनों ने अपनी प्रतिक्रिया भी दर्ज कराई। सामाजिक संस्थाओं तथा देश के शिक्षाविदों की चिंता है कि सरकार की शिक्षा संबंधी इस पहल से देश की शिक्षा अंतरराष्ट्रीय व्यापार का गढ़ न बन जाए। विश्व व्यापार संगठन की बैठक के बाद विषय की प्रासंगिकता इसलिए और बढ़ जाती है, क्योंकि डब्ल्यूटीओ द्वारा जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड इन सर्विसेज के तहत शिक्षा सेवाओं को भी व्यापारिक सेवा के अंतर्गत सम्मिलित कर लिया गया है। हालांकि इस पर अभी किसी तरह के समझौते या नीतियों का क्रियान्वयन नहीं हुआ है, परंतु शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार को आमंत्रित करने की पहल भविष्य के लिए चुनौतीपूर्ण जरूर है।

वर्ष 2001 में दोहा में हुई विश्व व्यापार संगठन की मंत्री स्तरीय बैठक में पहली बार वैश्विक व्यापार के लिए उच्च शिक्षा के द्वार खोले जाने की बात रखी गई थी, जिस पर नैरोबी बैठक में चर्चा की गई। संगठन को अब तक भारत समेत लगभग 60 देशों की सहमति भी प्राप्त हो चुकी है। सदस्य देशों के समक्ष यह भी प्रावधान है कि जो देश चाहे वह समझौते से बाहर रह सकता है। अब चूंकि भारत ने जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड इन सर्विसेज के सारे प्रावधानों को मानने की बात पर हामी भरी है इसलिए भविष्य में भारत का शिक्षा जगत संपूर्ण विश्व के लिए निवेश का बड़ा क्षेत्र बन जाएगा। समझौते के अनुसार जो भी देश शिक्षा के क्षेत्र में व्यापार की इजाजत देगा, उसे अपनी जमीन पर विदेशी कॉरपोरेट घरानों को उच्च शिक्षा में निवेश के लिए देशी संस्थानों के समानांतर संसाधन मुहैया कराना होगा। इस बाबत कई देशों द्वारा डब्ल्यूटीओ के सर्विस क्षेत्र के प्रावधान को मानने से इंकार किया गया है तो कई ने अपनी शर्तें भी रखी हैं। देश के जाने-माने शिक्षाविद अनिल सद्गोपाल ने चिंता व्यक्त की है कि समझौते के क्रियान्वयन में आ जाने से वर्तमान शैक्षणिक फंड जो देश के विश्वविद्यालयों व संस्थानों को मिल पाता है, उसमें बंटवारा संभव है। इसके अलावा देश के स्थापित विश्वविद्यालयों के अनुदानों में कमी आना भी स्वाभाविक हो जाएगा। ऐसे में वैसी ही स्थिति बनने का खतरा है जो आज वित्तरहित शिक्षा संस्थानों और शिक्षकों की है।

शिक्षा क्षेत्र में विश्व व्यापार संगठन के गेट्स नामक इस समझौते के नियमों के तहत एक बात स्पष्ट है कि शिक्षा क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय निवेश होगा, जो न सिर्फ वाणिज्यक मसला होगा, बल्कि मौजूदा राष्ट्रीय शिक्षा नीति में अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप जैसी पहल को भी जन्म देगा। इससे पाठ्यक्रम से लेकर अन्य विषयों पर भी बाहरी हस्तक्षेप बढ़ेगा। संप्रग शासन के दौरान 2005 में ही विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों के अनुसार देश के कानूनी ढांचे को बदलने के लिए शिक्षा संबंधी छह विधेयक संसद में पेश किए गए थे, जिसमें विदेशी विश्वविद्यालयों की अनुमति दिए जाने और यूजीसी, एमसीआइ, एआइसीटीई, एनसीटीई एवं बीसीआइ को हटाने संबंधी विधेयक भी शामिल था। हालांकि इन विधेयकों को पारित नहीं होने दिया गया, लेकिन उच्च शिक्षा में देखे गए हालिया परिवर्तन भविष्य के लिए आशंका पैदा करने वाले हैं। सरकार चाहे किसी भी दल की रही है, विदेशी निवेश के लिए सबने दरवाजे खोलने और आसान नीतियां बनाने का प्रयास किया है।

