मन की बात : बच्चे शहर के सबसे अच्छे अंग्रेजी मीडियम वाले पब्लिक स्कूलों के यूनिफॉर्म में……………
शहर की सड़कों पर अफरा-तफरी मची हुई थी। बच्चों और उनके अभिभावकों से भरी हुई गाड़ियों ने ट्रैफिक जाम कर रखा था। कुछ लोग घबड़ाहट में गाड़ियां वहीं छोड़ अपने बच्चों के साथ पैदल भाग रहे थे। बच्चे शहर के सबसे अच्छे अंग्रेजी मीडियम वाले पब्लिक स्कूलों के यूनिफॉर्म में थे। सुबूत के तौर पर उनकी पीठों पर पंद्रह-बीस किलो वजन वाले स्कूल बैग भी थे। उन्हें घसीट कर ले जाते अभिभावकों के चेहरों पर निर्ममता नहीं, असहायता और मजबूरी के भाव थे।
मैंने एक सज्जन को रोककर इस भगदड़ का कारण पूछा, तो वह बोले, आपको पता नहीं है, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आदेश दिया है कि सरकारी अधिकारियों से लेकर विधायकों, मंत्रियों तक सबको अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना पड़ेगा? अब हम न नौकरी छोड़ सकते हैं, न बच्चों का जीवन बर्बाद कर सकते हैं। अतः बच्चों को अपने प्रदेश से ही बाहर भगा रहे हैं, ताकि इनका हाल भी कहीं आम नागरिकों के बच्चों जैसा न हो जाए।
मैंने कहा, तो इसमें प्रदेश छोड़कर भागने की क्या जरूरत है? स्कूलों का स्तर सुधारना आप लोगों के ही हाथ में तो है। वे चिढ़ गए। गुर्राकर बोले, हद कर दी आपने। कल को आप कहेंगे कि सरकारी स्कूलों में मिलने वाला मिड डे मील भी हमारे बच्चे खाएं और उसे खाकर जब मरणासन्न हो जाएं, तो हम उनका इलाज सरकारी अस्पतालों में कराएं। गलती से किसी सरकारी अस्पताल में दवा उपलब्ध हो, तो वह सरकारी दवा भी उन्हें खिलाएं। इसके बाद तो आप चाहेंगे कि हमें सरकारी काम के लिए मिली हुई कारें छोड़कर हमारे बच्चे उन्हीं स्कूलों की या नगर सेवा वाली सरकारी बसों का इस्तेमाल करना शुरू कर दें।
मैंने कहा, आखिर इसमें हर्ज क्या है? ऐसा करने से आप लोगों को पता चलेगा कि आम जनता के साथ क्या गुजरती है।
उन्होंने अपना सिर पीट लिया, फिर बोले, आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। तुरंत अपने मानसिक रोग का इलाज करवाइए। लेकिन हां, किसी सरकारी अस्पताल में मत जाइएगा।
अरुणेंद्र नाथ वर्मा
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