मन की बात (Man Ki Baat) : सातवां वेतन आयोग किसके लिए...?देश में केवल एक करोड़ कर्मचारी और पेंशनधारी हैं... राज्य सरकारों के कर्मचारियों का गणित तो अलग है ही..........
राकेश कुमार मालवीय : सातवां वेतन आयोग किसके लिए...?
#बिहारचुनाव, #दादरी, #बीफ, #असहिष्णु जैसे हैशटैग्स के बीच जब अचानक सातवां वेतन आयोग ट्रेंड होने लगा तो चौंकना स्वाभाविक था... यह आसमान से अचानक नहीं टपका, इसके पीछे लम्बी कवायद थी, लेकिन ऐसे समय में, जब इस पर न कर्मचारी संगठनों का कोई भारी दबाव हो, न जबरदस्त धरने, न लगातार प्रदर्शन, न हड़ताल - इसका आना पतझड़ में बारिश-सरीखा था... याद रखना होगा कि अपने देश में इन गतिविधियों के बिना कोई इतना बड़ा निर्णय नहीं ही लिया जाता है... तमाम 'लोकपाल' धरनों और दबावों के बावजूद इंतज़ार ही कर रहे हैं... इस परिदृश्य में सातवें वेतन आयोग की अनुशंसाएं चौंकाने वाली हैं... अलबत्ता कर्मचारी इससे भी खुश नहीं हैं, उन्हें इनसे ज़्यादा की उम्मीद थी, लेकिन मंद पड़ा बाज़ार तो ज़रूर ही खुश है, इसीलिए देश पर पड़ने वाले डेढ़ लाख करोड़ रुपये के भारी-भरकम बोझ की ठीक-ठाक समीक्षा भी नहीं आ पाई...
देश में केवल एक करोड़ कर्मचारी और पेंशनधारी हैं... राज्य सरकारों के कर्मचारियों का गणित तो अलग है ही... और जैसा कि परंपरा है, राज्य सरकारों के बाद राज्य के कर्मचारियों के दबाव के आगे सरकारों को वेतन-भत्ते बढ़ाने ही पड़ते हैं, तो इस तरह अनुमानित तौर पर देश की अर्थव्यवस्था पर तीन लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ने वाला है... क्या यह भारी-भरकम बोझ सरकारी व्यवस्था के भ्रष्टाचार को दो-चार फीसदी भी कम करेगा, क्या राजीव गांधी के ज़माने से रुपये में 15 पैसे जमीन तक पहुंचने की थ्योरी को जरा भी झुठलाने की गारंटी देगा...?
इस सवाल पर हम बाद में सोचेंगे, लेकिन इस वक्त अदद तो यही है कि आखिर केवल 50 लाख कर्मचारियों को खुश करने की कवायद क्यों, जबकि देश के सात करोड़ किसानों की हालत खस्ता है... क्या यह केवल इसलिए, क्योंकि नीतियां बनाने और निर्णय लेने की भूमिका में वे ही हैं... सांसद-विधायक अपने वेतन-भत्ते बढ़वा लेते हैं, कर्मचारी अपने वेतन-भत्ते बढ़वा लेते हैं, लेकिन समाज के उपेक्षित तबके किसान और मज़दूरों की चिंता कौन करेगा...? क्या यह एक प्रकार की असहिष्णुता नहीं है...?
यह समझना इतना कठिन भी नहीं है... पिछले दो दशकों में आर्थिक उदारीकरण के अनुभवों ने हमें सिखा दिया है... हमने देख लिया है कि बाज़ार किस तरह दबाव बनाकर काम करता है, और अपनी मनवा लेता है... हम समझ गए हैं कि निर्णय तो बाज़ार ही लेता है...
दरअसल सातवां वेतन आयोग लागू होने के बाद का जो मुनाफा है, वह कर्मचारियों के भले से ज़्यादा बाज़ार के भले की बात है... या तो ज़्यादा रकम करों के रूप में सरकार के पास वापस हो ही जाएगी, क्योंकि हमारे देश में कर बचाने की घातक परंपरा है, और उस रकम को हम तमाम निवेश करते हैं, अपनी सुविधा की चीजें बाज़ार से बटोरते हैं.... तो तय है कि भला तो बाज़ार का ही होगा... इस भले में कोई बुराई भी नहीं है, हम तो सातवें क्या आठवें, नौवें और दसवें वेतन आयोग की अभी से पैरवी करते हैं, लेकिन शर्त यही है कि समाज के उपेक्षित तबकों के बलिदान पर यह सब नहीं ही किया जा सकता, जिस देश में कर्ज़ से लदे हज़ारों किसानों ने आत्महत्या कर ली हो, जिस देश का मज़दूर भूखों मरने की कगार पर हो, जिस देश के लाखों नौजवान रोज़गार के लिए चप्पलें घिस रहे हों, उस देश में बजाय इसके कि कृषि के हालात ठीक किए जाएं, बजाय इसके कि मज़दूरों को सुरक्षा दी जाए, बजाय इसके कि नई नौकरियों की जगह बनाई जाए, देश पर इतना बड़ा बोझ लाद देना बेमानी है, यह देश में असमानता को खत्म करने की संविधान की मूल भावना से न्याय नहीं है..........
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