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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

सरकारी बनाम निजी स्कूलों का सवाल : हैसियत में न होने के बावजूद निजी स्कूलों के प्रति इतना रुझान और सरकारी स्कूलों के प्रति बेरुखी क्यों है.......

सरकारी बनाम निजी स्कूलों का सवाल : हैसियत में न होने के बावजूद निजी स्कूलों के प्रति इतना रुझान और सरकारी स्कूलों के प्रति बेरुखी क्यों है.......

तमाम अभिभावक इन दिनों अपने बच्चों के नर्सरी एडमिशन को लेकर तनाव में हैं। इसका सीधा और स्पष्ट कारण है कि हर कोई भरसक अपने बच्चों को निजी स्कूल में दाखिल करवाना चाहते हैं लेकिन निजी स्कूलों की मनमानी फीस और मनमाने नियमों के कारण लोग मनचाहे स्कूल में बच्चों को दाखिल नहीं करवा पाते हैं। इसके उलट सरकारी स्कूल में पढ़ाने के नाम पर हर कोई नाक भौं सिकोड़ने लगता है। सवाल है कि अपनी हैसियत में न होने के बावजूद निजी स्कूलों के प्रति इतना रुझान और सरकारी स्कूलों के प्रति बेरुखी क्यों है!

इसका सीधा उत्तर यही है कि सरकारी स्कूल ‘स्तरहीन’ हैं। शिक्षा व्यवस्था की यह नाकामी बड़े विमर्श की मांग करती है। देश का मध्यमवर्गीय परिवार अपनी जरूरतों में कटौती करके अपने बच्चों को बेहतर से बेहतर शिक्षा मुहैया करवाने की कोशिश करता है जो उसके हिसाब से महंगे निजी शिक्षण संस्थानों में ही मिल सकती है। यह तथ्य भी चौंकाने वाला है कि कई निजी स्कूलों में नर्सरी कक्षा की सालाना फीस आईआईटी से कहीं ज्यादा है। आईआईटी की सालाना फीस जहां 50 हजार रुपये के करीब है जबकि राजधानी में ऐसे भी स्कूल हैं जिनकी सालाना फीस साढ़े तीन लाख रुपये से अधिक है।

बात देश की राजधानी की हो या फिर किसी अन्य शहर के निजी स्कूल की, हर जगह फीस कमर तोड़ने वाली होती है। दिल्ली स्कूल एजुकेशन एक्ट के रूल 17 के मुताबिक स्कूल खुद फीस बढ़ा सकते हैं। यही कारण है कि इस सत्र में राजधानी के अधिकतर निजी स्कूलों ने फीस में 10 से 30 फीसद तक का इजाफा कर दिया है। यही नहीं, दाखिले के बाद स्कूल पहले दिन ओरिएंटेशन कार्यक्रम के नाम पर भी हजारों रुपये की वसूली कर रहे हैं। यह गंभीर विषय है कि क्यों शिक्षा ऐसे व्यवसाय में परिवर्तित होती जा रही है जहां अभिभावकों की विवशता का नाजायज लाभ उठाया जा रहा है। क्या यह जरूरी नहीं कि पूरे देश में सरकारी स्तर पर ‘फीस नियन्त्रण’ कानून हो ताकि अभिभावकों का शोषण रोका जा सके। इस दिशा में तमिलनाडु ने बेहतर पहल की है। 2009 में तमिलनाडु सरकार ने पहल करते हुए निजी स्कूलों की मांग को सिरे से खारिज कर दिया।

इस कानून के तहत उच्च न्यायालय की अध्यक्षता वाली कमेटी स्कूलों की फीस तय करती है। फीस बढ़ाने से पहले स्कूल को अपना वार्षिक लेखा-जोखा कमेटी के पास भेजना होता है और जांच के बाद ही स्कूलों को फीस बढ़ाने की अनुमति मिलती है। शिक्षा हर बच्चे का मौलिक अधिकार है और इसका सरंक्षण करना देश का दायित्व। आम से लेकर खास वर्ग तक, सभी की आंखों में एक ही स्वप्न पलता है कि उनका बच्चा बेहतर से बेहतर शिक्षा पाये। पर इस ‘बेहतर’ के मापदंड क्या हैं? सर्वागीण विकास या फिर किताबी ज्ञान या इन सबसे परे ‘अंग्रेजी ज्ञान’। आमतौर पर हमारे देश में पढ़ा-लिखा उसे माना जाता है जो फर्राटेदार अंग्रेजी बोल सके इसलिए स्वाभाविक तौर पर अभिभावकों का झुकाव ‘पब्लिक स्कूल’ की ओर ही होता है विशेषकर मध्यमवर्ग, जो जीवन पर्यन्त अपना जीवन-स्तर इस रूप में ऊंचा उठाने के कोशिश में लगा रहता है कि कैसे उसे आधुनिक माना जाए? इस जद्दोजहद में वह हर उस व्यवस्था या उपादान को अपनाना चाहता है जो समाज में ‘आधुनिकता’ की परिचायक है फिर चाहे उसके लिए उसे कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। इसी आधुनिकता का पर्याय बन चुके हैं आज के ‘पब्लिक स्कूल’।