खुले निवेश की स्थिति में चुनौती यह उत्पन्न होती है कि विदेशी प्रभावों के कारगर हो जाने से देसी शिक्षा का अस्तित्व खतरे में आ सकता है। जब भारत द्वारा डब्ल्यूटीओ में पहली बार कृषि क्षेत्र को शामिल किए जाने का प्रस्ताव रखा गया था तब किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि आने वाले 10-20 वर्षों में किसी मसले पर सहमति या असहमति के लिए वैश्विक शक्तियों या विकसित राष्ट्रों द्वारा दबाव बनाया जा सकेगा। आज विश्व व्यापार संगठन के महासचिव द्वारा अमेरिका और यूरोपीय देशों के दबाव में किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली को समाप्त किए जाने की वकालत तथा खुली धमकी आगामी समय के लिए सबक लेने को भी प्रेरित करती है। शिक्षा क्षेत्र के लिए भी ऐसी धमकियां दिए जाने की आशंका बनती है। वर्तमान में सरकार शिक्षा के प्रचार और प्रसार के लिए सार्वजनिक शिक्षा कार्यक्रम का संचालन करती है। अल्पसंख्यकों, दलितों व पिछड़ों के लिए अलग से शैक्षणिक अनुदान का प्रावधान है। नई सरकार द्वारा कौशल रोजगार योजना की शुरुआत भी की गई है। ऐसे सभी सकारात्मक पहलुओं के बीच भारतीय शिक्षा प्रणाली में विदेशी निवेशकों का हस्तक्षेप चुनौतीपूर्ण होगा।

नई सरकार द्वारा आधुनिकीकरण के अंधाधुंध प्रयासों के बीच एक तथ्य स्पष्ट है कि सरकार विश्व बैंक में अपनी रैंकिंग बढ़ाने की कोशिश में है। वैश्विक व्यापार बढ़ाने वाली सरकार की कोशिश निश्चित रूप से सराहनीय है, लेकिन इस क्रम में ग्रामीण भारत की जनसंख्या के प्राथमिक व मौलिक अधिकारों का किसी प्रकार से हनन निंदनीय होगा। हाल ही में सरकार ने सार्वजनिक बैंकों, रेलवे व अस्पतालों में निजी भागीदारी व निवेश जैसी पहल भी की है, जिनका विभिन्न सामाजिक संगठनों द्वारा विरोध भी किया गया है। नैरोबी बैठक से लौटने के बाद चर्चा तेज हो गई कि भारत ने डब्ल्यूटीओ में विकसित देशों के समक्ष घुटने टेक दिए हैं, कृषि क्षेत्र की बहस को आगे बढ़ाए बगैर शिक्षा क्षेत्र को भी दांव पर लगा दिया है। बुद्धिजीवियों और विभिन्न दलों द्वारा भी सरकार से नैरोबी में क्या खोया-क्या पाया का हिसाब किया जाने लगा। लेकिन केंद्रीय वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमन द्वारा सदन में दिए गए आश्वासन से लोगों के बीच संतोष का संचार हुआ है। सरकार द्वारा कोई भी कदम जनहित मात्र में उठाए जाने की प्रतिबद्धता से विवाद पर विराम जरूर लगा है, परंतु आशंकाएं अभी भी बरकरार हैं।

[लेखक केसी त्यागी, जदयू के राज्यसभा सदस्य हैं]

Tags: # Danger ,  # domestic ,  # education ,

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