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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

प्राथमिक शिक्षा में अभी मीलों जाना है!……और आगे बढ़ना है. बस भारत की प्राथमिक शिक्षा के बारे में अंतिम और पहला वाक्य शायद यही हो सकता है क्योंकि तमाम एजेंसिया "सरकारी स्कूलों के निजीकरण" के घोषित……

प्राथमिक शिक्षा में अभी मीलों जाना है!……और आगे बढ़ना है. बस भारत की प्राथमिक शिक्षा के बारे में अंतिम और पहला वाक्य शायद यही हो सकता है क्योंकि तमाम एजेंसिया "सरकारी स्कूलों के निजीकरण" के घोषित………

शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग, काम और लेखन तीनों बहुत संवेदनशीलता की मांग करते हैं. इसके अभाव में किया गया लेखन लोगों में हैरानी, क्षोभ और गुस्सा पैदा कर सकता है. लेकिन स्थाई बदलाव की दिशा में होने वाले प्रयासों को गति देने में अपनी कोई भूमिका निभाने के मकसद से भटक जाता है. ऐसे दौर में जब तमाम एजेंसियां ‘सरकारी स्कूलों के निजीकरण’ के घोषित एजेंडे के साथ काम कर रही हैं. 

अध्यापकों को बदलते वक़्त के साथ अपने व्यवहार और सोच में बदलाव लाना होगा. सामाजिक बदलावों के लिए ख़ुद को तैयार करना होगा. ताकि आने वाली पीढ़ियां उनको सकारात्मक रूप से याद करें. अपने स्कूल की सारी व्यवस्थाओं का श्रेय वहां के शिक्षकों और प्रधानाध्यापक के नेतृत्व और अधिकारियों के सहयोग को जाता है. समुदाय के सहयोग को जोड़ने की पहल सरकार की तरफ से हो रही है. जो बहुत बेहतर सोच के साथ शुरू की गई है, लेकिन उसका हस्र जिस रूप में कुछ जगहों पर दिखाई दे रहा है, वह चिंतिंत करने वाला है.

समुदाय के लोग स्कूल में बच्चों की पढ़ाई के बजाय वहां होने वाले काम और निर्माण में अपना हिस्सा मांगने के लिए आते हैं. ऐसी ख़बरें शिक्षकों की तरफ से सुनने को मिल रही हैं. अधिकारी तीन-चार रुपए प्रति बच्चे की लागत वाले एमडीएम में भी हिस्सा चाहते हैं….क्योंकि स्कूल के स्तर पर माना जाता है कि कम बच्चे योजना का लाभ ले रहे हैं. इसीलिए स्कूलों को आवंटित होने वाला पैसा भी कुछ कम होकर मिलता है. शासन और समाज के स्तर पर इस तरह की स्वीकार्यता हैरान करने वाली है. लेकिन तमाम लोग बेहतर काम कर रहे हैं. उनको अपवाद मानकर छोड़ा नहीं जाना चाहिए. उनकी कहानियों को बी सामने लाने की जरूरत है. सकारात्मक ख़बरों के सूखे से जूझते शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले अध्यापकों और लोगों को उम्मीदों के चिरागों को जलाए रखने के लिए ऐसा करना बहुत जरूरी है.

 

आज भोपाल में रहने वाले साहित्यकार स्वयंप्रकाश जी से लंबे इंतज़ार के बाद बात हुई. जयपुर में दिगंतर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘शिक्षा विमर्श’ में उनका एक लेख पढ़ा था, जिसका शीर्षक था ‘बच्चों के बारे में बेतरतीब नोट्स’. इस लेख को पढ़कर लगा कि बच्चों के बारे में मौलिक और संवेदनशील तरीके से सोचने की जरूरत को साहित्यकार सिद्दत से बयां करते हैं. लेख की पहली पंक्ति है, “जो कहते हैं कि बच्चों के बारे में बहुत कुछ जानते हैं….उनकी समझदारी पर मुझे गहरा संदेह है.”  यहां से निकली बात दूर तक जाती है. उस लेख ने बच्चों के बारे में सोचने के नज़रिए को एक नया आयाम दिया था. उस लेख को राजस्थान के स्कूलों के शिक्षकों के साथ होने वाली स्टॉफ की बैठकों में पढ़ने के प्रसंग से स्वयंप्रकाश जी को काफी खुशी हुई कि उनका लिखा अभी भी विचारों के रूप में तैर रहा है. लोगों को प्रभावित कर रहा है. शुक्रवार पत्रिका में “सृजन की सार्थकता” के नाम से 2012 का साहित्य विशेषांक प्रकाशित हुआ था. उसमें लेखक का संस्मरण पढ़ने का मौका मिला.

