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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

मन की बात : छोटी नहीं होती पिता की भूमिका जबकि सवैतनिक मातृत्व अवकाश बहुत अच्छी बात है, लेकिन अब वह समय आ गया है, जब हम इसके बराबर पितृत्व अवकाश के बारे में भी............

मन की बात : छोटी नहीं होती पिता की भूमिका जबकि सवैतनिक मातृत्व अवकाश बहुत अच्छी बात है, लेकिन अब वह समय आ गया है, जब हम इसके बराबर पितृत्व अवकाश के बारे में भी............

पिछले साल 'फादर्स डे' से दो दिन पहले वर्जिन समूह के संस्थापक रिचर्ड ब्रेन्सन ने अपने समूह में काम करने वाले पिताओं को एक अनोखा उपहार दिया- पूरे एक साल की सवैतनिक छुट्टी। वहां मसला यह नहीं था कि इतनी छुट्टी कैसे दी जा सकेगी, वहां मुद्दा था बराबरी का, क्योंकि वर्जिन समूह अपने यहां काम करने वाली माओं को पहले से ही एक साल की छुट्टी देता रहा है।

अब जरा अपने देश पर नजर डालते हैं, जहां महिला और बाल कल्याण मंत्री मेनका गांधी यह कोशिश कर रही हैं कि देश में महिलाओं को मिलने वाले 12 हफ्ते के सवैतनिक मातृत्व अवकाश की अवधि बढ़ाकर 26 हफ्ते कराई जाए। वह इसे निजी और सार्वजनिक, सभी क्षेत्रों में लागू करना चाहती हैं। 

इसे लेकर वही आपत्तियां उठाई जा रही हैं, जो आमतौर पर ऐसे मामलों में उठाई जाती हैं- यह कैसे लागू हो पाएगा? छोटी कंपनियां इसका खर्च कैसे वहन कर सकती हैं? अनौपचारिक क्षेत्र में जो महिलाएं दिहाड़ी के हिसाब से काम करती हैं, उनका क्या होगा? लेकिन मैं इस प्रस्ताव से खुश हूं। हालांकि मुझे यह चीज भी खल रही है कि इसके साथ ही पितृत्व अवकाश क्यों नहीं है?

भारत में 12 हफ्ते का सवैतनिक मातृत्व अवकाश देने का कानून साल 1961 से लागू है। और जहां तक ऐसे मौकों पर पिता को छुट्टी देने का सवाल है, तो इसे पूरी तरह कंपनियों पर छोड़ दिया गया है। पिछले साल जब यह खबर आई कि फ्लिपकार्ट और इंंटेल इंडिया जैसी कंपनियों ने अपने यहां दी जाने वाली पितृत्व अवकाश की अवधि पांच दिन से बढ़ाकर दस दिन कर दी है, तो इसे क्रांतिकारी कदम बताया गया था। मई में एक्सेंट्योर इंडिया ने अपने यहां महिलाओं को दिए जा रहे सवैतनिक मातृत्व अवकाश की अवधि को बढ़ाकर पांच महीने कर दिया, इसके साथ ही कंपनी ने एक हफ्ते के पितृत्व अवकाश की घोषणा भी की।

धीरे-धीरे ही बात बनती है, इसलिए मैं इन कोशिशों की आलोचना नहीं कर रही। लेकिन फिर भी मैं पूरी गंभीरता से पूछना चाहती हूं कि मां को पांच महीने का अवकाश देने और इसके मुकाबले पिता को महज एक हफ्ते के अवकाश के पीछे आखिर तर्क क्या है? और अगर आप स्तनपान जैसे तर्क देंगे, तो मैं कहूंगी कि आप गूगल पर जाकर इसके विकल्पों को भी देख सकते हैं।


बीते नवंबर में जब सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें आईं, तो उनमें पुरुष सरकारी कर्मचारियों के लिए गुंजाइश जरूर बनी। पुरुष कर्मचारी अपने पूरे करियर में सिर्फ एक बार दो साल की छुट्टी बच्चे को पालने के लिए ले सकता है। लेकिन इस छुट्टी के साथ ही एक शर्त भी जुड़ी हुई है। यह छुट्टी सिर्फ उन्हीं पुरुषों को मिल सकती है, जो सिंगल पैरेंट हैं, यानी वह पुरुष, जो बच्चे का अकेला अभिभावक है। यानी इसमें भी यह मान लिया गया है कि बच्चे का पालन-पोषण मां की ही जिम्मेदारी है। पिता की जिम्मेदारी तभी हो सकती है, जब मां मौजूद न हो।  

मातृत्व अवकाश जितना ही पितृत्व अवकाश सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व की चीज नहीं है। और इसकी जरूरत सिर्फ इसलिए ही नहीं है कि बच्चे के साथ जुड़ाव बनाने के लिए पिता का उसके साथ रहना जरूरी है। इसकी जरूरत कई और कारणों से है।