मनमानी फीस वसूल करने वाले छोटे-बड़े ये पब्लिक स्कूल, आज बड़े शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक कुकुरमुत्ते की तरह फैले हैं और उच्चतम न्यायालय व शिक्षा प्रशासन के निर्देशों के बावजूद शैक्षिक मानकों की खुलेआम अनदेखी करते हैं। इनमें न पर्याप्त शिक्षक हैं, न बुनियादी सुविधाएं, परन्तु जैसेतै से यह शिक्षा विभाग से मान्यता ले ही लेते हैं। निजी स्कूलों के भारी-भरकम पाठय़क्रम से बच्चों पर पढ़ाई का अनावश्यक बोझ बढ़ता है।

प्राथमिक स्तर पर ही 10-11 किताबें होती हैं जो माध्यमिक स्तर तक 14-18 हो जाती हैं। यानी बचपन किताबों के बोझ तले दब जाता है। उच्चतम न्यायालय के आदेशानुसार स्कूल भवन के निर्माण के लिए न्यूनतम क्षेत्रफल 0.4 हेक्टेयर, भवन में पर्याप्त रोशनी, पार्किग की समुचित व्यवस्था, मुख्यमार्ग की चौड़ाई 12 मीटर और भवन की छत आरसीसी की बनी होनी चाहिए। स्कूल में आग पर काबू पाने के इंतजाम होने चाहिए साथ ही विद्यालय भवन की छत या दीवार में दरार नहीं होती चाहिए। परन्तु मानकों पर खरे उतरने वाले ऐसे स्कूलों की संख्या एक-दो फीसद भी हो तो गनीमत है। स्कूल बच्चे के सर्वागीण विकास का केंद्र है इसलिए अध्ययन के साथ बच्चों के शारीरिक विकास के निमित्त उन्हें शारीरिक शिक्षा देना भी जरूरी है परन्तु जिन विद्यालयों में ‘प्रार्थना’ के लिए भी छत पर खड़ा होना पड़े, वहां खेल के मैदान की कल्पना बेमानी है। जहां एक ओर पब्लिक स्कूल अभिभावकों के लिए ‘स्टेटस सिंबल’ बन चुके हैं, वहीं घोर व्यावसायीकरण के चलते, स्कूल सिर्फ किताबी शिक्षा देकर, अपने कर्त्तव्यों से इतिश्री कर लेते हैं। पर यहां समस्या गहरी इसलिए हो जाती है, कि ‘सरकारी स्कूलों’ का स्तर दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा है। स्वयंसेवी संस्था ‘प्रथम’ के सव्रेक्षण के मुताबिक पांचवी कक्षा में पढ़ने वाले पचास फीसद से ज्यादा बच्चे दूसरी कक्षा की किताबें भी नहीं पढ़ पाते हैं। दो तिहाई बच्चों के लिए साधारण जोड़-घटाव व गुणा-भाग के प्रश्न हल करना ही मुश्किल है। शिक्षा की गुणवत्ता के मसले पर बनी क्रेमर- मुरलीधरन समिति ने अपने अध्ययन में सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की गैर हाजिरी और शिक्षण-कार्य में दिलचस्पी न लेने को इसका बड़ा कारण माना था। सरकारी स्कूल के परीक्षा परिणाम, अभिभावकों को भयभीत करते हैं। ऐसे में अभिभावकों को पब्लिक स्कूल ही बेहतर विकल्प दिखाई देते हैं पर, उनके लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि वहां किताबों के बोझ तले उनका बच्चा अपना बचपना खो देता है जिससे आगे चलकर, बच्चे का विकास संतुलित नहीं रहता। यक्ष प्रश्न यह है कि आखिर अभिभावक क्या करें? अभिभावकों को अपने बच्चों के लिए ऐसे स्कूलों के चयन की आवयकता है जहां पढ़ने-लिखने के साथ-साथ बच्चे के शारीरिक सांस्कृतिक विकास पर भी ध्यान दिया जाए, जहां का पाठयक्रम और शिक्षण-विधियां बच्चों के लिए सहज व बोधगम्य हों।

वहीं प्रत्येक राज्य का दायित्व बनता है कि वह निजी व सरकारी स्कूलों से उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित मानकों का पालना करवाए और ऐसा न हो, तो विद्यालय को मान्यता न दी जाए। सरकारी स्कूल में शिक्षा का स्तर बढ़ाने के लिए भगीरथ प्रयास करने होंगे नहीं तो उनका रहा सहा स्तर भी मिट जाएगा। जब नवोदय और केन्द्रीय विद्यालय अपनी अलग पहचान और स्तर बना रहे ह तो राज्य संचालित सरकारी स्कूल ऐसा क्यों नहीं कर सकते? आवश्यकता है सिर्फ उचित प्रबंधन की। भाषा व स्टेटस सिंबल की चाह से मुक्ति पा नौनिहालों के लिए ऐसी शिक्षा की पहल हो जो उन्हें न केवल आत्मनिर्भर बल्कि एक अच्छा इंसान भी बनाए।

              खबर साभार : राष्ट्रीयसहारा

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