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मन की बात (Man Ki Baat) : भीड़ में तन्हाई का अहसास सा क्यों हैं?आज जब फ़ेसबुक पर लोगों के दोस्तों की संख्या सैकड़ों में है और इंसान अकेला महसूस कर रहा है। ऐसा विरोधाभाष यह………………………………

मन की बात : भीड़ में तन्हाई का अहसास सा क्यों हैं?आज जब फ़ेसबुक पर लोगों के दोस्तों की संख्या सैकड़ों में है और इंसान अकेला महसूस कर रहा है। ऐसा विरोधाभाष यह………………………………

क्या दुनिया में संचार के साधनों में बढ़ोत्तरी के साथ इंसानों का अकेलापन भी बढ़ा है? आज जब फ़ेसबुक पर लोगों के दोस्तों की संख्या सैकड़ों में है और इंसान अकेला महसूस कर रहा है। ऐसा विरोधाभाष यह जानने के लिए आकर्षित करता है कि हमारे समाज में यह कैसा बदलाव हो रहा है? हम किस दिशा में आगे जा रहे हैं? क्या संचार के साधन ही हमें लोगों से काटने का जरिया बन गए हैं।

एक दिन मेरे एक दोस्त ने अपनी फ़ेसबुक वॉल पर लिखा,”क्या यह सबके साथ होता है या मैं ही हूँ अकेला, समझ में नहीं आता अब मुझे।” इसे पढ़ने के बाद लगा कि सिर्फ़ औपचारिकता के लिए उनकी पोस्ट को लाइक कर लेना और कमेंट कर देना उचित नहीं होगा। जिस गंभीरता के साथ सामने वाला अपनी बात कह रहा है, उसी जिम्मेदारी वाले अहसास के साथ उसका जवाब भी देना चाहिए। तो लिखते-लिखते बात उनकी बातों से घूमती हुई, आज के जीवन की व्यस्तता और अतीत दिनों की पड़ताल करती हुई आगे बढ़ गई।

इस प्रक्रिया में अकेलेपन के कई सारे आयाम नज़र आए। अकेलेपन की यह भावना केवल उन्हीं के साथ हो ऐसा भी नहीं है। इसलिए उनको अहसास दिलाना जरूरी लगा कि दुनिया में सिर्फ़ आप ही अकेले नहीं है। इस अकेलेपन के साझीदार और भी हैं। हम भी हैं और आप भी हैं। लेकिन सबका अकेलापन और उस अकेलेपन का सामना करने का तरीका अलग-अलग है। मैं अकेला हूँ। केवल मैं ही अकेला हूँ। क्या केवल मैं ही अकेला हूँ? या सब अकेले हैं। सब अकेले ही हैं। सब अकेले भी हैं। यह सारी बातें अलग-अलग हैं। ऐसी ही कितनी और संभावनाएं हो सकती हैं अकेले होने की….जैसे भीड़ में तन्हाई वाली बात कही जाती है। अकेलेपन में भी किसी के साथ होने की कल्पना की जाती है। तेरी याद साथ है जैसी बातें लिखी जाती हैं….तो क्या कहिए। अकेलापन एक सच है। लेकिन आख़िरी सच नहीं…भीड़ का एक हिस्सा अकेलापन भी है। अगर इंसान अकेला न हो तो शायद उसकी बहुत सारी क्षमताएं विकसित नहीं हो पाएंगी। रचनात्मक लोगों के लिए तो यह एक आवश्यकता बन जाती है। वे लोगों के साथ रहते हैं, लेकिन ख़ुद के साथ बिताए लम्हों में वे ज़्यादा सहज होते हैं क्योंकि दुनिया की औपचारिकताओं का निर्वाह उनसे शायद उस तरीके सो न हो पाता हो…जैसा घोर सामाजिक लोगों के साथ होता है।

