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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

भारत के वर्तमान परिदृश्य में ‘अध्यापक की अवधारणा’और भारत की वर्तमान शैक्षिक व्यवस्था में अध्यापक की कल्पना चिंतन करने के बजाय, चिंतित रहने वाले एक मनुष्य के रूप में………

भारत के वर्तमान परिदृश्य में ‘अध्यापक की अवधारणा’और भारत की वर्तमान शैक्षिक व्यवस्था में अध्यापक की कल्पना चिंतन करने के बजाय, चिंतित रहने वाले एक मनुष्य के रूप में………

भारत की वर्तमान शैक्षिक व्यवस्था में अध्यापक की कल्पना चिंतन करने के बजाय, चिंतित रहने वाले एक मनुष्य के रूप में की जा सकती है. समाज के एक जागरूक सदस्य के रूप में अध्यापकों से हमारी बड़ी अपेक्षाएं होती है. लेकिन उनके सहयोग में संकोच करने वाली सोच का दबदबा समाज में आज भी बरकरार है. 

भारतीय समाज में एक बड़े तबके को लगता है कि भले बच्चे उनके हैं, लेकिन उनको पढ़ाने की जिम्मेदारी तो अध्यापकों की है. विशेषकर सरकारी स्कूल के अध्यापकों के बारे में उपरोक्त सच्चाई लोगों से बातचीत में सामने आती है. दूसरी तरफ निजी स्कूल के अध्यापकों की अपनी समस्याएं हैं. उनके ऊपर लगातार बेहतर प्रदर्शन करने का दबाव होता है. निजी स्कूलों के अध्यापकों को कम वेतन के अभाव में प्रभाव दिखाने वाली दुविधा का सामना करना पड़ रहा है.

अध्यापक एक ऐसा सामाजिक प्राणी है जो बेड़ियों में जकड़ा है. लेकिन उससे स्वतंत्र सोच वाले नागरिक बनाने की उम्मीद की जाती है. अध्यापक शैक्षिक प्रशासन के ‘भययुक्त वातावरण’ में जीता है और स्कूल में बच्चों के लिए ‘भयमुक्त माहौल’ बनाने का रचनात्मक काम करता है. बच्चों को सवाल पूछने और जवाब देने के लिए प्रेरित करता है. इससे अध्यापकों के सामने मौजूद विरोधाभाषा विचारों के टकराव को समझा जा सकता है. इसके कारण अध्यापकों को मानसिक अंतर्विरोध का सामना करना पड़ता है.

अध्यापकों की स्थिति

भारत के विभिन्न राज्यों में अध्यापकों को तमाम अवसरों पर अधिकारियों की फटकार, कमीशन न देने पर देख लेने की ललकार और सत्ता परिवर्तन के साथ योजनाओं में बदलाव की मार भी झेलनी पड़ती है. वह शिक्षाविदों की बुनी भूलभूलैया की प्रयोगशाला में लंबे समय से अपने धैर्य की परीक्षा दे रहा है. बच्चों को अपने सामने परीक्षा से भयमुक्त और पढ़ाई की जिम्मेदारी से मुक्त होते हुए देख रहा है. उसे बच्चों को पढ़ाना है. सिखाना है. प्रतियोगिता में आगे बढ़ाना है. उसे यह काम बिना किसी दण्ड और दबाव के करना है. यह सोच उनके लिए नई है. बच्चों के लिए अध्यापकों को अचानक से विनम्रता के साथ अपनी बात कहने के लिए प्रेरित करने वाला अंदाज भी नया है. यह बदलाव अध्यापकों से ज़्यादा जिम्मेदारी और नए सिरे से तैयारी की माँग करता है.

भविष्य की तैयारी

इसके लिए अध्यापकों को अतिरिक्त अध्ययन और कौशल विकास की जरूरत है ताकि वह बदलाव के नए दौर का नेतृत्व प्रभावशाली ढंग से कर सकें. बच्चों के शिक्षा के अधिकार को गुणवत्ता में सुधार की भावी परिकल्पना को साकार करने में अपना योगदान दे सकें. अध्यापक की कोई भी अवधारणा उसे एक व्यक्ति और व्यवस्था के हिस्से के रूप में समझे बिना पूरी नहीं हो सकती है.एक अध्यापक समाज का हिस्सा होने के नाते पूर्वाग्रहों से संचालित होता है. लेकिन सही उदाहरण सामने आने पर खुद को बदलने की कोशिश भी करता है. वह अनेक पारिवारिक, सामाजिक और व्यवस्थागत आग्रहों से आतंकित है. अतीत के स्वर्णिम दिनों को याद करता है. अपने शिक्षकों की तारीफ करता है.