अगर हम वास्तव में स्त्री-पुरुष समानता चाहते हैं, तो हमें महिलाओं और पुरुषों के लिए अपनी सोच बदलनी होगी। अभी तक हमारे बच्चों के पालन-पोषण की जो नीति है, उसमें हम यह मानकर चलते हैं कि बच्चों को पालना प्राकृतिक रूप से महिला का काम है और पुरुष का काम है, उन्हें इसकी सुविधा उपलब्ध कराना।

आइसलैंड जैसे प्रगतिशील देश इसे बदल रहे हैं। वहां दोनों अभिभावकों को समान रूप से तीन महीने की छुट्टी दी जाती है। इसके अलावा, दोनों में से किसी एक को तीन महीने की अतिरिक्त छुट्टी भी मिल सकती है। यह छुट्टी मां-बाप में से कौन लेगा, इसे दोनों मिलकर तय कर सकते हैं।

अभिभावकों को बराबर छुट्टियां मिलने से पालन-पोषण में ज्यादा सहभागिता बन सकती है। पूरी दुनिया में बच्चों व बूढ़ों की देखभाल और खाना बनाना, सफाई करना जैसे कामों की ज्यादा जिम्मेदारी औरतों के ऊपर डाल दी जाती है। यह सब ऐसे काम हैं, जिन्हें हम बहुत जरूरी मानते हैं, लेकिन इन कामों को हम वह दर्जा या वह सम्मान नहीं देते, जो हम घर के बाहर किए जाने वाले कामों को देते हैं।

मैकिंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट ने पिछले साल नवंबर में अपने एक अध्ययन में पाया था कि भारत की महिलाएं, यहां के पुरुषों की तुलना में दस गुना ज्यादा अवैतनिक काम करती हैं। पूरी दुनिया के औसत के मुकाबले देखें, तो महिलाओं द्वारा किया गया यह काम तीन गुना ज्यादा है। अगर ये महिलाएं पुरुषों की तरह ही देश की अर्थव्यवस्था में योगदान दें, तो भारत का सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी 2025 तक 16 प्रतिशत बढ़ सकता है।

लेकिन पुरुषों को पितृत्व अवकाश दिए जाने का असर जीडीपी से कहीं आगे जाएगा। इससे देखभाल करने वाले के रूप में पुरुषों की भूमिका और क्षमता को मान्यता मिलेगी। इससे उनमें एक सौम्यता और विनम्रता आएगी, वे सिर्फ सुविधाएं प्रदान करने वाले भर नहीं रह जाएंगे, बल्कि वे एक जिम्मेदार पिता, पुत्र और पति के रूप में सामने आएंगे। पुरुषों को यह पता है कि दांव पर क्या लगा है, इसलिए जब वे पिता बनने वाले होते हैं, तो सवैतनिक छुट्टियों की मांग के लिए वे कभी कोई बड़ी कोशिश    नहीं करते।

ऐसे समय में, जब बहुत सारी कंपनियां महिला प्रतिभाओं को अपने यहां रोके रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं, तब मातृत्व अवकाश के बराबर पितृत्व अवकाश देने के बारे में बात कोई नहीं कर रहा। कई मामलों में तो खुद महिलाएं भी मातृत्व के समय अतिरिक्त अवकाश नहीं लेना चाहतीं। उन्हें लगता है कि कहीं इस वजह से उन्हें कम पेशेवर या कम स्पर्द्धी न मान लिया जाए। एक डर यह भी होता है कि छह महीने बाद जब वे काम पर लौटेंगी, तो कहीं ऐसा न हो कि उनकी सीनियरिटी ही कम हो जाए? या ऐसा न मान लिया जाए कि उनके बिना भी काम चल सकता है। लेकिन अगर दोनों को बराबर छुट्टियां मिलें, तो ऐसे डर खत्म हो सकते हैं।

सवैतनिक मातृत्व अवकाश बहुत अच्छी बात है, लेकिन अब वह समय आ गया है, जब हम इसके बराबर पितृत्व अवकाश के बारे में भी सोचें। पिता को भी  उतनी ही छुट्टियां मिलें, जितनी मां को मिलती हैं। दोनों को तीन-तीन महीने की छुट्टियां देकर इसकी शुरुआत की जा सकती है।
 -नमिता भंडारे, (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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  1. 📌 मन की बात : छोटी नहीं होती पिता की भूमिका जबकि सवैतनिक मातृत्व अवकाश बहुत अच्छी बात है, लेकिन अब वह समय आ गया है, जब हम इसके बराबर पितृत्व अवकाश के बारे में भी............
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