अपनी तो पाठशाला, मस्ती की पाठशाला !अक्सर कहा जाता है कि परिवार बच्चे की प्रथम पाठशाल होती है. माँ बच्चे की पहली है ,तो यदि इसके समानांतर एक विचार पर गौर फरमाएं…………………
अक्सर कहा जाता है कि परिवार बच्चे की प्रथम पाठशाल होती है. माँ बच्चे की पहली होती है. गाँव, मोहल्ला और आसपास की परिवेश बच्चे का आँगन होता है, जहाँ वह अपने आसपास की चीज़ों को देखकर महसूस करता है. अपने अनुभवों का हिस्सा बनाता है या सीखता है.
अगर इसके समानांतर एक विचार पर अगर ग़ौर फरमाएं तो कहा जा सकता है स्कूल बच्चे का दूसरा परिवार होता है.शिक्षक बच्चों के अभिभावक होते हैं. जो बच्चे के बौद्धिक, शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास का काम करते हैं. यहां बच्चों को अन्य बच्चों के साथ बातचीत करने और तरह-तरह का खेल खेलने का मौका मिलता है. ढेर सारी बातें करने का मौका मिलता है. उनके साथ अपनी कहानियों और बातों के पिटारे को साझा करने का मौका मिलता है.
स्कूल में ढेर सारे नए दोस्त मिलते हैं. आसपास के हमउम्र बच्चे मिलते हैं. जिनके साथ कच्ची और पक्की (दोस्ती करने-तोड़ने) का खेल खेलने का मौका मिलता है. यहाँ आने के लिए उनको मनपसंद कार्टून वाले नए झोले मिलते हैं. नई किताबें मिलती हैं. कॉपियां मिलती है. घर वालों का प्रोत्साहन और मनुहार मिलती है. तो कभी पापा की स्कूल न जाने के लिए डांट भी मिलती है. स्कूल में बच्चों को शिक्षकों की बार-बार चुप रहने की हिदायत मिलती है. आपस में न बतियाने की सलाह मिलती है. आँखों से ऐसा न करने का इशारा भी मिलता है. स्कूल पहुंचने की प्रक्रिया में घर से दूर रहने के दौरार रोने वाले लम्हे भी आते हैं. लेकिन धीरे-धीरे लगातार हंसने, ख़ुश रहने, खेलने, गप्पे मारने, पढ़ना सीखने, तरह-तरह का खेल खेलने का अनवरत सिलसिला शुरू हो जाता है.
इसके साथ-साथ होमवर्क और क्लॉसवर्क जैसी चीज़ों से भी बच्चों का सामना होता है. लेकिन उनको पूरा करने के बाद मिलने वाली ख़ुशी. होमवर्क न पूरा करने पर मिलने वाली डांट का अबूझा सा डर भी बच्चों के सामने होता है. एनसीएफ़ के अनुसार, स्कूल में भयमुक्त माहौल होना चाहिए. लेकिन बच्चों को डर लगता है. कभी अध्यापकों की डांट से. तो कभी होमवर्क न पूरा करने पर मिलने वाली डांट-फंटकार और मार से. बच्चों और शरारत का तो पुराना रिश्ता होता है. इसलिए छोटी-मोटी शरारतें, स्कूल के कार्यक्रम में शामिल होने की ख़ुशी भी होती है. किताबों की दुनिया के साथ बनते-बिगड़ते रिश्ते, गणित के सवालों के साथ जूझते नन्हे बच्चों का कल्पनाशील मस्तिष्क, आसपास के लोगों के संवाद से तेज़ी से अपने शब्दकोश को विस्तृ करते बच्चे के सामने दुनिया की हक़ीक़तों का विस्तार भी होता है.
इसका असर बच्चों को मिलने वाली ख़ुशी (मजा), परेशानी (सज़ा) पर पड़ता है, यह तथ्य काबिल-ए-ग़ौर है. अगर किसी स्कूल में बच्चों और शिक्षकों का अनुपात प्रतिकूल है, बच्चों के बीच में सामंजस्य का अभाव है, बातचीत की बजाय गुटबाज़ी को प्रोत्साहन मिलता है तो ख़ुशी को काफ़ूर होते देर नहीं लगती है. उदाहरण के तौर पर अगर स्कूल के बच्चे कहानी की किताबें पढ़ना चाहते हैं, पिकनिक पर जाना चाहते हैं, कहानियां और कविताएं सुनना चाहते हैं, गणित के उलझे सवालों को प्यार की भाषा के साथ समझना चाहते हैं, स्कूल में रखे कंप्यूटर के कीबोर्ड पर अंगुलियां चलाना चाहते हैं, उसकी स्क्रीम पर मनोरंजन फ़िल्म देखना चाहते हैं, खेल के मैदान में खेल की तमाम सामग्री के धमाचौकड़ी मचाना चाहते हैं, बढ़ती कक्षाओं के साथ जटिल होते विषयों के साथ ज़्यादा समझदारी वाला प्यार और अपनेपन के साथ पढ़ाने की अपेक्षा रखते हैं…अगर उनकी अपेक्षाएं पूरी होती हैं. तो बच्चों के लिए स्कूल एक मजेदार जगह है.
