नियुक्तियों की फांस : परिषदीय प्राथमिक स्कूलों में शिक्षक भर्ती की जो नियमावली है, उसमें साफ व्यवस्था है कि 01 जुलाई को अभ्यर्थी की न्यूनतम आयु 21 वर्ष होनी चाहिए परन्तु आज हर छोटी-बड़ी भर्ती किसी न किसी पेंच में उलझ गयी
शिक्षा किसी सभ्य समाज की नींव होती है लेकिन इसकी मजबूती के लिए हो रहे प्रयासों की सरकारी उपेक्षा का नमूना देखना हो तो प्राथमिक शिक्षकों की भर्तियों पर नजर डालना पर्याप्त होगा। कई उदाहरण हैं लेकिन एक छोटे से मामले का उल्लेख चावल की पूरी हांडी का हाल बयां कर देता है। परिषदीय प्राथमिक स्कूलों में शिक्षक भर्ती की जो नियमावली है, उसमें साफ व्यवस्था है कि जिस साल भर्ती विज्ञापित होगी उसके अगले साल की पहली जुलाई को अभ्यर्थी की न्यूनतम आयु 21 वर्ष होनी चाहिए।
पिछले साल बेसिक शिक्षा विभाग ने पन्द्रह हजार रिक्तियों पर नियुक्ति के लिए दिसंबर में प्रक्रिया शुरू की लेकिन यह सामान्य सी शर्त उसे याद नहीं रही। आयुसीमा निर्धारण में जो अंतिम तिथि पहली जुलाई, 2015 होनी चाहिए थी वह पहली जुलाई, 2014 कर दी गई। अभ्यर्थी अदालत गए और अब इसे संशोधित किया जा रहा है। तात्पर्य यह कि हर भर्ती का शोर तो होता है लेकिन ऐसी छोटी-छोटी गलतियां छोड़ दी जाती हैं जिससे मामला किसी न किसी चरण में हाई कोर्ट अथवा सुप्रीम कोर्ट पहुंच लटक जाता है। हर छोटी-बड़ी नियुक्ति किसी न किसी पेंच में उलझी है।
जूनियर हाईस्कूलों में छह चरण की काउंसिलिंग के बाद विज्ञान और गणित विषयों के 29,334 शिक्षकों की भर्ती पिछले कई महीनों से हाई कोर्ट के निर्देश पर रुकी हुई है। प्राथमिक स्कूलों में 72,825 शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया साढ़े तीन साल गुजरने के बाद भी पूरी नहीं हो पाई। सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची लंबी अदालती लड़ाई के बाद जनवरी में भर्ती तो शुरू हुई लेकिन अब भी करीब सोलह हजार पद नहीं भरे जा सके हैं। भर्तियों की तरह ही पद सृजन और समय से नई शुरुआत में भी लापरवाही है।
मॉडल स्कूलों का मामला इसी खींचतान में लटक गया। यहां भर्तियों के लिए विज्ञापन निकाले गए, आवेदन भी हुए लेकिन अब इन्हें निरस्त करने की नौबत है। सर्वशिक्षा अभियान के तहत स्वीकृत लगभग दस हजार परिषदीय प्राथमिक व उच्च प्राथमिक विद्यालयों में समय से शिक्षकों के पद सृजित नहीं हो सके। इस ढिलाई के कारण केंद्र ने नए स्कूलों की स्वीकृति भी रोक दी है। सवाल उठता है कि क्या सरकारी तंत्र इतना भी सक्षम नहीं कि एक त्रुटिरहित विज्ञापन निकाल सके या फिर इसके पीछे भी सुनियोजित लापरवाही है। जो भी हो भुगतना तो बेरोजगार नौजवानों को ही पड़ता है जिनकी पैरोकारी का दम सभी राजनीतिक दल भरते हैं।
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