मन की बात में साहित्यशाला : ये नेत्र सजल हो जाते है,मस्तिष्क भ्रमित हो जाता है।जब दर्द लिखूं अध्यापक का,तब ह्रदय द्रवित हो जाता है.....
ये नेत्र सजल हो जाते है,
मस्तिस्क भ्रमित हो जाता है।
जब दर्द लिखूं अध्यापक का,
तब ह्रदय द्रवित हो जाता है।
सहता जीवनपर्यन्त सदा,
रह मौन कुठाराघातों से।
कभी अधिकारी, जनप्रतिनिधि तो,
कभी अपनो के आघातों से।
बन बैठा है दुश्मन देखो,
भाई ही भाई का रण में।
है चाल चली शकुनी ने फिर,
प्रतिनिधियों के संरक्षण में।
दिन-रात जला निज रक्त उदय,
विद्या का दीपक करता है।
फिर भी ना जाने अध्यापक,
क्यों डरा-डरा सा रहता है।
खो गया कहीं है मैत्री भाव,
भाईचारा भी नहीं रहा।
ईर्ष्या और द्वेष चरम पर है।
मन-प्रेम गवारा नही रहा।
मेने देखा कुछ मित्रो को,
करते हैं गुलामी ऑफिस की।
अफ़सर से लेकर चपरासी,
करते हैं दलाली ऑफिस की।
अब बन्द करो छीना झपटी,
हो रहा जुआ सा ऑफिस में।
वीयर,स्कोच और रम छोड़ो,
पियो दूध बतासा ऑफिस में।
बन कर एन.पी, एबी.आर.सी,
पढ़ते अपनी-अपनी फारसी।
स्कूल निरीक्षण के बहाने,
घूमें लखनऊ, दिल्ली, झाँसी।
एक जान की आफत मिड-डे-मील,
जीना मरना दुश्वार हुआ।
है यम समान हर ग्राम प्रधान,
सर पर आकर के सवार हुआ।
कुछ बची जान अब तक बाकी,
वो शिक्षा समिति ले डूबी।
अनपढ़ अध्यक्ष कहे आकर,
मास्टर तेरी खिचड़ी फीकी।
लो आगए डिप्टी साब कभी,
बस इनकी रह गयी थी बाकी।
ना दाल गले इनके आगे,
ना चले किसी की चालाकी।
सब देख रजिस्टर यूँ बोले,
सब गलत..गलत कुछ सही नहीं।
मास्साब धैर्यशाली थे सो,
आँखो से गंगा बही नही।
बोले साहब वेतन रोकूं,
या फिर तुझको सस्पेण्ड करूं।
या डी.एम. साहब से जाकर,
तेरी सारी कम्प्लेण्ड करूं।
कप गए मास्साब अन्दर तक,
और हाथ जोड़ कहने लग गये।
ये लो साहब खर्चा पानी,
कुछ हरे नोट देने लग गये।
पाकर नोटो की ठण्डक से,
साहब का गुस्सा धुंआ हुआ।
साहब का पेट अब पेट नही,
पाताल तोड़ कोई कुंआ हुआ।
लेख : महेन्द्र सक्सेना जी
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