इसमें उन्होंने सिरोही और पाली ज़िलों के अपने दिनों के बारे में बारीकी से लिखा है. उसमें वे कहते भी हैं, “मेरी तो बचपन से भाषा, साहित्य और कलाओं में रुचि थी और अध्यापक बनना मेरी सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा.” उनसे मैनें कहा भी कि अगर आप शिक्षक होते तो वाकई बहुत बड़ा योगदान होता. शिक्षा के क्षेत्र में लेखन के माध्यम से उनका योगदान सराहनीय है. फेलोशिप के साथियों और बागड़ अंचल के शिक्षकों से उनके लोगों के माध्यम से संवाद के सिलसिले बहुत अच्छी तरह याद आते हैं. जिनसे उम्मीद के सपनों को रौशनी मिलती ती. कभी इसी क्षेत्र में लोक जुंबिश परियोजना ने सफलता के झंडे गाड़े थे. हज़ारों शिक्षकों का सम्मान लौटाया था. उन्हें काम करने की प्रेरमा दी थी. वहीं शिक्षक आज प्रोत्साहन के अभाव और प्रयोगों की बाढ़ से परेशान हैं. वे शिकायत करते हैं कि पढ़ाई के अलावा सारे कामों को प्राथमिकता मिल रही है. बच्चों की किसी को परवाह नहीं है. शिक्षकों के तबादले में राजनीति का गहरा प्रवेश है. लेकिन तमाम समस्याओं से जूझते हुए भी लोग कोशिश कर रहे हैं. लेकिन 250 बच्चों के स्कूल में एक-दो शिक्षकों को पढ़ाता देखकर, हैरानी होती है कि बच्चों के भविष्य के साथ इससे भद्दा मज़ाक नहीं हो सकता. यह शिक्षा का कैसा अधिकार है और बच्चों को कैसी शिक्षा मिल रही है?

एक तरफ…….फिनलैण्ड में बच्चे सात साल की उम्र से स्कूल जाना शुरू करते हैं. वहां पर पहली से लेकर एमए तक की सारी शिक्षा मुफ़्त है. बस पढ़ने की लगन होनी चाहिए. दूसरी भारत में प्राथमिक शिक्षा की खैरात देकर सरकार बड़े-बड़े बैनर और पोस्टर छाप रही है. शिक्षा के अधिकार पर सुविधा संपन्न स्कूलों में शिक्षा पाए लोगों को चेहरों को आगे कर संगीत लांच करती है. उस गीत को सुनते हुए लगता है कि मानों हम भारत के सरकारी स्कूलों की नहीं….बॉलीवुड के सपनों के ‘स्कूल और बच्चों’ की बात कर रहे हों. लोगों को स्कल भेजने भर से बात नहीं बनने वाली है. शिक्षा की उपलब्धता का दायरा बढ़ाना होगा और अधिकतम लोगों को उसमें शामिल करना होगा. उससे बी बढ़कर, गुणवत्ता पर होने वाली बातों को अमल में लाना होगा. स्कूलों को आंकड़ा बटोरने की एजेंसी के खिताब से आज़ादी दिलानी होगी. जो निकट भविष्य में संभव नहीं दिखती. 

 

अभी मीलों जाना है……….और आगे बढ़ना है. बस भारत की प्राथमिक शिक्षा के बारे में अंतिम और पहला वाक्य यही हो सकता है. 

       ~भाई बृजेश सिंह जी

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