हर किसी का स्वभाव भी तो एक जैसा नहीं होता। कोई दिन भर कमरे पर रहेगा। ख़ुश रहेगा। लेकिन कुछ लोग अगर दिनभर कमरे से बाहर न निकलें तो उनको लगता है कि कुछ तो अज़ीब हो रहा है….इसको इस रूप में भी देखा जा सकता है। बाकी वर्चुअल दुनिया के आगमन ने लोगों की तन्हाई के अहसास को और गहरा किया है इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। संचार के इतने साधन हैं, लेकिन संचार नहीं है। दूर बैठे लोगों का हाल पता है, लेकिन साथ रहने वाले के हाल से हम अंजान हैं। इस तरह की चीज़ें भी इसी समाज में हो रही हैं। इसके होने की शुरुआत धीरे-धीरे हुई थी। लेकिन अब रफ़्तार बहुत तेज़ है। इसलिए उसका अहसास ज़्यादा गहरा हो गया है। इसका संबंध वक़्त के इस्तेमाल और मनोरंजन के साधनों से भी है। जब मनोरंजन का एकमात्र साधन लोगों के साथ संवाद या वर्चुअल संवाद रह जाए तो ऐसे में संवाद न होने वाली स्थिति में तो अकेलापन बढ़ना तय है।

 पहले हमारे मनोरंजन के साधनों में किताबें पढ़ना, घूमना, खेतों की तरफ़ जाना, शारीरिक रूप से थका देने वाले खेल खेलना था। ऐसे में शाम को हमारी मनःस्थिति आज के समय से बिल्कुल अलग होती थी…जब हम पसीने से लथपथ शाम को घर लौटते थे। अब तो खेलने का स्पेश सिमटता जा रहा है। मोहल्ले से बच्चों के खेलने की आवाज़ें भी कभी-कभार आती हैं। इस दौर में कितना कुछ हो रहा है। हमें अक्सर महसूस होता है कि यह हमारे ही साथ हो रहा है। लेकिन वास्तविकता तो यही है कि यह भावना बहुत से लोगों के मन में आती है। कुछ इसे सीधे अभिव्यक्त कर पाते हैं। निःसंकोच कह पाते हैं तो बाकी लोग इसे जाहिर नहीं कर पाते। इसका एक पहलू प्रोफ़ेशनल लाइफ़ का भी है। आज के समय में काम की व्यस्तता हमारी ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा घेरती है। इस बात से कोई भी इनकार नहीं करेगा।

न्यून्तम आठ-दस घंटे तो काम के सिलसिले में जाते ही हैं। इसके अलावा अगले दिन काम पर आने की तैयारी भी बाकी बचे घंटों में शामिल होती है। उस समय में भी कितनी सारी व्यस्तताएं और जिम्मेदारियों का निर्वाह हम कर रहे होते हैं। कुछ का ख़ुशी-ख़ुशी तो कुछ दबाव के कारण भी। इस परिस्थिति का सामना भले ही हम परिवार नाम की संस्था या मोहल्ले नाम की संस्था या गाँव जैसी इकाई में कर रहे हैं। लेकिन लोगों के साथ संवाद भी तो धीरे-धीरे घटा ही है। अब दूसरों की ज़िंदगी में हमारी दिलचस्पी पहले जैसी नहीं रही। अब कोई फुरसत में किसी बुजुर्ग के पास जाकर नहीं बैठता। क्योंकि समय नहीं है और शायद मन भी नहीं है। उनकी पीढ़ी और हमारी पीढ़ी में ज़मीन-आसमान का फ़ासला है। ऐसे माहौल में इंसान के अकेले होने की थोड़ी-थोड़ी झलक मिलती है। यात्रा, कला, किताब, खेल और लोगों से सीधा संवाद का विकल्प शायद इस अकेलेपन को साझा करने में थोड़ा मदद कर सकते हैं। यह सारी चीज़ें एक सपोर्ट सिस्टम बनाती हैं जो हमें व्यक्तिगत तौर पर मदद करती हैं। इसके साथ-साथ दूसरों पर भरोसा करने और उनकी मदद करने के लिए भी प्रेरित करती हैं।

~बृजेश सिंह

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