निजी तथा सरकारी स्कूलों की तुलना और शिक्षा की गुणवत्ता
शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर आए दिन शिक्षा विभाग पर उंगलियां उठ रही हैं। निजी तथा सरकारी स्कूलों की तुलना आम बात हो गई है। इस तरह की तुलना में अध्यापकों की जवाबदेही या जिम्मेदारी पर सवाल उठाए जाते हैं लेकिन क्या इस तरह की तुलना यह साबित करना चाहती है कि शिक्षा विभाग में योग्य, जिम्मेदार अधिकारी तथा शिक्षक हैं ही नहीं? क्या इन सब चीजों से सरकारी तंत्र की छवि नहीं बिगड़ रही? तो सोचो लोग क्यों ऐसे तंत्र में अपने बच्चों को भेजेंगे? कहीं यह सरकारी तंत्र के खिलाफ षड्यंत्र तो नहीं?

सच तो यह है कि गुणवत्ता के नाम पर शिक्षा विभाग ठगी का शिकार हो रहा है। शिक्षा की गुणवत्ता के नाम पर आए दिन बदलाव तथा भिन्न-भिन्न प्रयोगों से शिक्षा विभाग प्रयोगशाला बन कर रह गया है। कभी पाठ्यक्रम, तो कभी पाठ्यवस्तु, कभी शिक्षण प्रणाली तो कभी मूल्यांकन प्रणाली में हो रहे अंधाधुंध बदलावों से क्या गुणवत्ता आएगी? विभिन्न संस्थाएं शिक्षा विभाग पर अलग-अलग सर्वे करके क्या सरकारी तंत्र को हानि नहीं पहुंचा रहीं? क्या यह हमारी विश्वसनीयता को खतरा नहीं है?
क्या कभी किसी संस्था ने सरकारी या निजी स्कूलों की आधारभूत सुविधाओं की तुलना की है? क्या शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात, अध्यापकों के लम्बे समय से चल रहे रिक्त पद, गैर-शिक्षण कार्य (जनगणना, मतदान आदि), विभागीय डाक, प्रतिनियुक्तियां, सैमीनार, सिविल कार्यों, रचना कार्यों की तुलना निजी स्कूलों से की है, जहां हर कक्षा का अलग अध्यापक है, कोई अन्य कार्य नहीं है? सरकारी स्कूलों में मल्टी ग्रेड टीचिंग (रूत्रञ्ज) प्रणाली के तहत जहां दो अध्यापक पांच कक्षाओं में शिक्षण कार्य करते हैं, वहीं इसी कार्य को निजी स्कूलों के 5 से अधिक अध्यापक करते हैं। जहां सरकारी तंत्र के दो अध्यापक उसी काम को अन्य गैर-शिक्षण कार्यों के साथ कर रहे हैं तो उनकी गुणवत्ता के ऊपर सवाल कैसे उठाए जा सकते हैं? क्या यह तुलना उचित है?
निजी स्कूल मानसिक रूप से पिछड़े बच्चों को दाखिला तक नहीं देते लेकिन सरकारी स्कूल सभी को दाखिला देते हैं। वे सिर्फ अच्छी बुद्धि-लब्धि वाले छात्रों को ही नहीं बल्कि अक्षम बच्चों को भी एक विकास धारा से जोडऩे का प्रयास करते हैं और शिक्षा के सार्वभौमीकरण की अवधारणा को पूरा करते हैं।
गुणवत्ता के पिछडऩे में CCE (सतत् समग्र मूल्यांकन) की भूमिका को कोई नकार नहीं सकता क्योंकि CCE को लागू करने के लिए हमारे यहां ढांचागत सुविधाएं, पाठ्यक्रम, पाठ्यवस्तु, मूल्यांकन प्रणाली (क्या, क्यों और कैसे) सपोर्ट नहीं करते। फिर इसमें गुणवत्ता के लिए कौन जिम्मेदार है? इसी कारण प्रदेश सरकार बार-बार केंद्र सरकार से इसमें संशोधन तथा पुराने पैटर्न को लागू करने का आग्रह करती रहती है।
वहीं दूसरी ओर निजी स्कूलों में स्मार्ट कक्षाएं, एक कक्षा-एक अध्यापक, कोई गैर-शिक्षण कार्य नहीं, वाई-फाई कैम्पस, आकर्षक पुस्तकें, यातायात के लिए अपनी बसें आदि सुविधाओं की सरकारी तंत्र से कैसे तुलना की जा सकती है
उधर उच्चतर शिक्षा में ‘रूसा’ (राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान) के आने से शिक्षण कार्य बाधित हुआ है। अभी तक अधिकांश शिक्षक तथा छात्र इसे समझने में असमर्थ रहे हैं। ‘रूसा’ के तहत एक सिमैस्टर में दो बार आंतरिक परीक्षाएं तथा एक बार बाह्य परीक्षा होती है। प्रैक्टीकल अलग से। इससे शिक्षण कार्य में कमी आई है। आज शिक्षण कार्य 40 प्रतिशत से भी कम हो गया है तथा मूल्यांकन कार्य 60 प्रतिशत से भी बढ़ गया है। जब शिक्षण कार्य ही कम होगा तो उस विषय-वस्तु में गुणवत्ता कहां से आएगी?
इसलिए सरकारी शिक्षा तंत्र और निजी तंत्र की तुलना वर्तमान परिस्थितियों में करना अनुचित ही होगा क्योंकि तुलना के लिए दोनों पक्षों में समान मापदंड, ढांचागत सुविधाएं, कार्य की प्रकृति होना अनिवार्य होता है जिसके लिए मौजूदा परिप्रेक्ष्य उपयुक्त नहीं। तो क्या इस तरह की तुलना मौजूदा कर्मचारियों का मनोबल तोडऩे का कार्य नहीं कर रही? कहीं ऐसा न हो कि इस तरह की तुलना से सरकारी तंत्र का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाए और गरीबों, अक्षमों की सुध लेने वाला ही कोई न बचे। सरकारी तंत्र को भी चाहिए कि वह समाज के अनुकूल आज अपने अतुलनीय कार्यों, क्षमताओं का प्रचार-प्रसार करे ताकि अवाम में सरकारी तंत्र पुन: वह विश्वास हासिल कर सके
Posted via Blogaway
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मन की बात (Man Ki Baat) : निजी तथा सरकारी स्कूलों की तुलना और शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर आए दिन.......
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