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एक छत के नीचे 'प्राइमरी का मास्टर' से जुड़ी शिक्षा विभाग की समस्त सूचनाएं एक साथ

पढ़ाई में फिक्सिंग : जाते प्राइवेट में, संसाधन लेते सरकारी,"राजनेता से लेकर समाजसेवी, उद्योगपति से लेकर व्यवसायी, अफसर से लेकर सड़क चलता आदमी तक शिक्षा व्यवस्था......

पढ़ाई में फिक्सिंग : जाते प्राइवेट में, संसाधन लेते सरकारी-

"राजनेता से लेकर समाजसेवी, उद्योगपति से लेकर व्यवसायी, अफसर से लेकर सड़क चलता आदमी तक शिक्षा व्यवस्था को दुरूस्त करने के लिए व्याकुल"

लखनऊ | इस समय शिक्षा पर सबसे ज्यादा जोर है। राजनेता से लेकर समाजसेवी, उद्योगपति से लेकर व्यवसायी, अफसर से लेकर सड़क चलता आदमी तक शिक्षा व्यवस्था को दुरूस्त करने के लिए व्याकुल है। सोचा कि चलो शिक्षा की बुनियाद को देखा जाये। 

राजधानी के पास का ही एक प्राथमिक विद्यालय। प्रसन्नता से इधर-उधर कूदते बच्चे। एक दूसरे को गिराते बच्चे। शिकायतों का अम्बार लगाते बच्चे। लेकिन इस सब से अंजान यह तय करते शिक्षक कि अमरूद कहां का अच्छा होता है। अमरूद का पूरा टुकड़ा अपने मुंह में रखते हुए मास्टर साहब बोले-तुमका मालूम नहीं, एक बार इलाहाबाद केर अमरूद खा के देखव। आंखे खुल जाइहैं। अरे जाव-कानपुर गंगा किनारे केर अमरूद खाव मजा आ जई। इस बहस में तीसरे गुरुजी कूद पड़े- तुम लोगन का बाहेर केर तारीफ करैं मा ज्यादा मजा आवत है। अमरूद लखनऊ केर बहूत अच्छा अऊर फायदेमंद होत है। इस बहस के बीच ही मैं भी दाखिल हो गया कि बच्चे बहुत कम हैं। मास्साब को यह सवाल नागवार गुजरा-का कहेव बच्चा कम हैं। बहुत हैं, कम कहां हैं। का पैदा कर देन का बच्चा। 

             कहां हैं बच्चे:-

सरकारी विद्यालयों के रजिस्टरों में छात्रों की संख्या भरपूर है, लेकिन उपस्थित बहुत कम। कहां गए बच्चे। क्या स्कूल नहीं आते/ खोजबीन की तो पता चला कि यह सब शिक्षा की दोहरी सदस्यता का कमाल है, यह काम और कोई दूसरा नहीं करता, बल्कि शिक्षक व अभिभावक ही कर रहे हैं। एक शिक्षक ने ही इस रहस्य से धीरे-धीरे पर्दा हटाया। वह बोले कि हम लोग गलत काम नहीं करते। प्राथमिक शिक्षा में दोहरी सदस्यता का लाभ सभी को मिल रहा है। वह हंसे-अरे अभिभवक प्रसन्न, बच्चे प्रसन्न, शिक्षक संतुष्ट, सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या देख सरकारें अपने शिक्षा के कर्णधारों की बलइयां ले रही हैं। शिक्षा विभाग के अधिकारी डींगे मार रहे हैं। उत्सुकता और बढ़ी- शिक्षा की दोहरी सदस्यता के बारे में बताइए। वही तो बता रहा हूं। अब जो मां-बाप अपने बच्चों को बहुत पढ़ाकू बनाना चाहते हैं वे उनका नाम शिक्षा की दुकानों में दर्ज करा देते हैं। 

          रुतबे की दुकानें:-

शिक्षा की दुकानें/ अरे प्राईवेट स्कूल। मास्टर साहब ने साफ किया। लेकिन चतुर मां-बाप हमारे यहां भी बच्चों का दाखिला करा देते हैं। गांवों में इस बात का रूतबा भी रहता है कि बच्चा अंग्रेजी स्कूल में पढ़ रहा है। हुआ न दोहरा फायदा। लेकिन कौन समझाए इन लोगों को पढ़ाई तो सरकारी स्कूलों में अच्छी हो रही है। जब प्राइवेट स्कूल में पढ़ रहा है तो सरकारी स्कूल में दाखिला क्यों, इस सवाल के जवाब में मास्साब ने बताया कि हम शिक्षा ही नहीं माल भी देते हैं। लेकिन ऐसा करते क्यों हो। क्या फायदा इससे, शिक्षक ने अगल-बगल खड़े लोगों की ओर देखा और बोला-अब इनसे मिलो, अरे फायदा! फायदा ही फायदा। यह ऐसी व्यवस्था है जो सबको प्रसन्न रखती है। हम राजसी स्कूल है पइसा देते हैं। बच्चे का नाम लिखने के लिए पइसा देते हैं, और निजी स्कूल पइसा ऐंठते हैं। हर बच्चे को हर साल दो ड्रेसें मिलती हैं, किताबें-कापियां मुफ्त मिलती हैं, वजीफा की बंधी रकम मिलती है, मिड-डे-मील मिलता है। इतना सब मिलता है। अब आप ही बताएं इतना सब कुछ कौन दे सकता है। स्कूल आओ या न आओ लेकिन ऐ सब मिलेगा ही। अभिभावक का भी भला है और हमारा भी भला है। आप का क्या भला/ मास्साब हंसे- बच्चों की भारी संख्या देखकर एसडीआई से लेकर सरकार तक का चेहरा दमकता रहता है कि उनके स्कूल में इतनी बड़ी संख्या में बच्चे पढ़ रहे हैं। इस लोकतंत्र में संख्या का महत्व भी है। जब इतनी बड़ी संख्या में बच्चे स्कूल आ रहे हैं, तो जरूर सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की घुट्टी जम कर पिलाई जाती होगी। पिछले साल तक जब वजीफा बंटता था तब स्कूलों में मेला लगता था। लेकिन अब वह भी खत्म हो गया। अब पैसा बच्चों के खातों में चला जाता है।

         हमारी-तुम्हारी दुकान:-

शिक्षा सत्र शुरू होते ही हर साल इस बात की जोर आजमाइश शुरू हो जाती है कि बच्चों की ड्रेसे कहां से खरीदी जाएंगी, बस्ते कहां से खरीदे जाएंगे। विधायक से लेकर सांसद तक इस जोर आजमाइश में जुटे रहते हैं कि फला दुकान से ड्रेस खरीदीं जाएं तो बच्चों को बहुत फायदा होगा या अमुक दुकान से किताब-कापी खरीदी जाएं, तो बच्चे ज्यादा विद्वान हो जाएंगे। बेसिक शिक्षा अधिकारी अपनी ताड़ में रहते हैं कि इस बहती गंगा में वह भी हाथ धो लें। दुकानदार कमीशन की पोटली लिए अपना भाग्य चमकाने को घूमते हैं। बहुत से शिक्षक अभिभावकों को समझाते रहते हैं कि देखों परेशान होवो, हम तुमसे थोड़ी कहते हैं कि अपना बच्चा काॅन्वेंट स्कूल में न पढ़ाओ, वहां का भी लाभ लेव और यहां का भी लाभ लेवे, लेकिन लांछन न लगाओ, अरे ड्रेस हम थोड़ी खरीदते हैं, सब ऊपर वाले खरीदते हैं। 

          खबर साभार : नवभारत टाइम्स

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