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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

मन की बात : "शिक्षा के अधिकार" से खिली मासूम चेहरों पर मुस्कान लेकिन जब हम शिक्षा के बारे में सोचते और बात करते हैं तो हमारे मन में स्कूल की तस्वीर जरूर बनती है, इसका एक प्रमुख कारण  यह है कि शिक्षा और स्कूल के बीच का संबंध हमारे मन में बहुत लंबी सामाजीकरण की प्रक्रिया के…………


जब हम शिक्षा के बारे में सोचते और बात करते हैं तो हमारे मन में स्कूल की तस्वीर जरूर बनती है. इसका एक प्रमुख कारण  यह है कि शिक्षा और स्कूल के बीच का संबंध हमारे मन में बहुत लंबी सामाजीकरण की प्रक्रिया के कारण स्थापित हो गया है. जिससे हम चाह कर भी पीछा नहीं छुड़ा पाते हैं.


लेकिन शिक्षा क मतलब स्कूल जाकर ज्ञान ग्रहण करना भर नहीं है. विस्तृत संदर्भों में शिक्षा का अर्थ जीवन को समझना है. स्कूल की शिक्षा का अर्थ सीमित है…वह मात्र लिखने-पढ़ने-तार्किक क्षमताओं के विकास और लोगों के साथ तालमेल बैठाने से जुड़ी होती है.

पढ़ने-लिखने का काम औपचारिक तरीके से किसी कमरे में बैठकर जीवन से कटकर जीवन के बारे में बातें करके और संवाद करके हो सकता है.  लेकिन सीखने का काम औपचारिक शिक्षण के बिना भी हो सकता है. जीवन के तमाम कौशल जीवन के साथ सक्रिय भागीदारी से ही सीखे जाते हैं मसलन घुड़सवारी, तैराकी….इसके अतिरिक्त तमाम विधाओं में लोगों ने अपने अपने प्रयासों से सीखने की कारवां को आगे बढ़ाया है और शिक्षकों के द्वारा बांधी जाने वाली बाड़ को तोड़ते हुए, अपनी रुचि और मेहनते से अपने सीखने के सफ़र को आगे बढ़ाया है.

शिक्षाविदों के बीच शिक्षा को परिभाषित करने, ज्ञान, अनुभव और क्षमताओं के विकास की प्रक्रिया को साझा करने को लेकर काफ़ी मतभेद हैं. भारत में शिक्षा को पारंपरिक रूप से शिक्षण की प्रक्रिया जहाँ संपन्न होती है…उसे स्कूल और कॉलेज के नाम से जाना जाता है. शिक्षकों के पास ज्ञान का संचित भंडार होता है जो वो अपने छात्रों के साथ साझा करते हैं. लेकिन इस अवधारणा को नई पीढ़ी से शिक्षकों और प्रोफ़ेसर तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं. उनकी मान्यता है कि हम दोनों सीख रहे हैं. कोई किसी से आगे पीछे बस इस मायने में है कि उम्र और अध्ययन का फासला है बाकी संभावनाओं के विकास और विषय विशेष पर एकाधिकार और दक्षता के द्वार हर किसी के लिए खुले हैं. जिसमें हर कोई अपनी रुचि के अनुसार अध्ययन करके आगे बढ़ सकता है.

छात्र से उम्मीद की जाती है कि वो अध्यापकों के उत्तराधिकारी हैं. वो स्कूल आ रहे हैं ताकि अक्षरों का पहचानना, पढ़ना, और लिखने की मूलभूत कौशल हासिल कर सकें. संवाद का कौशल सीख सकें और लोगों से विचार, विमर्श और संवाद करके अनुसंधान कर सकें. चीज़ों को बेहतर ढंग से समझ सकें और लोगों को बता सकें. भाषा पर अपनी पकड़ बना सकें, गणित की अमूर्त भाषा को मूर्त भाषा के सहारे समझे और अपनी उम्र के लोगों के साथ सामाजीकरण की प्रक्रिया में सम्मिलित रूप से भागीदार हो सके. एक सामाजिक प्राणी और बेहतर इंसान बन सके. शिक्षा के उद्देश्यों को अलग अलग संदर्भों में विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया जाता है. लेकिन शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य जीवन, समाज, संस्कृति, कला और जीवन को समझना है. ताकि बतौर इंसान भविष्य की चुनौतियों का सामना करने और नए समाधान पेश करने के लिए तार्किक ढंग से सोच सके और लोगों की संवेदनाओं को समझकर उनको सहयोग के लिए आगे आए.

शिक्षा का मनुष्य के व्यवहार, सोच और चिंतन को दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका होती है. इसी कारण से शिक्षा को मानव के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाने का माध्यम भी माना जाता है. इसका असर बच्चों के लिए बनने वाली किताबों पर दिखाई पड़ता है. तमाम तरह की आदर्शवादी बातों को बच्चों के मन में स्थापित किया जाता है. जिसके कारण बड़े होने तक बाल मन तमाम तरह की मान्यताओं से लैस हो जाता है. इसके कारण उसके दृष्टि की नवीनता और चीज़ों को उनके वास्तविक रूप में देखने और जिज्ञासा के कारण सवाल करने की सहज प्रवृत्ति पर प्रतिकूल और अनुकूल प्रभाव पड़ता है. इस बात को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि बच्चों को व्यावहारिक जीवन की सच्चाई के जितना करीब रहने का मौका मिलेगा, उनका जीवन उतना ही उर्बर होगा. बच्चों के सवाल औऱ उनकी जिज्ञासाओं का समाधान संवाद के माध्यम से हो सकता है. इसलिए बच्चों से संवाद उनकी समझ के दायरे को विस्तृत करने में अच्छा योगदान दे सकता है. इसलिए उन पर कोई बात थोपने की बजाय बात करना ज़्यादा बेहतर है.

छोटे बच्चों को ख़ुद से करके देखने और सीखने के जितने मौके मिले…उतना ही बेहतर है. बच्चों के ऊपर भाषा का अनावश्यक दबाव डालना ठीक नहीं है. बात बच्चों के समझ में आनी चाहिए, इस बात को जरूर ध्यान में रखा जाना चाहिए. अगर हम इतना भी कर पाएं तो बच्चों को बेहतर बचपन का अनमोल तोहपा दे सकते हैं. जो उन्हें बचपन के दिनों को बच्चों की तरह जीने वाला माहौल देगा…उन्हें रोबोट बनने से रोकेगा और ख़ुद से परिस्थितियों को समझने और उचित प्रतिक्रिया देने के लिए प्रेरित करेगा.

यथास्थिति को पूरा सम्मान………

स्कूल के बच्चों की

कोरी उत्तर पुस्तिकाएं

जो पूरी तरह कोरी नहीं है

क्योंकि उनमें लिखे हुएं हैं 

प्रश्नपत्र में छपे हुए सवाल

बिना किसी फेरबदल के…

यथास्थिति को पूरा 

सम्मान देते हुए

जो बयान करता है 

शिक्षा में बदलाव की

तमाम कोशिशों के

बावजूद बिगड़ती स्थिति की…..

~द्वारा बृजेश सिंह जी

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