MAN KI BAAT : स्कूलों में बच्चों के मनमाफिक माहौल तभी बनेगा जब शिक्षकों को शिक्षणेत्तर कार्यों से मुक्त किया जाए और शिक्षा में अनुशासन के लिये पुरस्कार और दंड दोनों बहुत जरूरी हैं, तो आसान शब्दों में कहा जाए तो बच्चे के सही करने पर ‘बकअप’ जबकि गलत करने पर ‘शटअप’ का शिक्षण सूत्र.........
देश में बुनियादी (प्राथमिक) शिक्षा के ढांचे के लगातार कमजोर होने का दुष्परिणाम यह हो रहा है कि उससे हमारी माध्यमिक से लेकर उच्च शिक्षा भी जैसी अपेक्षा है उसके फलस्वरूप परिणाम नहीं दे पा रही है, लेकिन यहीं इस सच से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि मिड डे मील, यूनिफार्म, लेपटॉप, साइकिल और पाठ्य पुस्तकों के लालच से सरकारी स्कूलों में प्रवेश बढ़े हैं, परंतु क्या प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य इन योजनाओं से मात्र स्कूलों में नामांकन बढ़ाने तक ही सीमित रहना चाहिए? देश की प्राथमिक शिक्षा में योग्य व प्रतिबद्घ शिक्षकों और इसके बुनियादी तंत्र को श्रेष्ठता के आधार पर विकसित करने की जरूरत है।
जहां तक हमें लगता है कि बच्चों का भविष्य उनको मिलने वाली प्राथमिक शिक्षा पर निर्भर करता है अर्थात् हम अपने बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा किस प्रकार की देते हैं, उनके भावी भविष्य का निर्धारण भी इसी से होता है, लेकिन देश में प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था किस कदर बदहाल है, यह समय समय पर मीडिया में होने वाली चर्चा और प्रकाशित होने वाले आंकड़ों से साफ हो जाता है।
यदि बच्चों की जानकारी और समझ में बढ़ोत्तरी की बात है, तो सरकार ने प्राथमिक के "आज के प्राइमरी के मास्टर को बेहिसाब गैर-शिक्षणेत्तर काम सौंप रखा है । उनके शिक्षणेत्तर कार्य इतने बढ़ गए हैं कि उन्हें औसत मानक के अनुरूप भी कक्षा में पढ़ाने का अवसर नहीं मिल पाता है, और तो और उत्तर प्रदेश की बच्चों की शिक्षण व्यवस्था की मूलभूत आवश्यकता की बात करें तो अर्द्धवार्षिक परीक्षा सर पर आ गया है परन्तु अब तक प्रदेश के तमाम जनपदों में पुस्तकों की उपलब्धता नहीं हो पायी तो बड़ा प्रश्न है कि क्या बच्चों का पाठ्यक्रम पूरा होगा जिसकी समय सारिणी जारी है यदि होगा तो कैसे ?
वहीं स्कूल खुले होने के बाद भी अभिभावकों की घोर लापरवाही के कारण बच्चे अनुपस्थित रहते हैं या मध्याह्न भोजन खाकर स्कूल से अभिभावकों की कमियों (जैसे घर के गैर जरूरी कार्य कराने) के कारण चले जाते हैं । आरटीई कानून के मुताबिक बच्चों की शत -प्रतिशत शिक्षा के लक्ष्य को पाने के लिए उनका स्कूलों में उपस्थित रहना अनिवार्य है लिहाजा, निरीह शिक्षकों को मजबूरन उनकी फर्जी उपस्थिति बनानी पड़ती है ।
इन हालातों में उनमें प्राथमिक स्तर पर ही नकल सिखाने और करने पर ज्यादा जोर दिया जाता है । बच्चों को परीक्षाओं में उसी के सहारे ब्लैकबोर्ड पर लिखे प्रश्नोत्तर अपनी उत्तर पुस्तिकाओं पर नकल करने की आदत भी डलवाई जाती है । इसी फार्मूले पर बच्चे कक्षाएं और स्कूल तो पास करते जाते हैं, लेकिन प्रतियोगिता के मैदान में वे प्रतिभाशाली होते हुये भी असफल होने लगते हैं ।
स्कूलों में बच्चों के मनमाफिक माहौल तभी बनेगा जब शिक्षकों को शिक्षणेत्तर कार्यों से मुक्त किया जाए । जैसा कि समाचार पत्रों और इलेक्ट्रानिक मीडिया के चर्चाओं में सामने उभर कर आया है कि बाल मनोवैज्ञानिक, शिक्षा मनोवैज्ञानिक और शैक्षिक तकनीक के विशेषज्ञों आदि सभी का यह मानना होता है कि शिक्षा में अनुशासन के लिये पुरस्कार और दंड दोनों बहुत जरूरी हैं, आसान शब्दों में कहा जाए तो बच्चे के सही करने पर ‘बकअप’ जबकि गलत करने पर ‘शटअप’ का शिक्षण सूत्र अपनाना भी जरूरी है ।
