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असल सवाल नजरिये का है : दो अक्तूबर गांधी जयन्ती-

असल सवाल नजरिये का है : दो अक्तूबर गांधी जयन्ती-

• गांधी जी सोचते थे कि जाति-व्यवस्था से लड़े बगैर सफाई के काम को कलंक-मुक्त किया जा सकता है, पर हमें गांधी की इस सोच से किनारा करते हुए अंबेडकर की सीख पर चलना होगा।

दोअक्तूबर को राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान शुरू हो रहा है। सो, मैंने ′रावण जी′ और वेजवाड़ा विल्सन को फोन लगाया कि उनसे पूछूं, आखिर वे क्या सोचते हैं। रावण (रा’वन नहीं) जी का पूरा नाम है, दर्शन रत्न रावण। उन्होंने आदि-धर्म समाज नाम से एक सामाजिक-धार्मिक आंदोलन चलाया है। इसका उद्देश्य सफाई कामगार समुदाय की नई पीढ़ियों को मैला साफ करने जैसे अवमानना भरे काम से दूर रखना है। वेजवाड़ा विल्सन भी ‘सफाई कर्मचारी’ परिवार से हैं। उन्होंने सफाई कर्मचारी आंदोलन चलाया है। हाथ से मैला साफ करने जैसे अमानवीय चलन को खत्म करने में इस आंदोलन ने अग्रणी भूमिका निभाई है। वेजवाड़ा विल्सन का कहना है कि यह ′यूपीए के निर्मल भारत अभियान का ही नया संस्करण है।′ यह पूरा खेल उत्पादकों (जो शौचालय बनाते हैं) और उपभोक्ताओं (जो साफ-सफाई की सुविधा का लाभ उठाते हैं) के बीच का है, इसमें ‘सेवा प्रदान करने वाला’ तो कहीं है ही नहीं।

दर्शन रत्न रावण और वेजवाड़ा विल्सन को सरकारी स्वच्छता अभियान को लेकर जो आशंकाएं हैं, उनसे मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूं। आंदोलनकारियों की आलोचना-बुद्धि ज्यादा प्रखर होती है। लाल किले से जब प्रधानमंत्री ने स्वच्छता अभियान और लड़कियों के लिए शौचालय बनवाने की बात कही, तो यह संदेश लोगों के दिलों को छू गया। तो फिर इस बात को लेकर रंज क्यों पालना? हर सरकारी कार्यक्रम में कुछ न कुछ तमाशे और प्रहसन के तत्व जुड़े रहते हैं। बीते हफ्ते हमने देखा ही कि दिल्ली में किस तरह से कुछ ‘कूड़ा’ विधिवत बिखेरा गया, ताकि मंत्री जी उसकी ‘सफाई’ करें। तो भी, इस अभियान के जरिये देशहित के एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर ध्यान खींचने में मदद मिल सकती है।

असल सवाल यह नहीं कि सरकार स्वच्छ भारत अभियान को क्यों शुरू कर रही है। सवाल यह है कि स्वच्छता को लेकर सरकार का नजरिया क्या है। मेरे मित्र दर्शन रत्न रावण और वेजवाड़ा विल्सन की आपत्तियों को इसी संदर्भ में समझा जाना चाहिए। जिन लोगों ने अब तक भारत को साफ-सुथरा रखने का बोझ अपने माथे पर ढोया है, उन्हें गरिमा भरी जिंदगी कैसे मयस्सर हो- स्वच्छता अभियान का जोर इस बात पर होना चाहिए। सफाई का सवाल चार बातों से जुड़ा है और सरकारी अभियान की गंभीरता का मूल्यांकन इन्हीं चार बातों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए।

