उत्तर प्रदेश की प्राथमिक शिक्षा की बदहाली पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपना निर्णय सुनाते हुए प्रशासन को जो ऐतिहासिक आदेश दिया उसके तहत असली मुश्किल यह है कि सार्वजनिक सेवाओं में सुधार स्थानीय नेताओं के एजेन्डे से……………………
जब से जनहित याचिकाओं की शुरुआत हुई है तब से प्रशासन और न्यायिक व्यवस्था के बीच मनमुटाव बढ़ता ही जा रहा है। इसे केंद्र से लेकर जिला स्तर तक पूरे भारत में खुले रूप से महसूस किया जा सकता है और अब उत्तर प्रदेश की प्राथमिक शिक्षा की बदहाली पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपना निर्णय सुनाते हुए प्रशासन को जो ऐतिहासिक आदेश दिया है उसके बारे में प्रशासकों की राय है कि यह तो हद ही हो गई।
पहले हमारे काम-काज में दखल और अब हमारे निजी जीवन के निर्णयों में भी हस्तक्षेप हो रहा है। उच्च न्यायालय ने हाल ही में निर्णयनुमा आदेश दिया है कि सरकारी खजाने से वेतन या सुविधा ले रहे बड़े लोगों के बच्चे जब तक अनिवार्य रूप से प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे तब तक उनकी दशा में सुधार नहीं होगा। आगे चलकर इस निर्णय का अंत चाहे जो भी हो, लेकिन यह निश्चित है कि इसके द्वारा न्यायालय ने न केवल देश की वर्तमान में बेहद ही उपेक्षित नागरिकों के शिकायती भरे विचारों को ही आवाज दी है, बल्कि लोक एवं प्रशासन के बीच के उस रिश्ते की भी याद दिलाई है जो प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार का एक मूलमंत्र हो सकता है। यह मूलमंत्र प्रशासकों को स्वयं को एक सामान्य नागरिक समझकर उन्हीं के बीच शामिल होने का मंत्र है।
भारत रत्न जेआरडी टाटा के बारे में कहा जाता है कि वह अपने मुंबई के दफ्तर के कैंटीन का बना हुआ ही भोजन करते थे। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में न केवल कैंटीन के भोजन की गुणवत्ता ही बनी रहती थी, बल्कि वहां खाना खाने वाले उनके अधिकारी-कर्मचारी भी एक प्रकार के गर्व एवं प्रसन्नता का अनुभव करते थे। यदि इसी तर्ज पर न्यायालय के आदेश को सरकारी स्कूलों, अस्पतालों, सार्वजनिक परिवहनों पर लागू कर दिया जाए तो उनकी स्थिति में अचानक क्रांतिकारी सुधार आने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। इसके कारण अनजान ही प्रतिदिन इन संस्थानों का अप्रत्यक्ष रूप से निरीक्षण होता रहेगा जो फिलहाल शायद ही कभी होता हो।
दरअसल, हमारे यहां राजनीतिक लोकतंत्र के आगमन को तो जरूर 68 साल हो गए हैं, लेकिन सांस्कृतिक लोकतंत्र अभी भी कोसों दूर है। अंग्रेजों ने अपनी प्रशासनिक व्यवस्था के हित में अपने लिए, जिसमें भारतीय अफसर भी शामिल थे, जिस रौब-दाब, सुविधायुक्त विशिष्ट स्थिति की रचना की थी, हमारा राजनीतिक एवं प्रशासनिक वर्ग आज तक उसका सच्चा उत्तराधिकारी बना हुआ है। बड़े-बड़े बंगले, अलग सिविल लाइंस, सरकारी गाड़ियां, घर पर चपरासियों के झुंड आदि आज भी दिल्ली से लेकर जिला स्तरों तक देखे जा सकते हैं। बाद में जैसे-जैसे सरकारी व्यवस्थाएं चरमराने लगीं, जिनके लिए ये लोग ही मुख्यत: जिम्मेदार थे, इस वर्ग ने अपने लिए अपने लिए अलग से व्यवस्थाएं बनानी शुरू कर दीं। सार्वजनिक व्यवस्थाओं से इनका रहा-सहा थोड़ा जो संपर्क था, अब वह भी टूट गया। बाद में जब पूरी दुनिया में थैचरवाद और रीगनवाद का डंका बजने लगा तो इस वर्ग को अपनी इस उपेक्षा को सही ठहराने का एक सैद्धांतिक आधार भी मिल गया।
