मन की बात ( Man Ki Baat) : बच्चों के सामने किताबें तो हों, पीठ पर बोझ नहीं........
आईआईटियनों के एक समूह ने शिक्षण पद्धति को सुधारने के लिए ऐसा पोर्टल तैयार किया है, जिससे जुड़ने के बाद बच्चों को किताबें या कॉपियां ढोने की जरूरत नहीं
कल्पना कीजिए कि बच्चे स्कूल जा रहे हों और उनकी पीठ किताब-कॉपियों के बोझ तले दबी न हो तो कैसा प्रतीत होगा। लगेगा कि बच्चे स्कूल में पढ़ने नहीं बल्कि मस्ती करने जा रहे हैं। वास्तव में परीक्षाओं के दिनों में अथवा खेलकूद दिवस पर ही बच्चों को भारी स्कूल बैग के बोझ से कुछ आराम मिल पाता है। अन्यथा पूरे वर्ष पीठ पर लदे स्कूल बैग के बोझ तले दबे स्कूली बच्चों पर तरस ही खाया जा सकता है।
किताब-कॉपियों से भरे बैग के बोझ को कम करने की बात तो अरसे से हो रही है, लेकिन बच्चों के स्कूल बैग का बोझ यदि बढ़ नहीं रहा तो कम भी नहीं हो रहा है। इसका उपाय यही हो सकता है कि ऐसा कोई तरीका निकाला जाए जिसमें किताब-कॉपियां तो हों, लेकिन उनका बोझ बच्चों की पीठ पर न हो।
एक तरीका जो कुछ स्कूल अपनाते हैं, उसमें बच्चों की किताब-कॉपियां स्कूलों में ही रखे जाने का प्रबंध होता है। बच्चों को किताब-कॉपियां घर लाने-ले जाने के झंझट में न डाल कर शिक्षण स्थल पर ही रख ली जाती हैं। इस तरीके में बच्चे केवल स्कूल में ही अध्ययन कर पाते हैं, उन्हें घर पर पढ़ाई करने के लिए किताब-कॉपियों का अलग सेट लेना पड़ता है। दूसरा तरीका यह हो सकता है कि मॉडर्न टेक्नॉलजी का उपयोग कर बच्चों को ई-किताब-कॉपियों के जरिए कहीं भी, कभी भी अध्ययन की सुविधा उपलब्ध कराई जाए।
आईआईटियन रजनीश शर्मा की दलील है कि आधुनिक टेक्नॉलजी से जब अपने आसपास के महौल को बदला जा सकता है तो शिक्षा पद्धति में सकारात्मक बदलाव के लिए पारंपरिक शिक्षा पद्धति को आगे ले जाने के मामले में ई-तकनीक को क्यों नजरअंदाज रखा जाए। इसकी शुरुआत बच्चों को किताब-कॉपियों से भरे स्कूल बैग से मुक्ति दिला कर की जा सकती है। इससे उन्हें स्कूल की किताब-कॉपियों को संभाल कर रखने के झंझट से भी मुक्त किया जा सकता है।
रजनीश शर्मा और उनके साथी विद्यानिवास, विनोद गुप्ता आदि आईआईटियनों का एक ग्रुप है जिसने शिक्षण पद्धति को बेहतर बनाने का उद्देश्य सामने रखते हुए ऐसा पोर्टल तैयार किया है। खास बात यह कि इस पोर्टल से जुड़ कर बच्चों को किताबें या कॉपियां ढोने की भी जरूरत नहीं रह जाती। पोर्टल के जरिए मात्र आठ से दस हजार रुपए की लागत वाले टैब की अल्मारी से जब चाहे पुस्तकों तक अपनी पहुंच बनाई जा सकती है। इस टैब में न केवल ई-पुस्तकों की अल्मारी है, बल्कि लिखने के लिए इसमें अनगिनत पृष्ठों वाली कॉपी भी है। ई-ब्लैक बोर्ड है। छात्र और शिक्षक इनका उपयोग उसी प्रकार कर सकते हैं जैसे कि वे सामान्य कॉपी-किताबों का करते हैं। छात्र और शिक्षक सर्वर के माध्यम से एक-दूसरे के कार्यों से जुड़ सकते हैं। यहां तक कि यदि वे शिक्षण संस्थान में मौजूद न हों तब भी वे एक दूसरे से जुड़े रह सकते हैं। इतना ही नहीं संस्थान परीक्षाएं आयोजित करने के लिए भी इस ई-शिक्षण पद्धति का उपयोग कर सकता है।
वास्तविकता यह है कि शिक्षा के प्रसार को तेज करने और प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मुहैया कराने के लिए जो कोई स्वप्न देखे गए या दिखाए गए और उसके लिए जो भी लक्ष्य तय किए गए, वे अब भी कोसों दूर हैं। मिड-डे मील, सर्व शिक्षा अभियान जैसी योजनाएं बच्चों को कक्षाओं तक तो ला पाई हैं, लेकिन ड्रॉप आउट्स की दर पर विशेष अंकुश नहीं लगा है। हालांकि भारी स्कूल बैग का बोझ ड्रॉप आउट्स का एकमात्र कारण नहीं है, लेकिन रजनीश शर्मा जैसों के प्रयास यदि शिक्षा पद्धति को शिक्षण संस्थाओं की समय सीमा की पारंपरिक जकड़न से निकाल कर बच्चों को कहीं भी-कभी भी अध्ययन का मौका दे सकते हैं, तो सरकार और समाज को मिल कर उसका स्वागत ही करना चाहिए। बच्चों को स्कूल न भेज उनसे घरों, खेत-खलिहानों, दुकानों में श्रम करवाने वाले गरीबी से अभिशप्त परिवार भी, सरकार के न्यूनतम सहयोग से, ई-शिक्षा पद्धति का लाभ उठा सकते हैं। तभी सर्व शिक्षा का लक्ष्य पूरा हो सकेगा।
सौजन्य : श्रीकान्त शर्मा
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