यह उनके लिए आनंद और ख़ुशी देने वाली जगह है. लेकिन अगर बच्चों की अपेक्षाएं पूरी नहीं होती हैं. उनके सपनों को पंख नहीं मिलते हैं तो बचपन के भुलाव में स्वतंत्रता भले उनको आनंद देती हो. क्योंकि बच्चे अतीत और भविष्य को भूलकर वर्तमान में जीते हैं. उनके वर्तमान को सहारा और प्रोत्साहन देने वाला माहौल बच्चों को ख़ुशी देता है. ऐसा आनंददायक और बच्चों में निडरता का भाव भरने वाला माहौल निर्मित करने मे शिक्षकों की भुमिका बेहद महत्वपूर्ण है. एक ख़ुशहाल स्कूल के शिक्षक भी प्रसन्नचित रहते हैं. उनके चेहरे पर आनंद और संतुष्टि का भाव साफ़-साफ़ दिखाई देता है. बच्चों और अध्यापकों के बीच का रिश्ता दो-तरफ़ा होता है. उनके बीच बातचीत और संवाद का तरीका भी बच्चों के अनुभव को सीधे तौर पर प्रभावित करता है.
स्कूल में मजा या आनंद होना चाहिए यह एनसीएफ़ की भी परिकल्पना है. लेकिन शिक्षकों को लगता है कि बिना सज़ा के सीखने की प्रक्रिया संपन्न नहीं हो सकती है. इसलिए सज़ा की मौजदूगी भी मजे के साथ जरूरी है. न बिल्कुल मीठा, न पूरा नमकीन…यानी थोड़ा खट्टा और थोड़ा मीठा. ऐसे स्वाद का अनोखा जायका जो देर तक याद रहे. दूर तक साथ जाए. पढ़ाई के साथ भी पढ़ाई के बाद भी क्योंकि शिक्षा का मतलब किताब के काले अक्षरों के साथ संवाद की योग्यता विकसित करना भर नहीं है,. इंसानी भावनाओं, विचारों, चुनौतियों की परख, समस्याओं की पहचान के साथ-साथ उनका समाधान करना भी है. इसलिए शिक्षा को काम से जो़ड़ने वाली बात से आनंद को जो़ड़ा जा सकता है जैसे बाग़वानी, संगीत, नाटक, प्रार्थना, कहानी, कविता, कक्षा के दौरान होने वाला रोचक संवाद, लोकतांत्रिक तरीके से बच्चों को अपनी बात रखने का अवसर देना जैसे कई सारे तरीके हैं ताकि ख़ुशी और आनंद को स्कूली जीवन का हिस्सा बनाया जा सके.
स्कूलों का आख़िरी लक्ष्य है कि बच्चों का शैक्षिक स्तर बेहतर हो, उनका भावनात्मक विकास हो, निर्णय लेने की क्षमता का विकास हो, खुद से सोचने और सामने वाले की स्थिति को समझने की कल्पना शक्ति का विकास हो ऐसा माहौल बनाने की जरूरत है. इसके साथ-साथ प्रधानाध्यापकों और अध्यापकों का समूह अगर एक टीम के रूप में काम करे. एक-दूसरे को सहयोग दे. बच्चों के साथ शानदार व्यवहार करे,. उनकी शरारतों पर प्यार से डांटे, पढ़ाई के लिए प्रेरित करे, जीवन की परिस्थितियों को खेल-खेल में समझने वाला माहौल निर्मित करने की कोशिश करता है. ऐसा करके बच्चों के लिए स्कूली अनुभव को समृद्ध बनाया जा सकता है. जहाँ सज़ा के डर पर आनंद की ख़ुशी भारी पड़ती हो.
आभार : शिक्षा,समाज और मीडिया
0 Comments