तो अब देश के सामने एक घोर नैतिक संकट यह है कि किया क्या जाए? क्या सचमुच संसाधनों की कमी ही इसके लिए जिम्मेदार है, जैसा कि इन व्यवस्थाओं से जुड़े सभी लोग लगभग-लगभग इसी एक जैसी भाषा में बोलते हैं या कि राजनीतिक एवं प्रशासनिक वर्ग की गैर-जिम्मेदाराना प्रवृत्ति। दूसरा सच पहले की तुलना में कई गुना अधिक प्रबल है। प्रशासनिक वर्ग से पूछिए तो वह दबी-दबी जुबान में किंतु आक्रोश के साथ शिकायत करता हुआ कहेगा कि ये नेता कुछ करने दें तब ना। यह शिकायत पूरी तरह सही न होते हुए पूरी तरह गलत भी नहीं है। इनके लिए प्रशासनिक अधिकारियों की हैसियत इनके राजनीति की बिसात पर रखे हुए मोहरों से अधिक नहीं रह गई है। तभी तो कोई भी राज्य सरकार केंद्र की अत्यंत व्यावहारिक इस राय को मानने को राजी नहीं हुई कि एक पद पर अधिकारियों की नियुक्ति की अवधि कम से कम तीन साल निश्चित होनी चाहिए।
ऐसा करके उन्हें लक्ष्य दिया जा सकता था, जिसका मूल्यांकन करना भी कठिन नहीं होता। इस प्रकार प्रशासन को लक्ष्योन्मुखी बनाया जा सकता है, जो आज पूरी दुनिया की एक जरूरत हो गई है। यदि कोई अधिकारी कुछ करने की सोचे भी तो उसका हश्र अशोक खेमका और संजीव चतुर्वेदी की तरह होता है।
काफी कुछ सच यह भी है कि राजनेताओं का यह व्यवहार प्रशासन को अपने काफी कुछ अनुकूल भी मालूम पड़ता है, क्योंकि इसकी आड़ लेकर वे जवाबदेही से बड़े आराम से बच निकलते हैं, जबकि यदि राजनेताओं से देश की दुर्गति के बारे में पूछा जाए तो वे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं करते कि ‘ये अफसर कुछ नहीं करने देते।’ वैसे भी मैक्स वेबर के समय से ही नौकरशाही बदनाम है। अमेरिकी राष्ट्रपति के विशेष सहायक पीटर लेवो पिछले दिनों भारत आए थे। उन्होंने बड़े साफ तौर पर कहा कि ‘इस सरकार ने पिछले 15 महीनों में बड़ा अच्छा काम किया है। लेकिन भारत में निवेश के मामले में सबसे बड़ी बाधा यहां की नौकरशाही ही है।’ तो फिर सवाल यह है, दुविधा यह है कि किया क्या जाए। सार्वजनिक सेवाओं में सुधार स्थानीय नेताओं के एजेंडे से बाहर रहता है।
मुश्किल यह है कि जनता भी इस तरह की मांगों को लेकर नारे नहीं लगाती। जिले में दंगे होने पर सरकार इसके लिए कलेक्टर-एसपी को जिम्मेदार ठहराते हुए उनका तत्काल तबादला कर देती है, क्योंकि उसके एक राजनीतिक मुद्दे में बदलने का डर रहता है। लेकिन स्कूल में शिक्षक नहीं हैं और अस्पताल में डॉक्टर, इससे इनके राजनीतिक कद में कोई कमी नहीं होती है। तो ऐसी स्थिति में दो ही उपाय बचते हैं। या तो इन्हें राजनीतिक मुद्दा बनाया जाए, जिसकी उम्मीद थोड़ी कम ही रहती है, क्योंकि स्थानीय लोग भी राजनीतिक खेमों में बंटे होते हैं। या फिर कोर्ट ऐसे आदेश दे, जैसा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दिया। अब प्रशासन को चाहिए यह कि वह कोर्ट के शब्दों के बजाय उसकी भावना पर जाकर सच्चे मन से इस पर विचार करके कोई समाधान निकाले। राजनीति भी इसमें शामिल है। अन्यथा मोहल्ले में लगी आग की आंच से भला कब तक बचा जा सकेगा |
~लेखक डॉ. विजय अग्रवाल( पूर्व प्रशासनिक अधिकारी)
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