शुरुआती दिन कैसे थे?

अध्यापक जब अपने शुरुआती दिनों की ऊर्जा को याद करतें हैं तो उसकी आँखें चमक उठती हैं. लेकिन खुद को सैकड़ों बच्चों के बीच अकेला और असहाय पाकर उनका दिल बैठ जाता है. हमें उनको समझने की जरूरत है. उनके साथ संवाद करने और उनको सुनने की जरूरत है. समाज का नागरिक होने के नाते अगर आलोचना करते हैं तो अच्छे काम के लिए तारीफ भी करनी चाहिए. अगर हमें बच्चों के बेहतर भविष्य के सपने आकर्षित करते हैं तो हमें अध्यापकों के विचारों को भी जानने की कोशिश करनी चाहिए. उनसे सवाल पूछने चाहिए. उनके जवाब जानने चाहिए. सवाल और जवाब के बीच की खाई को पाटने के रचनात्मक सुझावों और रणनीतियां बनाने में उनको साझीदार बनाना चाहिए. बदलाव के संप्रत्यय को जमीनी स्तर पर लाने और क्रियान्वयन की सफलता सुनिश्चित करने के लिए ऐसा करना बेहद जरूरी है.

महिला शिक्षकों की स्थिति

अगर आप घर के समीप स्थित स्कूल की महिला शिक्षकों से बात करें तो आपको पता चलेगा कि वे भी किताबें पढ़ना चाहती हैं. अपने स्कूल और घर के बच्चों को अच्छी तरह पढ़ाना चाहती हैं. लेकिन घर की तमाम जिम्मेदारियों के बीच उनको खुद पढ़ने का समय नहीं मिल पाता. ऐसे में परिवार और स्कूल में सहयोगियों की भूमिका पर भी सवाल खड़े होते हैं? यहाँ से समाधान के सूत्र मिल सकते हैं. तो वहीं अध्यापकों से अक्सर सुनने को मिलता है कि बीते आठ-दस सालों में उनको दस नई किताबें भी पढ़ने का मौका नहीं मिला. यहां ध्यान देने वाली बात है कि स्कूल की लायब्रेरी में बड़ी संख्या में किताबों की उपलब्धता के बावजूद ऐसा हो रहा है.

बच्चों को पढ़ाने में परेशानी

अक्सर सुनने में आता है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले अध्यापकों को निजी स्कूलों में पढ़ने वाले खुद के बच्चों को पढ़ाने में परेशानी होती है. इसके मुख्यतौर पर दो कारण हो सकते हैं. पहला यह कि निजी स्कूल की किताबों के स्तर काफी ऊंचा है. दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि अध्यापकों के कौशल विकास में पर्याप्त सुधार की जरूरत है. इसके लिए उनको नित नए विषयों को पढ़ने और समझने की कोशिश करनी होगी. इन तमाम चुनौतियों का समाधान परिवार के स्तर पर, समाज के स्तर पर, प्रशासन के स्तर पर और स्कूल के स्तर पर खोजा जाना चाहिए. बातचीत से नज़रिए में बदलाव होगा और सहयोग में संकोच की प्रवृत्ति कमजोर होगी और अध्यापकों को लोगों से सहयोग मिलने की राह भी खुलेगी.

बदलाव में भागीदारी का अवसर

अध्यापकों से बातचीत के दौरान पता चलता है कि वे बदलाव के तमाम खोखले मॉडल्स से बखूबी परिचित है. लेकिन बदलाव की होड़ और हड़बड़ी से अपरिचित है. उसके सोचने की स्वतंत्रता निर्देशों के जंजाल और वास्तविक स्थिति से तालमेल के संघर्ष में तिरोहित हो जाती है. अगर अध्यापकों को साफ-साफ बताया जाय कि किसी काम को कैसे बेहतर तरीके से किया जा सकता है तो अपने अनुभवों के इस्तेमाल से चीजों को ज्यादा बेहतर ढंग से करने की कोशिश करते हैं. ऐसा ज़मीनी स्तर के अनुभवों में बार-बार सिद्ध होता है. राजस्थान के अध्यापकों को आज भी लोकजुंबिश के दिनों की याद आती है, जो प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में एकमात्र सफल योजना मानी जाती है.

क्या बदलाव के विरोधी हैं शिक्षक?

इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि अध्यापक बदलाव का विरोधी नहीं है, नए विचारों और नवाचारों के खिलाफ नहीं है. वह सफलता की तमाम कहानियां लिखना चाहता है. बदलाव और समय के घूमते पहियों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहता है. लेकिन आसपास के माहौल की निराशा का दीमक उसके रचनात्मक मन के कोने को धीरे-धीरे चाट रहा है. इससे उसे बाहर निकलने के लिए प्रोत्साहन की जरूरत है. अध्यापकों का कहना है कि शिक्षा के क्षेत्र में तो सबकुछ ऊपर से तय होता है. उनको अपने स्कूल के बच्चों की किताबों के बारे में सोचने का हक नहीं है. उसके स्कूल में क्या सुविधाएं होनी चाहिए और कितने अध्यापक होने चाहिए, इसके बारे में उसकी राय नहीं ली जाती. दोपहर के खाने में डूबती पढ़ाई और पढ़ाने की जिम्मेदारियों के बीच उलझकर सवाल करते हैं, तो फटकार मिलती है.

लोकतंत्र और शिक्षा

अगर एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में शिक्षक को सवाल पूछने का हक नहीं है तो फिर वह कैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के भावी नागरिक माने जाने वाले बच्चों में सवालों की जिज्ञासा के भाव को बढ़ावा देने का हौसला कर पाएगा. ऐसा माहौल उसे धीरे-धीरे यथास्थिति का समर्थक और बदलाव का विरोधी बना देता है. हम भूलवश परिस्थिति को नजरअंदाज करके अध्यापकों को यथास्थिति के लिए जिम्मेदार मानने लगते हैं.

अध्यापक नई-नई योजनाओं के पैकेट में पुरानी चीज़ों को बदलता हुआ देखकर अपना सिर धुनता है कि आखिर वह क्या करे ताकि वर्तमान में अपना योगदान सुनिश्चित कर सके. ऐसे माहौल में वह उतना ही काम करना चाहता है ताकि काम चलता रहे. उनको प्रेरित करने वाला माहौल देने के लिए शिक्षाविदों, प्रशासन और समाज के प्रबुद्ध लोगों को आगे आना होगा. केवल अपनी कहने की बजाय उनको सुनने की भी कोशिश करनी होगी. इससे सामूहिक रूप से शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त तमाम पूर्वाग्रहों की मजबूत जड़ों को झकझोरने में मदद मिलेगी. हमें शिक्षकों की क्षमता के ऊपर भरोसा करना सीखना होगा और शिक्षकों को बच्चों के ऊपर भरोसा करना होगा. तभी स्कूल में भरोसे और विश्वास का माहौल बनाया जा सकेगा.

एकांगी नहीं है अध्यापक की अवधारणा

अध्यापक की किसी भी अवधारणा को स्कूल की अवधारणा से अलग करके नहीं देखा जा सकता है. वर्तमान परिदृश्य में सरकारी और निजी स्कूलों के बीच का फर्क साफ-साफ नजर आता है. ऐसा लगता है मानो सरकारी स्कूल आँकड़ा बटोरने की एजेंसी बनकर रह गए हैं. ऐसे माहौल में शिक्षक के काम के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता कि वह पूरे शैक्षिक सत्र के दौरान किन-किन गैरशैक्षणिक कामों में उलझा रहता है. जैसे मतदाता पहचान पत्र बनाना, पशुगणना, जनगणना इत्यादि. शिक्षकों की भूमिका में नए-नए काम भौतिक विकास की रणनीति के तहत शामिल हो रहे हैं जैसे स्कूलों में भवन निर्माण के दौरान शिक्षक से बिल्डर वाली भूमिका के निर्वहन की अपेक्षा की जाती है.

चुनौतियों की लंबी सूची

आज के वर्तमान दौर में शिक्षा के क्षेत्र में कमीशन का कारोबार अपने पैर पसार चुका है. हर निर्माण के अनुमदोन का कमीशन सुनिश्चित किया जाता है. एक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर कहते हैं कि विकास के साथ-साथ भ्रष्टाचार स्वाभाविक रूप से आता है. इस संदर्भ में भ्रष्टाचार को आवश्यक बुराई के रूप में स्वीकार करने की सहज प्रवृत्ति दिखाई देती है. लेन-देन के इस कारोबार में शिक्षक अपनी ‘आत्मा बेचने’ को विवश है. एक अध्यापक अगर बच्चों की पढ़ाई का स्तर बेहतर करना चाहता है तो पाठ्यक्रम के पीछे छूट जाने की स्थिति पैदा हो जाती है. इतनी विपरीत और कठिन परिस्थिति में डंडों के सहारे तनी हुई रस्सी पर चलने वाले खेल में संतुलन साधने की कोशिश करने वाले शिक्षकों को सलाम करने का मन होता है.
      आभार : शिक्षा,समाज और मीडिया

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