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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

वर्णमाला से बाहर होते ग्रामीण

शिक्षा एक ऐसा पैमाना है, जिससे कहीं हुए विकास को समझा जा सकता है। शिक्षा जहां जागरूकता लाती है, वहीं मानव संसाधन को भी विकसित करती है। इस मायने में शिक्षा की हालत गांवों में ज्यादा खराब है। गांव तो शहर जा रहा है, लेकिन शहर का बाजार गांव में नहीं आ रहा। नतीजतन गांव की दशा आज भी वैसी है, जैसी चालीस-पचास साल पहले हुआ करती थी। देश में ग्रामीण अनपढ़ लोगों की संख्या घटने के बजाय बढ़ रही है। वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुकाबले देश के ग्रामीण निरक्षरों की संख्या में 8.6 करोड़ की और बढ़ोतरी दर्ज हुई है। ये आंकड़े सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना (सोशियो इकोनॉमिक ऐंड कास्ट सेंसस-एसईसीसी) ने जुटाए हैं। एसईसीसी ने 2011 में 31.57 करोड़ ग्रामीण भारतीयों की निरक्षर के रूप में गिनती की थी। तब यह संख्या विश्व के किसी भी देश के मुकाबले सर्वाधिक थी। 2011 में निरक्षर भारतीयों की संख्या 32.23 प्रतिशत थी, जबकि अब उनकी संख्या बढ़कर 35.73 प्रतिशत हो गई है। साक्षरों के मामले में राजस्थान की स्थिति सबसे बुरी है, जहां 47.58 प्रतिशत लोग (2.58 करोड़) निरक्षर हैं। फिर मध्य प्रदेश का नंबर आता है, जहां निरक्षरों की संख्या 44.19 प्रतिशत या 2.28 करोड़ है। बिहार में निरक्षरों की संख्या कुल आबादी का 43.85 प्रतिशत (4.29 करोड़) और तेलंगाना में 40.42 प्रतिशत (95 लाख) है। गांवों में निरक्षरता के बढ़ने के कई आयाम हैं। गांव की पहचान उसके खेत-खलिहान और स्वच्छ पर्यावरण से है, पर खेत अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। भारत के विकास मॉडल की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह गांवों को आत्मनिर्भर बनाए रखते हुए उनकी विशिष्टता को बचा पाने में असमर्थ रहा है। यहां विकास का मतलब गांवों को आत्मनिर्भर न बनाकर उनका शहरीकरण कर देना भर रहा है। इसका सबसे बड़ा नुकसान खेती को हुआ है। छोटी जोतों में उद्यमशीलता और नवाचारी प्रयोगों के लिए कोई जगह नहीं बची। गांव खाली होते गए और शहर भरते गए। गांवों में वही युवा बचे हैं, जो पढ़ने शहर नहीं जा पाए या जिनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं है। यह भी मान लिया गया कि खेती एक ऐसा पेशा है, जिसमें कोई चकाचौंध नहीं है। शिक्षा रोजगारपरक हो चली है, और गांवों में रोजगार नहीं हैं, इसलिए गांवों में शिक्षा की बुरी हालत है। सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून तो लागू कर दिया है, लेकिन ग्रामीण सरकारी स्कूलों का स्तर सुधारने पर अब तक सरकारों ने ध्यान नहीं दिया। ग्रामीण इलाकों में स्कूलों की हालत किसी से छिपी नहीं। वहां एक तरफ पक्के स्कूल नहीं हैं, दूसरी जरूरी सुविधाएं नहीं हैं, तो दूसरी तरफ शिक्षकों की पर्याप्त संख्या नहीं है। विकास और प्रगति के इस खेल में आंकड़े महत्वपूर्ण हैं। वैश्वीकरण का कीड़ा और उदारीकरण की आंधी में बहुत कुछ बदला है और गांव भी बदलाव की इस बयार में बदले हैं। पर यह बदलाव शहरों के मुकाबले बहुत मामूली है। अशिक्षा की इस बढ़ती खाई को तभी पाटा जा सकता है, जब गांवों से शहरों की ओर पलायन कम हो और गांवों में आधरभूत ढाँचे का तेजी से विकास हो। जाहिर है, इसमें बड़ी सरकारी मदद की दरकार होगी और सरकार को गांवों के विकास को अपनी प्राथमिकता में लाना होगा। देश को अपने अन्नदाता का सिर्फ पेट ही नहीं भरना है, बल्कि उसे एक बेहतरीन मानव संसाधन में भी बदलना है, ताकि यह देश गर्व के साथ यह कह सके कि हमारी अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है।


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