लेकिन बच्चों के अभिभावक पुरस्कार मिलने पर तो खुशी जताते अभिभादन करते हैं परन्तु जब अनुशासन तोड़ने पर हल्का दंड देने पर वही अभिभावक शिक्षकों के खिलाफ लामबंद हो जाते हैं और शिक्षकों के साथ बदसलूकी भी कर करते हैं । हालांकि स्कूलों में गुस्सैल स्वभाव के कुछ शिक्षक बच्चों को गंभीर और डरावनी सजाएं भी दे देते हैं, लेकिन अपवाद स्वरूप है जो आमतौर पर नहीं होता है ।
शिक्षा का अधिकार फोरम ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देश में 98443 सरकारी प्राथमिक स्कूल सिर्फ एक शिक्षक की बदौलत चल रहे हैं। अर्थात देश के करीब 11.46 फीसदी प्राथमिक स्कूलों में कक्षा एक से पांचवीं तक के छात्रों की पढ़ाई-लिखाई का पूरा जिम्मा सिर्फ एक शिक्षक के कंधों पर है। जाहिर है, ये शिक्षक अलग-अलग कक्षा के छात्रों को शिक्षा देने के नाम पर मात्र खानापूर्ति ही करते होंगे। और जिस दिन ये शिक्षक अनुपस्थित रहते होंगे उस दिन स्कूल भी बंद रहते होंगे।
ग्रामीण इलाके के सरकारी स्कूलों की शैक्षिक स्थिति पर गैर-सरकारी संस्था द्वारा जारी 10वीं एनुअल स्टेट्स ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर)-2014 में कहा गया था कि सरकारी स्कूलों में बच्चों के सीखने, सिखाने व समझने का स्तर लगातार गिर रहा है। उसके अनुसार कक्षा-पांच में 48 फीसदी बच्चे कक्षा-दो का पाठ नहीं पढ़ पाते हैं। कक्षा दो के बच्चे तो नौ से ऊपर के अंकों को भी नहीं पहचान पाते हैं।
इससे स्पष्ट होता है कि देश के अधिकांश सरकारी प्राथमिक स्कूलों में न तो पर्याप्त शिक्षक हैं और न ही वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दे पा रहे हैं। देश में इस समय 13.62 लाख प्राथमिक स्कूल हैं, परंतु इनमें 41 लाख शिक्षकों की ही नियुक्ति हो पाई है। देश में बारह लाख से भी ज्यादा शिक्षकों के पद आज भी खाली पड़े हैं तथा जो शिक्षक हैं भी उनमें 8.6 लाख शिक्षक अप्रशिक्षित हैं। ऐसी परिस्थितियों में देश में प्राथमिक शिक्षा की ढांचागत गुणवत्ता, शिक्षक का शिक्षण-प्रशिक्षण तथा शिक्षक-छात्र अनुपात तथा शिक्षा गारंटी जैसे लक्ष्यों की वास्तविक दशा का अनुमान स्वत: ही लगाया जा सकता है।
कहने का तात्पर्य है कि शिक्षा व्यवस्था में व्यापक और जमीनी सुधार से करनी होगी, तभी हम वैश्विक प्रतियोगिता का सामना कर पाएंगे। शिक्षा पर समुचित खर्च के साथ-साथ यदि उसकी गुणवत्ता पर ध्यान दे दिया जाए तो हम अपने उद्देश्य में सफल हो जाएंगे और भारत को विकसित करने की दिशा में बढ़ पाएंगे। वर्तमान ज्ञान आधारित विश्व में अपनी पूर्ण क्षमता का दोहन करने के लिए सबसे जरूरी है कि हम पहले अपनी प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में अपेक्षित सुधार लाएं, जो बड़ा प्रश्न है, आखिर देखने वाली बात है कि क्या यह आने वाले समय में सम्भव है ।
- आगे की चर्चा फिर कभी.......
- आगे की चर्चा फिर कभी.......
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📌 MAN KI BAAT : स्कूलों में बच्चों के मनमाफिक माहौल तभी बनेगा जब शिक्षकों को शिक्षणेत्तर कार्यों से मुक्त किया जाए और शिक्षा में अनुशासन के लिये पुरस्कार और दंड दोनों बहुत जरूरी हैं, तो आसान शब्दों में कहा जाए तो बच्चे के सही करने पर ‘बकअप’ जबकि गलत करने पर ‘शटअप’ का शिक्षण सूत्र.........
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