शुरुआत सड़कों और सार्वजनिक स्थलों की गंदगी की सफाई से की जाए, क्योंकि यह गंदगी ऐन हमारी आंखों पर चढ़कर हमारा मजाक उड़ाती है। मगर इस मोर्चे पर आशंका प्रतीक-पूजा में फंसे रह जाने की है। सफाई का तमाशा ज्यादा देर तक टिकता नहीं और न ही उससे बहुत कुछ हासिल हो पाता है। मुख्य बात है, सफाई के काम में ज्यादा से ज्यादा लोगों को ज्यादा से ज्यादा समय तक जोड़े रखना।
दूसरी बात पर्यावरण को साफ रखने की है। किसी महानगर में घुसो, तो उसके कोने-अंतरे में ठोस कचरे के पहाड़ खड़े दिखते हैं। जलागार एकदम से सड़ांध मारते हैं। इन दो की तुलना में वायु-प्रदूषण कुछ कम नजर आता है। यदि स्वच्छता अभियान पर्यावरण प्रदूषण के सवाल से कन्नी काट ले, तो यही कहा जाएगा कि तिनके की ओट में पहाड़ छिपाने का काम किया जा रहा है। पर्यावरणीय प्रदूषण को दूर करना बड़ी चुनौती है। मसलन, क्या हम यह मान सकते हैं कि कूड़ा बीनने के काम में लगे लोग या फिर वे लोग, जिन्हें चलताऊ भाषा में कबाड़ीवाला कहते हैं, ठोस कचरे के प्रबंधन में हिस्सेदार हो सकते हैं? पर इस मोर्चे पर बड़ी बाधा निहित स्वार्थों से निपटने की है। मौजूदा सरकार ने कई सरकारों द्वारा बीते वर्षों में पर्यावरण की सुरक्षा के लिए किए गए उपायों पर पानी फेरना शुरू कर दिया है। प्रदूषण के मानकों में ढिलाई बरती गई है, प्रदूषण की निगरानी के लिए बनाए गए संस्थान कमजोर किए जा रहे हैं।

तीसरी बात, साफ-सफाई के काम की कलंक-मुक्ति की है। हम सफाई-पसंद लोग हैं, मगर खुद सफाई करने की बात पर नाक-भौंह सिकोड़ते हैं। यह राष्ट्रीय पाखंड है। गांधी जी सोचते थे कि जाति-व्यवस्था से बगैर लड़े सफाई के काम को कलंक-मुक्त किया जा सकता है, पर हमें गांधी की इस सोच से किनारा करते हुए अंबेडकर की सीख पर चलना होगा। सफाई के काम को कलंक-मुक्त करने के लिए जाति-व्यवस्था में गड़ी इसके नाभिनाल को तोड़ना होगा। इसके लिए जरूरी है कि परंपरागत तौर पर साफ-सफाई के काम में लगे जाति-समुदाय की नई पीढ़ियों को बेहतर शिक्षा और रोजगार के अवसर हासिल हों।

इसके अतिरिक्त सफाई कर्मचारियों के कामकाज की स्थितियों पर ध्यान देना राष्ट्र की प्राथमिकताओं में शामिल किया जाना चाहिए। देश भर में सफाई कर्मचारियों को ठेके या फिर अस्थायी किस्म की नौकरी पर रखने का चलन है। उन्हें मेहनाताना कम मिलता है और नौकरी से जुड़ी कोई सुरक्षा हासिल नहीं रहती। सीवरों की सफाई करने वाले लोगों की दयनीय स्थिति राष्ट्रीय शर्म की बात है। काम के लिए जिस किस्म के सुरक्षा-उपकरण अग्निशामक दस्ते में शामिल लोगों को दिए जाते हैं, वैसे ही उपकरण सीवरों की सफाई करने वाले लोगों को दिए जाने चाहिए। मैला ढोने और उसे हाथ से साफ करने की प्रथा पेशतर खत्म की जानी चाहिए। क्या स्वच्छता अभियान मैला ढोने सरीखी अपमानजनक प्रथा को खत्म करने का अवसर बन सकता है?
इस सिलसिले में आखिरी बात अपने मन की सफाई की है। सच यह है कि छुआछूत अब भी हमारे दिलो-दिमाग से निकला नहीं है। छुआछूत की भावना भारत के उस हिस्से में मौजूद है, जो अपने को आधुनिक और कॉस्मोपॉलिटन कहता है। यह अभियान एक माकूल अवसर है, जब सफाई-कर्मचारी समुदाय से राष्ट्रीय स्तर पर क्षमा मांगी जाए और आगे के लिए अपने मन को साफ रखने का संकल्प लिया जाए। प्रधानमंत्री स्वयं इस मामले में हमारा नेतृत्व कर सकते हैं। लेकिन क्या वे ऐसा करेंगे?
(लेखक योगेन्द्र यादव आम आदमी पार्टी के मुख्य प्रवक्ता हैं और फिलहाल सीएसडीएस से छुट्टी पर हैं)

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